“महाकथा” के बाद की कथा
पं. भूरामल के गाँव तक लेखक की यात्रा
(ले. - सुरेशचंद्रजैन ‘सरल')
उनके गाँव ‘राणोली' तो जाना ही था, पर निमित्त न बन पा रहा था, सो जीवनी रूपी कथा का लेखन चालू कर देने के बाद भी मन में एक जिज्ञासा हर पल बनी रहती कि वहाँ जाऊँ ! २७ सितम्बर ९८ को मैं, श्रीमती पुष्पाजी के साथ वहाँ पहुँचा। जबलपुर से दिल्ली, वहाँ से सीकर और सीकर से राणोली। सौभाग्य से सीकर में हमें श्री ज्ञानचंदजी छाबड़ा (सीकर निवासी, पूना प्रवासी) मिल गये। वे पं. भूरामलजी के वंशज हैं। अत: सीकर से राणोली की यात्रा उन्हीं के साथ सम्पन्न हुई। वे हमारे गाइड बन, हमें सीधे उस पावन इमारत के समक्ष ले गये जिसमें महापंडित, महाकवि, महाचार्य, महामुनि परमपूज्य ज्ञानसागरजी का जन्म हुआ था, हाँ ! पं. भूरामल का जन्म।
पत्थरों के जोड़ और संयोग से बनाया गया वह भव्य भवन अपने अतीत के वैभव की वर्षा करता मिला। जाते ही ऊँचा दाशा। सड़क से लगा हुआ साढ़े तीन फुट ऊँचा । दाशे के ऊपर छत, जो सात पिलर पर सधा हुआ है। सातों पिलर के सहयोग से उनके बीच में तीन घुमावदार दरवाजे (गेट) छ: सीढ़ियाँ चढ़कर हम दाशे पर पहुंचे। मुख्य गेट हमारे ऊपर। दाशे पर खड़े होकर सामने-सड़क की ओर देखा तो एक मैदान दीखा, जिसमें बायीं ओर पीपल का पुराना वृक्ष यादों का सेहरा बाँधे मटक रहा था और दाहिनी तरफ नीम के वृक्ष से मिठास बरस रही थी,
प्राचीनता की मिठास। बाहर का दृश्य बाद में देखने का मन बनाया और हम भवन के भीतर प्रवेश कर गये। तब तक हमारे साथ श्री मदनलाल काला, श्री प्रभुदयाल रारा, श्री महावीर प्रसाद रारा और श्री फूलचंद छाबड़ा (समाज के मंत्री) भी साथ में हो लिये। सभी सज्जन कदमकदम पर मकान के विषय में जानकारी देते चल रहे थे। उनकी बातों से स्पष्ट हुआ कि भवन का भूमितल (ग्राउन्ड फ्लोर) काफी वर्षों पहले निर्मित हुआ था, पर उसके ऊपर की मंजिल (फर्स्ट फ्लोर) सन् १९४६ में बनवाया गया था। भवन में कुल सोलह कमरे हैं। एक प्रांगण है, जिसमें दो कमरे पार करते ही पहुँच जाते हैं। यह छोटा-सा है। मात्र ८x८ का। इसके चारों ओर कमरे हैं। आँगन के दो ओर से ऊपर जाने के लिये सीढ़ियाँ हैं।
नीचे के कमरों को देखकर ऊपर पहुँचे, वहाँ निर्माण कार्य चल रहा था। कमरों के साथ-साथ कार्य का निरीक्षण करने का क्षण मिल गया। मैं पूछ बैठा- यह कार्य किस लिये चल रहा है, तब श्री ज्ञानचंदजी ने बतलाया कि पू. सुधासागरजी की प्रेरणा से पं. भूरामलजी के वंशजों ने यह भवन सार्वजनिक स्मारक बनाने के लिये समाज को दान कर दिया है, अब यह “महाकवि आचार्य ज्ञानसागर स्मारक राणोली' के नाम से जाना जाता है। जो यह कार्य चल रहा है, वह स्मारक की योजना के अंतर्गत ही है। ग्राम-पंचायत द्वारा इस भवन को क्रमांक प्रदान कर दिया गया है। यह अब मकान नं. २८८ कहलाता है। मैंने दरवाजे पर लगाये गये पीतल के नम्बारों की लघु प्लेट पढ़ी।
