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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय - 1 सर्वोदय दोहावली

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    1. पूज्यपाद गुरुपाद में, प्रणाम हो सौभाग्य।

    पाप ताप संताप घटे, और बढ़े वैराग्य ||1||

     

    शब्दार्थ -

    1. पूज्यपाद - पूज्य है चरण
    2. गुरुपाद - गुरुदेव के चरण
    3. ताप - मानसिक कष्ट
    4. संताप - क्लेश
    5. वैराग्य - राग के बिना या राग रहित

     

    अर्थ - पूज्य हैं चरण जिनके ऐसे गुरुदेव के चरणों में मेरा नमन हो। यह मेरा परम सौभाग्य है। इनको नमन करने से पाप, ताप और संताप की हानि होती है तथा वैराग्य की वृद्धि होती है ।।1।।

     

    2. मत डर मत डर मरण से, मरण मोक्ष सोपान।

    मत डर मत चरण से, चरण मोक्ष सुख पान ||2||

     

    शब्दार्थ -

    1. मोक्ष - मुक्ति, जन्म-मरण से छुटकारा
    2. सोपान - सीढ़ी
    3. चरण - आचरण

     

    अर्थ - हे भव्य जीव! तू मरण से डरना मत क्योंकि उत्तम मरण ही तो मोक्ष की सीढ़ी है और तू उत्तम आचरण करने से भी मत डर क्योंकि उत्तम आचरण करने वाला मोक्षसुखामृत (मोक्ष सुख रूपी अमृत) का पान करता है ।।2।।

     

    3. यथा दुग्ध में घृत तथा, रहता तिला में तेल।

    तन में शिव है ज्ञात हो, अनादि का यह मेल।।3।।

     

    शब्दार्थ -  

    1. दुग्ध - दूध
    2. घृत - घी
    3. तन - शरीर
    4. शिव - आत्मा
    5. अनादि - जिसका कोई प्रारम्भ न हो
    6. मेल - मिलन

       

    अर्थ - जैसे दूध में घी तथा तिल में तेल रहता है उसी प्रकार शरीर में  आत्मा निवास करती है। यह भी जान लें कि उनका यह मेल अनादिकाल से है ।।3।।  

     

    4. ऐसा आता भाव है, मन में बारम्बार।

    पर दुःख को यदि ना, मिटा सकता जीवन भार ||4||

     

    शब्दार्थ-

    1. पर - दूसरा/पराया
    2. बारम्बार - बार-बार |

     

    अर्थ - मेरे मन में बार-बार बस एक ही भाव आता है कि यदि मैं दूसरों की पीड़ा दूर नहीं कर सका तो मेरा यह जीवन भार के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।।4।।

     

    5. पानी भरते देव हैं, वैभव होता दास।

    मृग-मृगेन्द्र मिल बैठते, देख दया का वास ।।5।।

     

    शब्दार्थ-

    1. पानी भरते - नतमस्तक हो जाते
    2. वैभव - ऐश्वर्य
    3. मृग - हिरण
    4. मृगेन्द्र - सिंह/शेर

     

    अर्थ - जहाँ दया निवास करती है उसके सामने देव भी नतमस्तक हो जाते हैं। सम्पूर्ण वैभव उसका दास बन जाता है। तथा उस स्थान पर शेर और हिरण भी मित्र जैसे आचरण करने लगते हैं ।।5।।

     

    6. तत्व दृष्टि तज बुध नहीं, जाते जड़ की ओर।

    सौरभ तज मल पर दिखा, भ्रमर भ्रमित कब और? ।।6।।

     

    शब्दार्थ- 

    1. तज - छोड़कर
    2. बुध - बुद्धिमान लोग
    3. सौरभ - सुगन्ध
    4. भ्रमर  - भौंरा
    5.  भ्रमित - आकर्षित

     

    अर्थ -  बुद्धिमान लोग तत्व दृष्टि को छोड़कर कभी भी जड़ की ओर दृष्टि नहीं करते। पुष्प की सुगन्ध को छोड़कर भौंरा क्या कभी मल की ओर आकर्षित होता है? ।।6।।

     

    7. सब में वह ना योग्यता, मिले न सबको मोक्ष ।

    बीज सीझते सब कहाँ, जैसे टर्रा मोठ।।7।।

     

    शब्दार्थ  -

    1.  सीझते - पकते          
    2.  टर्रा मोठ - उबालने पर भी नहीं सीझने वाली मूंग  

     

