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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 32

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    नसीराबाद का चातुर्मास जीवन का अंतिम चातुर्मास है, यह बात आचार्य ज्ञानसागरजी जान चुके थे, अत: वे तदनुसार मुनि विद्यासागर को तैयार कर रहे थे। मुनि को तैयार करने का अर्थ है कि बगैर आत्मपीड़ा पहुँचाये, अनुकूल विचारों पर चलने की मानसिकता शिष्य में निर्मित कर देना। सन् १९७२ के वर्षायोग के बाद आगामी किसी भी वर्षायोग में पू. मुनि विद्यासागरजी को अपने आत्मस्वामी गुरु पूज्य ज्ञानसागरजी का संयोग नहीं मिलेगा, वे यह नहीं जानते थे, परन्तु उनके अस्वास्थ्य से मुन्योचित चिन्ता अवश्य करते रहते थे। ज्ञानसागरजी को दमा के साथसाथ गठियावात के कष्ट तीव्रता से सता रहे थे। वे अपनी जीर्ण काया को रोज-रोज रोगों से लुटता-पिटता देख रहे थे। शरीर में अत्यधिक पीड़ा होने लगी थी। यों कष्ट वे सह रहे थे, पर वह श्रावकों से देखा नहीं जा रहा था। उनके हर जोड़ में दर्द समा गया था, घुटने में, टिहुनी में, कमर में, शरीर के हर जोड़ में। जोड़ों की हर गठान में पीड़ा ही पीड़ा थी। उम्र ८१ वर्ष की ओर कदम धर रही थी, परन्तु देह एक-एक कदम चलने में असमर्थता की मौन घोषणा ज्ञापित करती रहती थी।

     

    शिष्योत्तम विद्यासागरजी अपने वयोवृद्ध-ज्ञानवृद्ध-तपवृद्ध गुरु की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। छाया की तरह हरक्षण उन्हीं के पास बने रहते थे। उनकी पीड़ा हरने का प्रयास करते, काश ! उनके वश में होता। कभी पैर सहलाते, कभी सिर दबाते, कभी पीठ पर हाथ फेरते। गुरुवर उठते तो विद्यासागरजी स्वतः पकड़ कर उठाते, लेटते तो अपने हाथों लिटाते । जो जन देख रहे थे- सेवा का भाव और सेवा का क्रम, वे कहने लगते कि एक माता ही अपने शिशु की ऐसी सेवा कर सकती है। श्रेष्ठिवर्ग देखता तो कहते दस लाख रुपये देने पर भी कोई ऐसी आत्मीयता पूर्ण सेवा नहीं प्राप्त कर सकता, जो गुरुवर अपने प्रिय शिष्य से पा रहे हैं। सेवा भी एक दिन या एक सप्ताह नहीं, कई माहों से चल रही थी और आगे काफी समय तक चली।

     

    चातुर्मास पूर्ण होने को था। श्रावकों की दृष्टि विद्यासागरजी के सेवाभाव पर हर्षित थी, जबकि पू. विद्यासागरजी कुछ पृथक दृष्टिकोण रखते थे। वे सोचते थे कि इन महान दानी, महान उपकारी गुरुवर ज्ञानसागरजी ने पिछले छह वर्षों में मुझे जो कुछ भी अवदान दिया है। उसके समक्ष मेरे द्वारा की गई टहल, सेवा, गुरुभक्ति आदि कुछ मायने नहीं रखती। मैं कभी उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता, चाहे अपने देहात्म को ही क्यों न होम डालूँ। योग्य शिष्य के योग्य विचारों के समक्ष कोई तर्क उचित नहीं था। वे जो सोच रहे थे, वह यथार्थ के धरातल पर था। श्रावक जो सोच रहे थे- वह भावुकता के धरातल पर था। मगर सत्य दोनों सोचों में था।

     

    चातुर्मास के बाद विहार की स्थिति बनती है, पर नसीराबाद के चार्तुमास की विशेष परिस्थितियों के कारण निष्ठापना के बाद भी विहार करने की इजाजत प्रकृति नहीं प्रदान कर रही थी। तब गुरुवर ने शरीर ढोने के बदले शरीर त्यागना ही उचित समझा। मगर समस्या यह थी उनके सामने कि नसीराबाद के आस-पास किसी नगर में कोई आचार्य उस समय अवस्थित नहीं थे, जो थे, वे सैकड़ों मील दूर थे, जहाँ पैदल चल कर पहुँचना उनके दुर्बल शरीर के वश में नहीं था। गुरुवर सोच रहे थे कि जैनागम के अनुकूल, आचार्य भगवन्त से मरण-समाधि की दीक्षा प्राप्त करूं और शरीर के आश्रय का आधार छाडूं।

     

    इस बीच उनका चिन्तन सही पात्र के पास पहुँच गया, कुछ क्षणों के बाद ही। उन्होंने विचार किया कि प्रिय शिष्य विद्यासागर को गत पाँच-छह वर्षों में पारंगत कर दिया है। वह अब एक परमयोग्य दिगम्बर मुनि है। आगम निष्णात मुनि । मेरे बाद वह आचार्य होंगे ही, अत: क्यों न मैं स्वत: अपने अंतिम पाठ के रूप में वह पाठ भी उन्हें प्रदान करूं और फिर उन्हीं का होकर समाधि के लिये प्रवृत्त होऊँ। पूज्य ज्ञानसागरजी को अपना सोच सौ प्रतिशत उचित लगा। उन्हें लगा कि कई वर्षों से गुरुताओं का भार सिर पर धर कर चल रहा हूँ, देखें कि अब यह मन लघुता धारण करने में भी आगे बढ़ कर साथ देता है या नहीं। विद्यासागर की अंतिम परीक्षा होगी आचार्यपद धारण करने में और मेरी अंतिम परीक्षा होगी आचार्यपद त्याग करने में। मैं जो एक आचार्य हूँ, अपने ही शिष्य का निर्देशन पाऊँगा क्या ? इस परीक्षा में भी मुझे उत्तीर्ण होना चाहिए। बड़े से लघु बनने की परीक्षा । सागर से बूंद हो जाने की परीक्षा।