३५ गुणा ६० के भू-भाग पर निर्मित इस स्मारक के प्रथम छत के मध्य में महाकवि ज्ञानसागरजी की रन्टेचू (मूर्ति स्थापित की जावेगी, ‘वेदिका-आधार' निर्माण की ओर है, स्टेचू बन चुकी है। स्टेचू के ऊपर विशाल छतरी निर्मित होगी। उक्त स्थल के बाँयी ओर के कमरे में शिलालेख रखे हुए थे, जो भवन के कमरों में भित्ति पर लगाये जायेंगे। महाकवि पर पाषाण निर्मित चित्र वीथिका बनाना भी प्रस्तावित है। बचपन से लेकर समाधिमरण तक के सैकड़ों चित्र कीमती पाषाण पर कलाकारों द्वारा बना दिये गये हैं, जो शीघ्र ही यहाँ ‘चित्र-वीथिका का रूप पा सकेंगे। कुल पाँच स्टेचू की स्थापना और भवन निर्माण के कार्य के लिये सभी जन सहयोग कर रहे हैं, पर उक्त वंशजों का सहयोग सर्वोपरि है।
श्री ज्ञानचंदजी बतलाते हैं कि प्रथम मंजिल पर आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के संल्लेखना अवस्था को चित्रित करनेवाले स्टेचू रहेंगे, जबकि वहीं दाहिने हाथ के कमरे में उनकी क्षुल्लक अवस्था की स्टेचू स्थापित होगी। सबसे ऊपर छत पर पं. भूरामलजी की ब्र. अवस्था की स्टेचू रहेगी। स्मारक की भव्य योजना को पूर्ण रूप से समझ लेने के बाद, मुझे परमपूज्य मुनिरत्न सुधासागरजी को साधुवाद (धन्यवाद) कहने का मन हो पड़ा, जिनकी मंगलमयी प्रेरणा से यह कार्य चल रहा है। मुनिवर की यह प्रेरणा हजारों वर्ष तक जैनधर्म के महान यति ज्ञानसागरजी के प्रकाश को धूमिल नहीं होने देगी। क्या हर शिष्य अपने ‘दादागुरु' के लिये ऐसा कर सकता है? एक वजनदार प्रश्न मेरे मानस में गूंज गया। उत्तर बहुत देर तक नहीं मिला। फिर तालाब में घाट की ओर लौटती तरंगों की तरह स्वर मेरे मानस में आये, कोई उत्तर दे रहा था- अभी तो एक ही नाम है, सुधासागर।
भवन में बाहर आ जाते हैं हम लोग। सड़क पर खड़े होकर पुन: देखते हैं, एक बोर्ड भवन पर राँगा गया दिखता है- “कार्यालय : महाकवि आचार्य ज्ञानसागर दिगम्बर जैन श्रमण संस्थान राणोली।” ज्ञानचंदजी मेरे चेहरे पर हो आई थकावट को पहिचान लेते हैं, वे हमें समीप ही स्थित श्री मदनलाल काला के निवास पर ले जाते हैं। काला और उनके पारिवारिक जन चाहत और प्यार की झर लगा देते हैं। हमारे शरीर का पसीना उड़ने लगता है। कंठों की प्यास समाप्त हो जाती है। कुछ ही क्षणों में तबियत सामान्य। मैं सोचने लगता हैं कि इन्होंने जो ‘चाय और पान कराया है,
