उनके चातुर्मासों की समयावधि में कभी प्रदर्शन की होड़ देखने नहीं मिली। समाज का पैसा अनावश्यक रूप से व्यय कराने का कभी कोई संकेत नहीं दिया। यंत्र-मंत्र का चक्कर और पिच्छिका के स्पर्श से आशीर्वाद देने के अभिनय में नहीं पड़े। दुकान, प्रतिष्ठान, कार्यालय, कारखाना के उद्घाटनों के समय दिगम्बर साधु की उपस्थिति दी जाना उचित नहीं मानते थे। महाविद्यालयों में कार्यरत पूर्व विद्वानों के ग्रन्थों को समाप्त कर, उनकी सामग्री में थोड़ा-सा हेर-फेर करा कर, अन्य विद्वान के नाम से ग्रन्थ प्रकाशित करने की वीभत्स योजनायें उन्होंने कभी नहीं बनायीं, न उन पर किसी को कार्य करने दिया, न प्रोत्साहन दिया। आचार्य शांतिसागरजी महाराज की परम्परा को लेकर चलते रहे और समाधिस्थ होने के पूर्व वह श्रेष्ठ परम्परा अपनी शिष्य-पीढ़ी को मशाल की तरह पकड़ा गये।
गुरुवर ज्ञानसागर के विछोह से संघस्थ सन्तों के हृदय पर भी कुछ हुआ था, जिसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता । न वे सन्तगण कर सकते थे। बस, मोह और उदासीनता के मध्य, भावना का एक झूला (दोलन) इस डाल से उस डाल तक डोल रहा था। चौथा दिन ही चल रहा था कि अजमेर के श्रावक नसीराबाद जा पहुँचे, पू. आचार्य विद्यासागरजी के पास और प्रार्थना की- अजमेर विराजने की। देखते ही देखते, चरणों में श्रीफलों का ढेर लग गया। संघ के अन्य सदस्यों का मन टटोलते हुए आचार्यश्री ने श्रावकों के अनुरोध के समक्ष मौन रह कर जैसे अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी हो।
दूसरे दिन नसीराबाद से विहार हो गया। छह जून १९७३ को गुरु ज्ञानसागर के अजमेर में, आचार्य विद्यासागर श्रावकों के समूह के साथ पहुँच गये। पहले केशरगंज के मंदिर के दर्शन किये, फिर नसिया जी के। कुछ दिनों का लाभ दिया नसिया के समीपी श्रावकों को। यह वही नसिया थी जहाँ गुरु ज्ञानसागरजी का पावन सान्निध्य मिला था विद्यासागर जी को। वहाँ, उनकी आँखें हर कक्ष में थम जाती थीं मगर उनका साधुत्व उन्हें जगाता रहता था। ‘ओ युवा सन्त ! अब यहाँ ज्ञानसागर नहीं मिलेंगे। तुझे स्वत: ज्ञानसागर बनना होगा। उन्हें उनका साधुत्व रोज पुकारता लगता था- 'हे महामुनि विद्यासागर ! तू आचार्य है, तुझमें विद्या है, तप है, संयम है, वे सब योग्यतायें हैं जो एक महान आचार्य में होना चाहिए, अत: तू संकोच न कर, अपने भीतर स्थापित हो गये ज्ञानसागर को बाहर निकाल और श्रावकों के समक्ष आत्मसुख बरसा दे कि तू ही विद्यासागर है और तू ही ज्ञानसागर है।'
आत्मा से उठती ध्वनि पू. विद्यासागरजी रोज-रोज सुनते रहे। फिर कुछ इस तरह अपने पथ पर प्रवृत्त हुए कि “संसार' ने एक दिन स्वत: ही स्वीकार लिया कि गुरुदेव तुम, मात्र “तुम नहीं हो, तुम में वे भी हैं। सदा हैं, सदा रहेंगे। उसी वर्ष “चरित्र चक्रवर्ती'' की परम्परा अक्षुण्ण बनी रहने का विश्वास देश के जैन समाजा में जागृत हो गया। परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी की परम्परा में उनके कई शिष्य उनसे प्राप्त स्मशाल लेकर देश में समाज के सामने आये हैं, वे ऐसे विशाल वृक्ष बने कि उनकी अनेक डालियाँ पुन: पुन: विशाल वृक्षों की कतारें खड़ी कर सकीं। उन्हीं में से उनके एक प्रखर शिष्य आचार्य वीरसागर हुए, उनके प्रखर शिष्य आचार्य शिवसागर हुए, उनके प्रखर प्रथम शिष्य ज्ञानप्तदिवाकर आचार्य ज्ञानसागर हुए और उनके प्रखरतम शिष्य विद्यावारिधि आचार्य विद्यासागर हैं।
आचार्य विद्यासागरजी ने वर्ष १९७३ से चल कर वर्ष १९९८ तक २५ वर्षों में अपने आपको इतना तपाया कि उनके व्यक्तित्व में, उक्त परम्परा से चले आ रहे सम्पूर्ण गुरुगण, अपने समस्त लौकिक गुणों के साथ, समाहित हो गये। विद्यासागरजी में शांतिसागर, वीरसागर, शिवसागर और ज्ञानसागर का सम्मिलित उजास हर भक्त ने देखा परखा समझा है। अस्तु। विद्यासागर रूपी विशाल-धर्म वृक्ष इतना फैला कि उसकी एक या दो नहीं, अनेक डालें सम्पूर्ण राष्ट्र को छाया प्रदान करने लगीं, उन्हीं में से एक राजस्थान के विशाल भू-भाग तक पहुँच चुकी है, जिसका नाम है- होनहार आचार्य, मुनि पुंगव १०८ श्री सुधासागरजी महाराज। यह बलिष्ठ डाली भविष्य का इतिहास लिखाने में निमित्त बनेगी, जब विद्वज्जन कहेंगे कि “चारित्र चक्रवर्ती' की परम्परा निर्बाध गति से चल रही है आज भी। वह आगे चलेगी, चलती रहेगी, है समाज को इतना विश्वास-परमप्रिय और परमपूज्य सुधासागरजी महाराज पर।