     

    दो तीन दिनों तक वयोवृद्ध ज्ञानसागरजी का विचार मंथन मन ही मन चलता रहा, फिर एक दिन शिष्य से बोले- “तू आचार्यपद के लायक हो गया है।''  वाक्य सुनकर मुनि विद्यासागर चकित हो गये, फिर बोलेअभी मुझे आचार्य पद नहीं चाहिए, अभी आपकी सेवा करने में धर्म का जो श्रेष्ठ    आनन्द पा रहा हूँ, वह नहीं छोड़ना चाहता। गुरुवर बोले

    - आचार्य बनने के बाद भी तू सेवा का धर्म पा सकता है।

    - पर मुझे ऐसे ही जब वह मिल रहा है तो विकल्प में क्यों पहूँ ?

    - काहे का विकल्प, वह तो मेरा दायित्व है। इस पथ पर चलने की एक परीक्षा।

    - गुरुदेव, अभी परीक्षा का समय नहीं है, पहले आप स्वस्थ हो जाइये।

    - तू ठीक कहता है, मैं स्व में स्थिर होने के लिये ही तुम्हें अपने संघ का आचार्य मनोनीत करना चाहता हूँ। मेरी अभिलाषा है कि किसी आचार्य भगवन्त से संल्लेखना व्रत प्राप्त कर अपनी यात्रा पूर्ण करूं।

    - गुरुदेव, आपसे अच्छे आचार्य भगवन्त कहाँ मिलेंगे ?

    - मेरे समीप ही।

     

    विद्यासागर पू. ज्ञानसागर की बातों से शिष्योचित लाज से भीग गये, कहें लजिया गये। थोड़ी देर मौन समाया रहा कक्ष में। फिर ज्ञानसागरजी पुन: कुछ बताने लगे। विद्यासागरजी ने उनके चरण पकड़ कर उन्हें याद दिलाया- गुरुदेव वार्ता का समय समाप्त हो गया, अब तो प्रतिक्रमण का समय है।

    - वही तो कर रहा हूँ।

    - नहीं गुरुदेव, भाव आपके अवश्य प्रतिक्रमण के हैं, पर शब्द नहीं हैं। शब्द तो याचना से भरे-भरे हैं। आप याचना न कीजिये, प्रतिक्रमण कीजिए और मुझे भी प्रतिक्रमण का अवसर प्रदान कीजिए।

     

    गुणवान शिष्य की वार्ता से पू. ज्ञानसागरजी अपनी काया की सभी पीड़ायें भूले हुए थे। वार्ता बन्द हुई, पीड़ायें देह में रेंगने लगीं। गुरु के आगे शिष्य की बात मानी जावे- जरूरी नहीं है। अत: गुरुवर ने दूसरे दिन ही नगर के समाज प्रमुखों को बुलाकर अपने मन का संकल्प बतला दिया और निर्देश दिये कि आचार्यपद त्याग का एक सादा कार्यक्रम २२ नवम्बर ७२ को रखें। गुरु की आज्ञा के समक्ष पंचों को कर्तव्य करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह जाता। सम्पूर्ण नसीराबाद में घंटे भर में ही समाचार फैल गया“आचार्यश्री पद त्याग रहे हैं। दूसरे दिन समाचार अजमेर और जयपुर सहित अनेक नगरों तक जा पहुँचा।

     

    अनेक नगरों के भक्त पहले से ही नसीराबाद में आकर उनके दर्शनलाभ का पुण्य ले रहे थे, बाद में जिन्हें समाचार समय पर मिलता गया, वे भी आते गये। २२ नवम्बर १९७२ का दिन नसीराबाद के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दिवस बननेवाला था। समाज के बालाबाल नरनारी कार्यक्रम स्थल पर उपस्थित थे। पंडितगण विधि-विधान के लिये द्रव्य सहित स्थान ले चुके थे। परमपूज्य आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज एक ऊँचे सिंहासन पर विराजमान थे। समीप ही कुछ छोटे (नीचे) काष्ठासन पर पू. मुनि विद्यासागर जी अवस्थित थे, उन्हीं के समीप अन्य साधुगण।

     

    समाज के मंत्री महोदय ने श्रोताओं के समक्ष विषय का खुलासा किया। तब तक पूज्य ज्ञानसागर जी स्वमेव मुखरित हो पड़े, वे अत्यंत सहजता से बोले- ‘‘बंधुओ ! यह शरीर नश्वर तो है ही, अब पूर्ण जर्जर हो चुका है, धर्म कार्य ऐसे दुर्बल साधन से कैसे सम्पन्न किये जा सकते हैं, यह बेचारा अब आगे साथ देने में असमर्थता जाहिर करने लगा है, अत: मैं आचार्यपद छोड़कर आत्मकल्याण करना चाहता हूँ। जैनागम में ऐसा करना सर्वथा उचित ब्बतलाया गया है, अतः मैं अभी, इस क्षण, आचार्यपद से श्री विद्यासागरजी मुनि को आज्ञा देता हूँ कि वे यह आचार्यपद स्वीकार करें ताकि मैं अपना आचार्यपद समाप्त कर सकूँ।


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