    अर्थ - मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता सबमें नहीं होती इसलिये प्रत्येक जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे सभी बीजों में सीझने की योग्यता नहीं होती, टर्रा मोठ लाख प्रयास के बाद भी नहीं सीझ पाती।।7।।

     

    8. किस किस को रवि देखता, पूछे जग के लोग।

    जब जब देखें देखता, रवि तो मेरी ओर।।8।।

     

      शब्दार्थ -

    1. रवि - सूर्य
    2.  जग - संसार

     

    अर्थ - इस जगत के लोग प्रश्न करते हैं कि सूर्य किस-किस को देखता है क्योंकि मैं जब भी सूर्य की ओर देखता हूँ तो ऐसा लगता है कि सूर्य मेरी ही तरफ देख रहा है ।।8।।

     

    9. कंचन पावन आज पर, कल खानों में वास।

    सुनो अपावन चिर रहा, हम सबका इतिहास ।।9।।

     

    शब्दार्थ -

    1. कंचन - स्वर्ण 
    2.  पावन - पवित्र/शुद्ध
    3. अपावन - अपवित्र/अशुद्ध  
    4.  चिर - लम्बा
    5.  वास - निवास/रहना     

     

    अर्थ - जिस तरह स्वर्ण आज शुद्ध है लेकिन अपने बीते हुए दिनों में खान में पड़ा हुआ था, उसी तरह हम सब का इतिहास भी लम्बे समय से अपवित्र रहा है। हम भी स्वर्ण की तरह पवित्र हो सकते हैं।।9।।

     

    10. क्या था क्या हूँ क्या बनूं, रे मन अब तो सोच।

    वरना मरना वरण कर, बार-बार अफसोस 10||

     

    शब्दार्थ -

    1. वरण - चुनना
    2. अफसोस - पछतावा

     

    अर्थ - हे मन! तू अब तो यह विचार कर कि तू क्या था, क्या है और क्या बनेगा? वरना बार-बार मरण का वरण करके अफसोस ही करता रहेगा।।10।।

     

    11. सब कुछ लखते पर नहीं, प्रभु में हास–विलास।

    दर्पण रोया कब हँसा, कैसा यह संन्यास ||11 ||

     

    शब्दार्थ -

    1. लखते - देखते
    2.  हास-विलास - हर्षित या प्रमुदित
    3.  संन्यास - परित्याग करना

     

    अर्थ - वीतराग दृष्टि की महानता देखो! प्रभु तीनों लोकों के पदार्थो को देखते हुए भी हर्षित या प्रमुदित नहीं होते। दर्पण के समक्ष कितनी भी सुन्दर या असुन्दर वस्तु आ जाए वह न तो कभी रोता है न ही हँसता है।।11।।

     

    12आस्था का बस विषय है, शिव पथ सदा अमूर्त।

    वायुयान पथ कब दिखा, शेष सभी पथ मूर्त ||12||

     

    शब्दार्थ -

    1.  शिव–पथ - मोक्ष मार्ग
    2.  अमूर्त - जो आँखों से देखने में न आए
    3.  वायुयान - हवाई जहाज
    4.  मूर्त - जो आँखों से देखने में आए

     

    अर्थ - मोक्षमार्ग अमूर्त है, वह दिखाई नहीं देता लेकिन आस्था का विषय बनता है। जिस तरह वायुयान को छोड़कर शेष सारे मार्ग दिखाई देते हैं फिर भी वायुमार्ग पर सभी विश्वास करते हैं।12।।

     

    13. उपादान की योग्यता, निमित्त की भी छाप ।

    स्फटिक मणि में लालिमा, गुलाब बिन ना आप ||13||

     

    शब्दार्थ -

    1.  उपादान - किसी कार्य के होने में जो स्वयं उस कार्य रूप परिणमन करे
    2.  निमित्त - जो कार्य के होने में सहयोगी हो।
    3.  स्फटिक मणि -एक तरह का सफेद बहुमूल्य तथा पारदर्शी पत्थर
    4.  लालिमा - लाली।

     

    अर्थ - उपादान कारण में यद्यपि कार्य रूप परिणत होने की योग्यता है। लेकिन निमित्त कारण के बिना भी कार्य नहीं होता। जिस तरह स्फटिक मणि में लालिमा गुलाब की उपस्थिति के बिना संभव नहीं है।।13।।

     

    14.खून ज्ञान, नाखून से, खून रहित नाखून।

     चेतन का संधान तन, तन चेतन से न्यून||14||

     

