हमें खुशी होती है कि सीकर में एक संगोष्ठी के कारण हमें राणोली के दर्शन हो गये थे। सत्य यह है कि पू. ज्ञानसागरजी की जीवनी का लेखन उस समय तक आधा ही हो पाया था कि अचानक जैन समाज सीकर से मुझे “आचार्य विद्यासागर वांगमय राष्ट्रीय संगोष्ठी'' के निमित्त आमंत्रण आया, जिसमें आचार्य विद्यासागरजी के महाकाव्य ‘“मूकमाटी में प्रकृति चित्रण'' पर मुझे एक आलेख बाँचना था। गोष्ठी के आधारभूत कार्यकर्ताओं में प्रमुख नाम स्पष्ट करना चाहता हूँ-श्री शशिकुमार दीवान (अध्यक्ष-समिति), श्री महावीर प्रसाद (मंत्री), डॉ. रमेशचंद जैन एवं डॉ. कपूरचंद जैन (संयोजक), डॉ. संतोषकुमार जैन सह संयोजक, श्री सुआलाल बड़जात्या एवं श्री मुकेश कुमार जैन (व्यवस्थापक)।
वहाँ पहुँचने पर, गोष्ठी के दिन चार महत्त्वपूर्ण नाम और सामने आये - सत्र अध्यक्षद्वय श्री डॉ. सत्येन्द्र चतुर्वेदी एवं डॉ. नलिन शास्त्री, पुण्यार्जक श्री अशोक कुमार विनाक्या एवं सत्र संचालक श्री पं. अरुणकुमार शास्त्री। इन सबके ऊपर वे नाम थे, जिनके पावन आशीष से गोष्ठी को स्वरूप मिला था- परमपूज्य मुनिपुंगव सुधासागरजी महाराज और उनके संघस्थ साधु, क्षुल्लक श्रेष्ठ श्री गम्भीरसागरजी, क्षु. श्रेष्ठ श्री धैर्यसागरजी एवं ब्र. संजय भैया। इसी संगोष्ठी में मुझे आयोजकों द्वारा “साहित्य कुमुद चंद्र अलंकरण दिया गया था एक भव्य समारोह में, वह भी पूज्य सुधासागरजी और उनके संघ के मंगल सान्निध्य में।
सीकर लौट पू. मुनिवर से चर्चा की और राणोली का वर्णन तथा प्रसंग कथा के अंत में पृथकू से लिखने का भाव बनाया। आशीष लिया। सीकर में साधुत्रय की कृपा से कई संस्मरण लोगों से प्राप्त हुए, जिनकी प्रामाणिकता पर स्वत: संतों ने विचार किया, बाद में लेखनी ने स्पर्श दिया। सीकर से जबलपुर लौटते समय मेरा मन संस्मरणों का पिटारा बन गया था, सारे रास्ते में मन में दृश्य बनाकर उन्हें अपने नेत्रों से देखता रहा। मुझे अपनी वह यात्रा याद हो आई जब में १२ अप्रैल ९८ को अजमेर गया था। वहाँ पहले वह स्थल जाकर देखा था, जहाँ कभी (३० जून ६८ को) पूज्य विद्यासागरजी महाराज की मुनि दीक्षा हुई थी। पू. सुधासागरजी के आशीष से उस स्थल का भी विकास किया जा रहा है। वहाँ भविष्य में एक बड़ी योजना आकार पा सकेगी, भक्तगण देखेंगे, आनंदित होंगे।
उसी समय मुझे १३ अप्रैल ९८ को नसीराबाद जाने का सौभाग्य भी मिला था, जहाँ एक मंदिर में पू. ज्ञानसागरजी समाधिस्थ हुए थे, वहाँ उस मंदिर का विकास कार्य तो पू. सुधासागरजी के आशीष से हो ही रहा है, जिस भूमि पर पू. ज्ञानगसारजी को अग्नि दी गई थी, वह पूरा भूखण्ड भी प्राप्त (अर्जित) कर लिया गया है। वहाँ एक विशाल स्मारक निर्माणाधीन देखने मिला, जिसमें ज्ञानगसारजी की जीवनी को पाषाण चित्रों पर उकेर कर भित्तिकाओं पर स्थित किया जाना है। मध्य में एक विशाल स्टेचू होगा आचार्य ज्ञानसागरजी का, उसके आजू-बाजू के कोणों में पं. भूरामल और ब्र. भूरामल के स्टेचू शोभायमान किये जा सकेंगे। बहुत बड़ी लागत से उक्त कार्य भक्त जन करेंगे, उनके साथ मुनि सुधासागरजी का आशीष जोगी है।
