1. उच्च कुलों में जनम ले, नदी निम्नगा होय ।
शान्ति पतित को भी मिले, भाव बड़ों का होय ||1||
शब्दार्थ -
- निम्नगा - नीचे बहने वाली
- पतित - गिरे हुए
अर्थ - जिस प्रकार ऊँचे पर्वतों से जन्म लेने वाली नदी नीचे की ओर आकर प्राणियों को तृप्त करती है उसी तरह महापुरुष भी पतितों के लिए कल्याण की भावना रखकर उन्हें शन्ति प्रदान करते हैं ||1||
2. एक साथ सब कर्म का, उदय कभी ना होय।
बूंद बूंद कर बरसते, घन वरना सब खोय ||2|| |
शब्दार्थ -
- घन - बादल
- बरसते - वर्षा करते
- वरना - अन्यथा
अर्थ - जिस प्रकार बादल बूंद-बूंद बरसकर जल वर्षा करते हैं, एक साथ नहीं, अन्यथा सब कुछ प्रलय रूप में नष्ट हो जायेगा उसी प्रकार सभी कर्म एक साथ उदय में नहीं आते हैं ।।2।।
3. आत्मामृत तज विषय में रमता क्यों यह लोक।
खून चूसती दुग्ध तज, गौ थन में क्यों जोंक ||3||
शब्दार्थ -
- आत्मामृत - आत्मा रूपी अमृत
- विषय - इन्द्रिय रूपी विषयभोग
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि हे संसारी प्राणी ! तू गोथन से प्राप्त होने वाले अमृतमयी दूध को छोड़कर मून चूसने वाली निकृष्ट जोंक की भाँति आत्मारूपी अमृत को त्यागकर विषय भोगों में क्यों रमता है?।।3।।
4. जठरानल अनुसार हो, भोजन का परिणाम।
भावों के अनुसार ही, कर्म बन्ध फल काम। ||4||
शब्दार्थ -
- जठरानल - पेट की अग्नि (जठराग्नि)
- परिणाम - फल, पाचन
- काम - कार्य
अर्थ - जिस प्रकार किए गए भोजन का पाचन जठराग्नि के अनुसार होता है। उसी प्रकार कर्म बन्घ का फल तथा कार्य जीव के भावों के अनुसार ही होता है ||4||
5. शील नशीले द्रव्य के, सेवन से नश जाय।
संत-शास्त्र संगति करे, और शील कस जाय ||5||
शब्दार्थ -
- शील - चरित्र
- संत - साधु
- नश - नष्ट
- संगति - साथ
- कस - पुष्ट
अर्थ - मादक और उत्तेजक वस्तुओं के सेवन से शील नष्ट हो जाता है किन्तु साधु एवं शास्त्रों की संगति करने से शील और अधिक पुष्ट हो जाता है। ||5||
6. एक तरफ से मित्रता, सही नहीं वह मित्र।
अनल पवन का मित्र ना, पवन अनल का मित्।||6||
शब्दार्थ -
- अनल - अग्नि
- पवन - वायु
अर्थ - एक पक्षीय मित्रता वास्तविक एवं सच्ची मित्रता नहीं है जैसे वायु और अग्नि की मित्रता। वायु तो अग्नि का मित्र है। क्योंकि वह उसको प्रज्ज्वलित करने में सहायक है किन्तु अग्नि वायु के प्रवाह में किसी तरह भी सहायक नहीं होती है। ||6||
7. वश में हों सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम। ।
वेग बढ़े निर्वेग का, दूर नहीं फिर धाम ||7||
शब्दार्थ -
- लगाम - नियन्त्रण
- वेग - संसार, शरीर और भोग
- निर्वेग - संसार, शरीर और भोगों से रहित
- धाम - मोक्ष स्थान
अर्थ - जब मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है और मन पर नियंत्रण कर लेता है तो संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो जाने से उसके लिए मोक्षधाम दूर नहीं रहता ||7||
8. विगत अनागत आज का, हो सकता श्रद्धान।
शुद्धात्म का ध्यान तो, घर में कभी न मान||8||
शब्दार्थ -
