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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. कार्य की सिद्धि के लिए बुद्धि की युक्ति के द्वारा सुलझाने की ज्ञान के प्रकाश से प्राप्त होती चली जाती है। यही उस ज्ञान की विशेषता होती है। जो आगे चलकर सम्यक् ज्ञान बन जाता है। बात उस दिन की है जब आचार्य ज्ञानसागरजी आहार चर्या से लौट के आये, उस समय स्वाध्यायी श्रावक भी बैठे हुए थे, साथ ही उनका अपना संघ भी उपस्थित था, तब उन्होंने कहा हमेशा ध्यान रखने योग्य बात यह है जब भी अपने हृदय में प्रश्न की उत्पत्ति होगी। तो वह अपनी ही निधि होगी, लेकिन ध्यान रखना उत्तर की प्राप्ति जब भी होगी दूसरे के मन की निधि के द्वारा ही होगी, उपस्थित श्रावकों ने सुनकर गुरु ज्ञानसागरजी की ज्ञान की गरिमा को समझ आनंद में भाव विभोर हो गये, वहीं निधि मुनि विद्यासागर को दे गये। आचार्य श्री के मुख से ५/९/२००४ रविवार तिलवारघाट (जबलपुर)
  2. स्नों की परख करने वाला जौहरी होता है। स्वर्ण की परख करने वाला स्वर्णकार होता है। लोहे की परख करने वाला लोह गढ़िया होता है। इसी तरह श्रावकों में मोक्षमार्ग की योग्यता को जानने वाले स्त्नत्रयधारी गुरु हुआ करते हैं जो दिगम्बर अवस्था को प्राप्त कर २८ मूलगुणों को पालन कर तप की आराधना के माध्यम से अपने अन्दर एक ऐसी योग्यता को अपने ही अनुभव से प्राप्त कर लेते हैं। तब कहीं संघ में शिष्यों की भर्ती का कार्य सम्पन्नता को प्राप्त होता है। साधक इतना अवश्य जानता है। कौन समय को बर्बाद करेगा और कौन समय का सदुपयोग करेगा। सदुपयोग करने वाले को समय का दान देते हैं। समय को बर्बाद करने वाले के सामने मौन व्रत धारण कर लेते हैं न उसे देखते हैं, न उसे बोलते हैं। देखने का मतलब ही बोलने के अभिप्राय को प्रकट करता है। जैसे जानवर होता है, बन्दर, गाय, सुअर, कुत्ता आदि इनसे दृष्टि मिलते ही, ये आक्रमणकारी हो जाते हैं। और इनसे दृष्टि को ओझल करने से आक्रमण से बचाव पक्ष मजबूत हो जाता है। कई लोगों के अन्दर ऐसी क्षमता होती है, वे पक्षी की उड़ान से जान लेते हैं यह कहाँ बीट करेगी। कौन-सा कार्य कब सम्पन्न होगा। ये गुरु जानते हैं। जब शिष्य पूछता है, उस समय उस कार्य का योग्य समय उपस्थित नहीं होने से वे मौन हो जाते हैं। यहाँ तक कि कोई संकेत भी नहीं। इशारा रहित हो जाते हैं। जब समय आ जाता है, तब हँसते हुए कहते हुए नजर आते हैं, उस दिन तुमने ऐसा पूछा था न, उसके उत्तर का प्रसंग आज उपस्थित हो गया है। हीरा हीरे की पहचान जानता है। इसी तरह विद्याधर का उस समय आचार्य गुरुदेव की ज्ञानसागरजी के पास आना होता है, जब उनकी वृद्धावस्था अन्तिम पड़ाव पर चल रही थी फिर भी गुरुदेव ने योग्यता को देखकर मना नहीं किया, क्योंकि वे पढ़ा-पढ़ा कर थक गये थे। जो भी आता ज्ञान लेकर भाग जाता। कहीं ये विद्याधर भी विद्याओं को लेकर उड़ न जाये तब त्याग का समर्पण देखकर संघ में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। ऐसे पारखी गुरुदेव को मेरा प्रणाम हो।
  3. सम्यक् प्रकार गमन करना अर्थात् व्रत, समिति, गुप्ति आदि के रूप में प्रवर्तन करना अपहृत या व्यवहार संयम है और दूसरा लक्षण उपेक्षा या निश्चय संयम कहा है, इन्हीं दोनों को वीतराग व सराग चारित्र भी कहते हैं। अन्य प्राणियों की रक्षा करना प्राणी संयम है एवं इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होना इन्द्रिय संयम है। बात उस दिन की है जब आचार्य ज्ञानसागरजी दोपहर की स्वाध्याय कक्षा में कह रहे थे संयम क्या है? इस प्रश्न को उठाकर समाधान करते हुए बोले, भयानक जंगल है एक तपस्वी चारों तरफ चौकन्ना है और तपस्या करता है, लेकिन कभी जनता के बीच में बैठकर भी साधना करता है। वह महान् तपस्वी है। जो भीड़ में रहकर भीड़ से दूर रहता है। लेकिन वह पर्याय बुद्धि से नहीं चलता, लोग उसे देख रहे हैं, वह कैसे चलेगा? ऐसे आचार्य ज्ञानसागरजी को विद्यासागरजी ने देखा, वे कैसे चले और उन्हें कैसे चलाया? आचार्य ज्ञानसागरजी का अधिकतम जीवन देशसंयम के साथ चला है। बाद में ही संयम की प्राप्ति हुई, जिसे महासंयम कहते हैं।