याद आया, सीकर में मेरे पास तक पहुँचाया गया, श्री रतनलाल झाँझरी का संस्मरण, जो आजादी के पूर्व का था। श्री झांझरी अभी ७३ वर्ष के वृद्ध हैं, पूर्व में राणोली ही रहते थे। वे लिखते हैं- जब राणोली में ठाकुरसाब राज करते थे, तब जैन समाज के साठ घर थे गाँव में। तब की घटना है- बड़ा जैन मंदिर की दीवार में से एक पीपल का वृक्ष ऊग कर, उस समय तक काफी बड़ा हो गया था, फलत: दीवार में दरारें आने लग गई थीं। दीवार गिरने के भय से कुछ जैन युवकों ने पीपल काट दिया। अन्य एक सम्प्रदाय के लोगों को पीपल काटे जाने का बहाना मिल गया, फलतः उन्होंने ठाकुरसाब से शिकायत कर दी। शिकायत के समाचार से अनेक विघ्नसंतोषी जन जैन-समाज के लोगों की उपेक्षा करने लगे।
पू. भूरामलजी को यह ग्रामीणों का साम्प्रदायिकता पूर्ण आक्रोश अच्छा नहीं लगा, अत: उन्होंने जैन समाज को निर्भय बनने और स्वालम्बी होने के सूत्र दिये। फिर कुछ मित्रों के साथ ठाकुरसाब से मिलने गये, उनके मन में आये कलुष को अपनी निर्मल वाणी से धोने का प्रयास किया। ठाकुरसाब ने तब कहा कि हम बनारस से पंडितों को बुलाये देते हैं, उनके साथ बैठकर मंत्रणा कर लीजिए। कुछ ही समय में ठाकुरसाब द्वारा आमंत्रित तीन ब्राह्मण पंडित राणोली पहुँच गये। गढ़ में सभा बुलायी गई, सभी जाति के प्रमुख जन बुलाये गये। बनारस के पंडितों के समक्ष जैनसमाज से मात्र एक ही पंडित थे- श्री भूरामलजी। बनारस के तीन विद्वानों ने राणोली के एक विद्वान से चर्चा की। उनकी चर्चा मंत्रणा में बदल गई। दो घंटों तक विचार विमर्श हुआ। अंत में चारों पंडितों की बातों का निष्कर्ष ठाकुर साब ने जनता को सुनाया- “पीपल का अपना महत्त्व है, यह पूर्ण रूप से निर्विवाद है। पर देवस्थान का भी अपना महत्त्व होता है। अत: यदि पीपल के कारण देवस्थान को कोई क्षति होती तो उसका दोष भी हम सभी को लगता। इसलिये जो कार्य जैनयुवकों ने किया है, उस पर आक्रोश करना या दोष मढ़ना उचित नहीं है। गाँव में सभी समाजों के लोग मिलकर रहें और ध्यान रखें कि हमारी ग्रामीण एकता को खंडित करने जैसा, एकता की दीवाल पर विद्वेष का पीपल न उग पावे, अन्यथा दरारें बढ़ती ही जावेंगी।”
ठाकुरसाब का आशय सभी को उचित लगा और उसी दिन से पूरे गाँव में एकता स्थापित हो गई। बनारस के पंडित विदा हो गये, राणोली का पंडित लोगों के मन मस्तिष्क पर छा गया। इस घटना के बाद ही पं. भूरामलजी ने जैन विवाह पद्धति' पर एक पुस्तक लिखी और समाज को ब्राह्मण और नाई के बिना, विवाह शादी की क्रियायें करने का आत्म-जागरण प्रदान किया। उक्त समयकाल की ही बात है कि एक तरफ अंग्रेज और दूसरी तरफ ठाकुर जमीनदार वगैरह गरीब जनता को दबा कर रखते थे। कोई व्यक्ति, समाज, सभा आदि कार्य स्वतंत्र रूप से करना चाहता था तो लोग अध्यक्ष बनने तैयार न होते थे कि कहीं जमीनदार साब बुरा न मान जायें या अंग्रेज ऑफीसर न आ जाये। ऐसी विषम स्थिति में पं. भूरामलजी खुलकर सामने आये और अंग्रेजों या जमीनदारों के उत्पातों की चिन्ता किये बगैर, अनेक सभाओं की अध्यक्षता करते रहे। पर वे नेता नहीं बने, पंडित के सच्चे आचरण जीवित रखे, फलत: उन पर कोई नाराज न हो सका। ऐसे जनप्रिय' (प्यारे) थे हमारे पंडितजी।