- विगत - भूतकाल
- अनागत - भविष्यकाल
अर्थ - तत्व का श्रद्धान तो भूत, भविष्य एवं वर्तमान तीनों कालों में घर पर रहते हुए हो सकता है, किन्तु शुद्धात्मा का ध्यान (अनुभूति) गृहस्थ को कभी भी संभव नहीं है ||8||
9. सन्तों के आगमन से, सुख का रहे न पार।
सन्तों का जब गमन हो, लगता जगत असार ||9||
शब्दार्थ -
- असार - सारहीनी
- आगमन - आना
- पार - छोर, सिरा
अर्थ - जब सन्तों का किसी स्थान पर आगमन होता है तोभक्तजनों के सुख का पारावार नहीं रहता है किन्तु जब वे उस स्थान से प्रस्थान करते हैं तो उन्हें सम्पूर्ण जगत असार प्रतीत होने लगता है ||9||
10. नीर नीर है क्षीर ना, क्षीर क्षीर ना नीर।।
चीर चीर है जीव ना, जीव जीव ना चीर ||10||
शब्दार्थ
- नीर पानी
- क्षीर - दूध
- चीर - वस्त्र
- जीव - आत्मा
अर्थ- जल जल है, दूध नहीं तथा दूध दूध है, जल नहीं है। उसी प्रकार वस्त्र वस्त्र है, आत्मा नहीं। आत्मा आत्मा है, वस्त्र नहीं है। अतः हे मानव! काया की ओर दृष्टि न डालकरआत्मा की ओर निहार। ||10 ||
11. बान्धव रिपु को सम गिनो, संतों की यह बात।
फूल चुभन क्या ज्ञात है, शूल चुभन तो ज्ञात ||11||
शब्दार्थ-
- बान्धव - मित्र/सगे सम्बन्धी
- रिपु - शत्रु
- शूल - काँटा
अर्थ- लोक में काँटों की चुभन तो सभी व्यक्ति अनुभव करते हैं। अर्थात् शत्रु की शत्रुता तो सभी को स्पष्ट ज्ञात होती है, किन्तु फूलों की चुभन अर्थात् मित्र का भी शत्रुवत् आचरण किसको ज्ञात होता है? संतों को यह बात विदित होती है। जिसके परिणामस्वरूप वे शत्रु एवं मित्र को समान दृष्टि सेदेखते हैं अर्थात् समता का आचरण करते हैं। ||11||
12. नाम बने परिणाम तो, प्रमाण बनता मान।
उपसर्गों से क्यों डरो, पाश्र्व बने भगवान ||12|| |
शब्दार्थ -
- उपसर्ग - वह अव्यय जो शब्द के पहले लगकर शब्द का अर्थ बदल दे, अपशकुन
- प्रमाण - पूरा एवं सच्चा ज्ञान
- परिणाम - फल
अर्थ- जिस प्रकार ‘परि' उपसर्ग लगाने से 'नाम' शब्द ‘परिणाम बन जाता है तथा 'प्र' उपसर्ग लगाने से 'मान' प्रमाण अर्थात् ज्ञान बन जाता है। पार्श्वनाथ भगवान उपसर्गों को सहन कर भगवान बन गए । हे मानव! फिर तू उपसर्गों से क्यों डरता है? उपसर्ग तो शब्दों को भी पूज्यार्थक बना देते हैं |12||
13. आप अधर मैं भी अधर, आप स्ववश हो देव।
मुझे अधर में लो उठा, परवश हूँ दुर्दैव ||13||
शब्दार्थ-
- अधर - मॅझधार
- परवश - दूसरों के वश अर्थात् कर्म के अधीन
- दुर्दैव - दुर्भाग्य
- स्ववश - अपने अधीन
अर्थ - हे भगवन्! आप तो केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर अधर में विराजमान हैं और मैं भी अधर में लटका हूँ अर्थात् मॅझधार में फंसा हूँ, किन्तु मैं कर्म के अधीन हूँ। हे प्रभो! मुझे भी अधर में उठा लो अर्थात् अपने समान बना लो।।13।।
14. व्यास बिना वह केन्द्र ना, केन्द्र बिना ना व्यास।
परिधि तथा उस केन्द्र का, नाता जोड़े व्यास ||14||
शब्दार्थ-
- व्यास - केन्द्र को स्पर्श करती हुई परिधि के बिन्दुओं को मिलाने वाली रेखा
- केन्द्र - वृत्त का मध्य बिन्दु