    शब्दार्थ

    1. 1. चेतन - आत्मा
    2. 2. संधान - खोज का साधन
    3. 3. न्यून - रहित

     

    अर्थ - शरीर में खून की मात्रा का ज्ञान नाखूनों को देखकर हो जाता है जबकि नाखून स्वयं रक्तविहीन होते हैं। शरीर आत्मा की खोज का साधन होते हुए भी स्वयं चेतना रहित होता

    है।।14।।

     

    15. आत्मबोध घर में तनक, रागादिक से पूर।

    कम प्रकाश अति धूम्र ले, जलता अरे कपूर ।।15।।

     

    शब्दार्थ -

    1. आत्मबोध - आत्मा का ज्ञान
    2.  तनक - कम 
    3.  पूर- ज्यादा
    4.  रागादिक - राग-द्वेष
    5.  धूम्र - धुआँ

     

    अर्थ - घर में रहकर आत्मा का ज्ञान कम होता है और राग-द्वेष ज्यादा होते हैं। जैसे कपूर जलकर प्रकाश तो कम देता है। लेकिन धुआँ अधिक प्रदान करता है।।15।।

     

     

    16. भटकी अटकी कब नदी, लौटी कब अध बीच।

    रे मन! तू क्यों भटकता, अटका क्यों अधकीच? ||16।।

     

    शब्दार्थ -

    1. अधकीच - पापरूपी कीचड़  
    2. अटकी - रुकती
    3.  अध बीच - बीच रास्ता   

     

    अर्थ - नदी जब अपने उद्गम स्थान से निकलकर चलना प्रारम्भ कर देती है तो वह रास्ते में कहीं भी नहीं रुकती, न ही अपने पथ से भटकती है और न ही थककर या हार मानकर बीच रास्ते से लौटती है। फिर हे मन! तू क्यों भटकने लगता है, कहीं भी अटक जाता है और पापरूपी कीचड़ मेंहँस जाता है।।16।।

     

    17. गौ-माता के दुग्ध सम, भारत का साहित्य ।

    शेष देश के क्या कहें, कहने में लालित्य ।।17।।

     

    शब्दार्थ -

    1.  गो - गाय
    2. सम - समान
    3. लालित्य - सुन्दर, रमणीय

     

    अर्थ - भारत देश का साहित्य गौ माता के दूध के समान उज्ज्वल है, जबकि अन्य देशों के साहित्य के बारे में क्या कहा जाए, वह तो सिर्फ सुनने मात्र में ही सुन्दर लगता है।।17।।

     

    18. अनल सलिल हो विष सुधा, व्याल माल बन जाए।

    दया मूर्ति के दरस से, क्या का क्या बन जाए ||18 ||

     

    शब्दार्थ -

    1. अनल - अग्नि

    2. सलिल - पानी

    3. सुधा - अमृत

    4. व्यालव्याल - सर्प

    5. माल - हार

    6. दरस  - दर्शन |

     

    अर्थ - अग्नि पानी हो जाती है, विष अमृत बन जाता है। सर्प गले | का हार बन जाता है। दया मूर्ति जिनेन्द्र देव के दर्शन से कुछ भी। सम्भव हो सकता है।।18 ।।

     

    19. जलेबियाँ ज्यों चासनी, में सनती आमूल ।।

    दया धर्म में तुम सनो, नहीं पाप में भूल ||19।।

     

    शब्दार्थ -

    1. आमूल - पूरी तरह
    2.  सनती - डूबती/डूबी हुई
    3.  सनो- डूब जाओ

     

    अर्थ - जिस तरह जलेबियाँ पूर्ण रूप से चासनी में सनी हुई होती हैं, उसी तरह तुम भी दया धर्म में पूर्ण रूप से डूब जाओ।  पाप में भूलकर भी लिप्त मत होओ।।9।।

     

    20. पूर्ण पुण्य का बन्ध हो, पाप मूल मिट जात।

    दलदल पल में सब धुले, भारी हो बरसात||20||

     

    शब्दार्थ -

    1.  पूर्ण पुण्य - अतिशय पुण्य
    2.  दलदल - कीचड़
    3.  पल - क्षण

     

    अर्थ - हे भव्य जीव! तू अतिशय पुण्य का बन्ध कर, जिससे पाप समूल नष्ट हो जाए। जिस तरह तेज बरसात से समस्त कीचड़ साफ हो जाता है।  ।।20।।


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