उसका नाम “चाहत और प्यार” सही है। चाय पान तो शरीर तक रहे, पर चाहत और प्यार अभी तक मन के कक्ष में चित्र-से सजे हैं। चाहत-प्यार, मेरा मतलब चाय-पान के बाद हम लोग गाँव का परिदृश्य देखने निकल पड़े। पहले वह गढ़ देखा जिस पर अंतिम शासक के रूप में राजा अमरसिंह राज कर चुके थे। गढ़ का कमानिया जैसा दरवाजा (गेट) और उस पर लगाये गये काले रंग के किवाड़ हमें बुलाते से लग रहे थे। यह नगर के मुख्य मार्ग से एक कि.मी. दूर है। गढ़ का अवलोकन कर हम लोग बाजार में से होते हुए उस नदी के समीप गये जिसका अब कोई नाम नहीं है, पर पं. भूरामलजी के जीवनकाल में उसे ‘खारी नदी' के नाम से पुकारा जाता था। यह नदी अब अपने पानी की मात्रा खो चुकी है, परन्तु पहले इसमें अधिक पानी रहता था। ग्राम राणोली को स्पर्श कर, यह एक किलोमीटर तक ही पहुँची कि एक अन्य नदी शोमवती दौड़कर इससे गले मिलती दिखी। है यहाँ संगम का दृश्य। फिर दोनों बहिने मिल कर एक हो जाती हैं और पुन: आगे बहने लगती हैं जैसे महाकवि का काव्य और महा-आचार्य का आचार्यत्व | एक होकर मेरी कथा में बहता है।
दोनों नदियाँ ऐसी गड्डम गड्ड हुईं कि उनके पूर्व स्वरूप मिल कर, एक धारा बनाने में सफल हो गये। जैसे सन्तगण मिल कर एक धारा (धारणा) बना लेते हैं, मोक्षपथ की धारणा । धारा काफी दूर तक बहती जाती है ओर आगे जाकर माता जी सरोवर' में मिल जाती है। नदी की कहानी पूर्ण हुई। इसी तरह तो सन्त करते हैं, उनकी धारा बढ़ती जाती और अंत में समाधि-सरोवर (समाधिमरण) में विलीन हो जाती है। हम धाराओं के संकेतों को समझ कर पुन: गाँव की ओर आ गये। श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर जाने के लिए हमारा पुन: भूरामलजी के स्मारक (भवन) के सामने से निकलना हुआ, मैंने गाड़ी (कार) रुकवाली और ज्ञानचंदजी से कहा वह कमरा तो दिखाइए जिसमें श्री भूरामलजी जन्मे थे। वे मेरे साथ उतरे, भवन में गये और दिखला दिया। कहें - भवन में घुसते ही दाहिने हाथ पर जो द्वितीय क्रम पर कमरा है, उसमें जन्मे थे भूरा जी। १२४९ फुट के इस कमरे में विकारी हवा को प्रवेश के लिए कोई स्थान नहीं है। द्वार के स्थान पर एक पत्थर की चौखट है, उसमें पल्ले नहीं है। ठीक इस कक्ष के ऊपर ही पं. भूरामलजी के अध्ययन का कमरा है, जो दक्षिण भाग में कहा जावेगा। भवन की दोनों भीतरी दीवालें जो पत्थर की हैं, चूने से पोत दी गई हैं।
हम भवन की भौगोलिक स्थिति लिखते हैं इसके पीछे बने पुराने मकानों में छीपे रहते हैं। भवन के दाहिनी तरफ नाई रहते हैं। बायें हाथ पर एक पुराना मकान है, जो श्री चतुर्भुजजी का ही है। हम भवन से पुनः बाहर आते हैं, मंदिर की ओर चल देते हैं। श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर, जिसमें अब बालिका विद्यालय भी चलता है, देखने मिल गया। इसके प्रांगण में भी महाकवि आचार्य ज्ञानसागरजी का स्टेचू श्री ज्ञानचंद छाबड़ा के सहयोग से स्थापित किया जा रहा है। मंदिर के विशाल परिसर में आयुर्वेदिक औषधालय भी स्थापित है। मंदिरजी के ठीक सामने दिगम्बर जैन भवन है- सड़क के पार । वह भी देखा। पू. सुधासागर जी सभी के जीर्णोद्धार के लिए प्रेरणाएं प्रदान कर रहे हैं।