- परिधि - 1. वृत्त की रेखा, 2. गोलाकार वस्तु के चारोंओर खिंची हुई रेखा
अर्थ- व्यासके बिना केन्द्रका अस्तित्व नहीं और केन्द्र के बिना व्यास नहीं होता। वस्तुतः व्यास परिधि एवं केन्द्र में सम्बन्ध स्थापित करता है।।14।।
15. केन्द्र रहा सो द्रव्य है, और रहा गुण व्यास।।
परिधि रही पर्याय है, तीनों में व्यत्यास।15।।
शब्दार्थ-
- पर्याय - द्रव्य की अवस्था विशेष का नाम है।
- द्रव्य - जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है।
- गुण - जो एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से पृथक करता है।
- व्यत्यास- परस्पर विभिन्न होते हुए भी अभिन्न है।
अर्थ- केन्द्र से तात्पर्य द्रव्य है और गुण व्यास का प्रतीक है। वस्तु के परिणमन स्वरूप पर्याय उसकी परिधि है। ये तीनों परस्पर विभिन्न होते हुए भी अभिन्न है।।15।।
16. व्यास केन्द्र या परिधि को, बना यथोचित केन्द्र।
बिना हठाग्रह निरख तू निज में यथा जिनेन्द्र ।।16।।
शब्दार्थ-
- यथोचित - जैसा उचित लगे ।
- हठाग्रह - जिद, हठपूर्वक प्रार्थना |
- निरख - देख ।
- निज - अपना ।
अर्थ - व्यास (गुण), केन्द्र (द्रव्य) अथवा परिधि (पर्याय) में से यथोचित किसी एक को अपने ध्यान का केन्द्रबिन्दु बनाकर तू बिना किसी हठाग्रह के अनेकान्त दृष्टि से उसे देख औरजिनेन्द्र भगवान की भाँति निज में लीन हो ।।16।।
17. विषम पित्त का फल रहा, मुख का कडुवा स्वाद।
विषम वित्त से चित्त में, बढ़ता है उन्माद ||17 ||
शब्दार्थ -
- पित्त - शरीर में रहने वाली एक धातु
- विषम - असंतुलित
- चित्त - मन ।
- उन्माद - उन्मत्त
- वित्त - धन
अर्थ - जब शरीर में पित्त का प्रकोप बढ़ता है तो मुख का स्वाद कड़वा हो जाता है। इसी प्रकार अन्याय द्वारा अर्जित धन से मन उन्मत्त हो जाता है।।17।।
18. कानों से तो हो सुना, आँखों देखा हाल।
फिर भी मुख से ना कहे, सज्जन का यह ढाल ||18||
शब्दार्थ -
- ढाल - सुरक्षा शस्त्र
अर्थ - सज्जनों का यह सुरक्षा शस्त्र है कि स्वयं अपने कानों से सुना गया एवं निज आँखों से देखा गया किसी का भी दोष वे अपने मुख से किसी के सामने व्यक्त नहीं करतेहैं। ।।18।।
19. बाल गले में पहुँचते, स्वर का होता भंग।
बाल गेल में पहुँचते, पथ दूषित हो संघ।।19।।
शब्दार्थ-
- भंग - टूटना, कुछ समय के लिए रुकना औरउचित ढंग से न चल सकना
- गेल - मार्ग |
- पथ - रास्ता, मार्ग
- संघ - समुदाय
अर्थ - जिस प्रकार गले में बाल पहुँचने से स्वर भंग हो जाता है। उसी प्रकार यदि अज्ञानी लोग मार्ग में आ जाते हैं तो संघ और पंथ दूषित हो सकते हैं। ।।19।।
20. चिन्ता ना परलोक की, लौकिकता से दूर।
लोकहितैषी बस बनँ, सदालोक से पूर।।20 ||
शब्दार्थ-
- 1. हितैषी - कल्याण करने की इच्छा रखने वाला
- 2. सदालोक - सम्यकज्ञान का प्रकाश
- 3. पूर - पूर्ण
अर्थ - हे भगवन्! मुझे परलोक की चिन्ता नहीं हैं। मैं लौकिकता से दूर हूँ। मैं सदैव जन-जन का कल्याण करने वाला बनूं और सम्यकज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण रहूँ। ।।20।।