सोचते-सोचते थकावट आ गई मस्तिष्क में सो पढ़ने के लिए पुस्तक खोजने लगा। बैग में अनेक पुस्तकें और कागज भरे पड़े थे। एक हलके हरे रंग का कागज हाथ में आ गया। देखा- मुनि उत्तमसागरजी द्वारा लिखित एक सुंदर काव्य है, शीर्षक है- “सुधासिन्धु-अष्टक' पू. उत्तमसागरजी भी आचार्य विद्यासागरजी के शिष्य परिकर' से एक हैं। और पू. सुधासागरजी से काफी कनिष्ठ (जूनियर) हैं। उनके मनोभाव उस हरे कागज पर पढ़ने लगता हूँ।
"सुधा सिन्धु अष्टक"
विद्यादधि का मंथन करके, “परम-सुधा" रस प्राप्त किये।
निजानुभव की मिश्री मिलाकर, भविजन को नित पिला रहे।।
ख्याति लाभ के स्वार्थ बिना ही, करे धर्म का हर पल काम।
ऐसे मुनि श्री सुधासिन्धु' को, मेरा शत-शत बार प्रणाम ।।१।।
जैनागम के सही अर्थ को, जनघ-मानस को बता रहे।
"समंतभद्र" सम जिनशासन का, डंका घर-घर बजा रहे।।
मिथ्यातम के गजदल को, जो सिंहनाद से भगा रहे।
ऐसे “गुरुवर सुधासिन्धु" के पद पर सर हम झुका रहे ।।२।।
त्याग-तपस्या भी अनुपम है, और साधना भी भारी।
निर्झर व्रत निर्भीक वक्ता, अरु गुरु के आज्ञाकारी।।
न्याय तर्क सिद्धांत नीति, षट्दर्शन के भी हैं ज्ञाता।
इन मुनिपुंगव "सुधासिंधु" के चरणों में मेरा माथा ।।३।।
'धैर्य' वीर 'गंभीर' सिन्धु हैं, अरु ओजस्वी वाणी है।
तीर्थोद्धारक धर्म प्रचारक, श्रमणों में हैं श्रेष्ठ श्रमण।।
इन मेधावी परम “सुधासागर” को, मेरा कोटि नमन ।।४।।
चर्या-चर्चा एकसी दिखती, जिनके जीवन में ।
हर प्रश्नों के उत्तर भी हैं, इनके हिलाकर प्रवचन में ।।
इनके केवल दर्शन से ही, मिट जाता संसार भ्रमण।
इन जग हितकर “सुधासिन्धु' को, मेरा बारम्बार नमन ।।५।।
मात्र ज्ञान ही नहीं देते, ये देते हैं संस्कार सही।
ज्ञान और संस्कार प्राप्त कर, पाते भविजन मोक्ष मही ।।
आत्मध्यान की कला सिखाकर, करते हैं जो चित्त चमन।
इन जग हितकर "सुधासिन्धु" को, मेरा बारम्बार नमन ।।६।।
सत् युग की सत् परम्परा को, जीवित रखते इस जग में।
नव गजरथ के साथ पंच-कल्याण कराये इस युग में ।।
अतिशय युत तलघर प्रतिमा के, करा दिये जग को दर्शन ।
बाल ब्रह्मचारी श्रीमुनिवर, “सुधासिंधु को कोटि नमन ।।७।।
नये तीर्थ अरु विद्यालय के, बने प्रणेता निज बल से।
धुला रहे मिथ्यामतियों को, सही धर्म के शुचि जल से ।।
इनकी अनुपम शक्ति देखकर, हुआ हर्ष युत गुरु का मन ।
इन जग तारक "सुधासिंधु" को, ‘उत्तमांग' से कोटि नमन ।।८।।
परम सुधारस के लिये, प्यासे मेरे नैन ।
दर्शन देकर प्यास को, हरो मिटे बैचेन ।।
तब तक बन्थलीवाले श्री मदनलाल जैन (छाबड़ा) अब मदनगंज-किशनगंज निवासी के पत्रों का पैकेट हाथ में आ गया। उनके अनेक पत्र इस पैकेट में, मैंने रख छोड़े थे। उनका ६/९/९८ का पत्र पुन: पढ़ने लगता हूँ, वे लिखते हैं - पू. सुधासागरजी के सीकर वर्षायोग के समय श्रावक संस्कार शिविर का संयोजन किया गया था जिसमें पू. आचार्य ज्ञानसागरजी के जीवन काल की झलक स्पष्ट करनेवाले ४३ मॉडल प्रदर्शन हेतु रखे गये थे। पत्र में मदनजी का परामर्श अच्छा लगा, वे कहते हैं कि मॉडल इतने अच्छे हैं कि उनके छायाचित्र तैयार कर जीवनी में प्रकाशित किये जा सकते हैं। सीकर में मैं उक्त ‘ प्रदर्शनी ’ हाल ही में देखकर लौटा था, पाषाण पटों पर रेखांकित चित्र स्थायीप्रभाव के योग्य हैं। उनकी प्रदर्शनी हर नगर, शहर, तीर्थ पर आयोजित की जाती रहे।