बड़ा मंदिर माने नसियाजी । इसके पार्श्व में सेठ श्री बख्शीरामजी, सरबसुखजी एवं श्रीलालजी बड़जात्या की श्रद्धा काम कर रही है। कहें श्री ज्ञानचंद छाबड़ा अपने पिताजी की स्मृति में वहाँ कार्य पूर्ण कराने का संकल्प ले चुके हैं। राणोली से वापिस हो रहे थे। पूरे गाँव को देखकर आभास हुआ कि यह लगभग २ किलोमीटर लम्बा और एक कि.मी. चौड़ा है। यों पूर्व में इसकी लम्बाई-चौड़ाई मात्र एक कि.मी. और आधा कि.मी. थी। नदी के उस पार हरिजन रहते थे, इस पार महाजन । यहाँ रेलवे स्टेशन भी है, जिसका नाम 'राणोली' ही है। गाँव के उत्तर में साँगरवा पहाड़ फैला है तो पश्चिम में रेवासा पहाड़। शेष दो दिशाओं में खेत ही खेत हैं। साँगरवा पहाड़ ६ कि.मी. पर है तो रेवासा ९ पर।
ग्राम दर्शन, भवन दर्शन कर हार्दिक खुशी हुई। हमने श्री ज्ञानचंदजी को धन्यवाद दिया और प्रस्थान कर दिया सीकर के लिए। २७ सितम्बर ९८ का वह दिन मैं कैसे भूल सकता हूँ, आप ही विचार करें। लौटते समय रास्ते में ज्ञानचंद ऑसौर उनके साथियों के संस्मरण | याद आने लगे - इन्होंने बतलाया था कि भूरामलजी के बाल्यकाल के समय गाँव में कोई स्कूल नहीं था, फलत: ग्राम के धीमान लोगों के पास आ-जा कर ही शिक्षा प्राप्त की थी, बाद में बनारस जाना हुआ। राणोली में जिन मदनलाल काला से वार्ता हुई, उनके शब्द याद हो आये – सन् १९६० के आस-पास की बात है, मदनलालजी हिसार (हरियाणा) गये हुए थे, वहाँ के एक मंदिर में पं. भूरामलजी का ब्र. अवस्था का चित्र लगा हुआ था। उसे देख कालाजी बोल पड़े ‘‘ये तो हमारे गाँव के हैं' मंदिर में लोगों को ज्ञात होते ही समाज ने उन्हें बहुमान दिया। पूछ-परख पर ध्यान रखा। आदर-सत्कार की कमी न होने दी। इतना ही नहीं दो-चार दिन रुकने के उद्देश्य से गये कालाजी को, वहाँ के समाज ने अपने प्रेमानुरोध से बीस दिन तक रोका। कालाजी को सुन्दर आतिथ्य लाभ हुआ। वे ब्र. जी के प्रभाव को समाज के जन-जन में पा रहे थे।
पं. भूरामलजी जब दुकानदारी करते थे, तब की एक घटना बतलाई थी उन लोगों ने। भूरामल जी को एक बार यू.पी. (उत्तरप्रदेश) जाना पड़ा, वहाँ चाँदपुर में व्यापारिक कार्य था। तब उनके निर्दोष, नि:स्वाद खान-पान के दर्शन हुए। वे रास्ते में शोधपूर्ण बनाया गया भोजन हर जगह तो नहीं उपलब्ध कर सकते थे, अत: साथ में चने और नमक रख कर ले गये थे। जहाँ, जिस नगर में साफ सुथरे श्रावकों का रहवास न होता, वहाँ वे चने उबालकर खा लेते थे, किन्तु सुस्वादु भोजन के चक्कर में यहाँ-वहाँ नहीं खाते थे। जिनका आहार इतना सादा और शुद्ध होता है, उनका मन भी साफ होता है। निष्कपट, नि::कषाय। हम राणोली के समीप से नई रेल लाइन को पार करते हैं। वहीं से स्टेशन दीखता है। रेल-फाटक्क पार करते ही हमारी गति बढ़ जाती है।