  4. प्रयोजनभूत स्मृतियाँ साधक के लिए क्षम्य हो सकती हैं, अप्रयोजनीय स्मृतियाँ संक्लेश के कारण भावहिंसा के कारण भी बन सकती हैं। हमारी स्मृतियाँ ही हमारे अन्दर गुद-गुदापन उत्पन्न करती हैं तो हमारी स्मृतियाँ हमें मचलने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, यही हमारे सुख- दुख का कारण होता है। संयमी जन स्मृतियों से भी अपने आत्मगत विचारों की रक्षा करते हैं। हाँ यह आवश्यक जरूर है, जब शास्त्र के आलम्बन से पृष्ठ संख्या का स्मरण आ जाना, यह स्मृति की महानता है। इसी स्मृति को धारण करने वाले ब्रह्मचारी भूरामलजी, पण्डित भूरामल, मुनि ज्ञानसागर, आचार्य ज्ञानसागरजी थे। जब एक बार वे ब्रह्मचारी विद्याधर को अष्टसहस्री पढ़ा रहे थे, तब एक गाँव से ग्रन्थ मंगवाये गये और कहा-अमुक-अमुक पृष्ठ पर देख लो वहाँ मेरे निशान लगे हैं पुराने। तब विद्याधर ने देखा तो वैसा ही पाया। तब उनके अन्तर्मन में ध्वनि हुई-धन्य-धन्य हैं आपकी स्मृति । इसी पुरानी स्मृति को ताजा बनाने के लिए आचार्य गुरुदेव ने संघ में अपनी कक्षा में मुनियों के लिए बताया। जब भी वो स्वाध्याय किया या करवाया करते थे, तब उस समय वे कहते थे—यह अमुक विषय-अमुक ग्रन्थ के पृष्ठ संख्या पर देखें, खोलने पर वही मिलता था। ऐसे ही संस्कार मुनि विद्यासागर पर भी डाले। वे आचार्य गुरुदेव ग्रन्थ को पढ़ने के बाद क्षेपक का प्रयोग नहीं करते। पृष्ठ संख्या याद रखकर अगले दिन स्वाध्याय प्रारम्भ करते हैं। हाँ, यह बात ध्यान रखने योग्य है-पूर्व में भोगे हुए भोगों की स्मृति के लिए आगम में निषेध किया गया है। लेकिन स्वाध्याय के अंगों में एक आम्नाय (मौखिक) स्वाध्याय आता है जो पाठ रूप हुआ करता है, इसे अमल में लाने से चिन्तन की धारा बढ़ती है और उपयोग की शुद्धि बढ़ती है। आत्मगत परिणामों में विशुद्धि बनाये रखने के लिए यह नेक साधना है। इससे स्मृति हमेशा साफ-सुथरी बनी रहती है। स्मृति-धन सारे धनों में महान् है। बिना आलम्बन के कार्य को कर देता है।
  5. उपेक्षा संयम देश और काल के विधान को समझने वाले स्वभाविक रूप से शरीर से विरक्त एवं तीन गुप्तियों के धारक व्यक्ति के रागद्वेषरूप चित्तवृत्ति का न होना उपेक्षा संयम है। बात उस समय की है, जब आचार्य श्री विद्यासागरजी गुरुदेव अपनी क्लास में मुनि संघ को पढ़ा रहे थे, तब वे कह रहे थे सुनो; महाराज आचार्य ज्ञानसागरजी गुरुदेव; वे उपेक्षा संयम की अनुभूति के सागर थे, उन्होंने अपने जीवन में कभी प्रतिकार नहीं किया, चाहे सामायिक के समय हो, चाहे रोग की उत्पत्ति के समय हो या रात के समय हो या दिन में आहार चर्या सम्बन्धी हो, चाहे जैसा हो, वे हमेशा आध्यात्मिक भावनाओं से ओतप्रोत थे। यही उनकी जीवन की शैली थी। आचार्यश्री के मुख से २४.९.२००४, शुक्रवार उत्तम तपधर्म, तिलवाराघाट, जबलपुर
  6. वचन नहीं प्रवचन करना'' यह आगम वाक्य साधुओं को आचार्य परम्परा से प्राप्त होता है। विशेष रूप से जो वचन होते हैं, वो ही प्रवचन का अंग बन जाते हैं। वे एक मनीषी, विद्वान्, साहित्याचार्य, व्याकरणाचार्य, शब्दाचार्य आदि के ज्ञाता होते हुए भी वे कभी भी एक घण्टे का प्रवचन बिना ग्रन्थ के नहीं किया करते थे। वे ग्रन्थ को पढ़कर ही उसकी व्याख्या कर प्रवचन करते थे। यहाँ तक भी देखा, सुना, गया वे प्रवचन में जैन कथाओं का आलम्बन लेते थे। वे यहाँ वहाँ के कहानी किस्से चुटकुले आदि पसन्द नहीं करते थे। वे बड़ेबड़े मंगलाचरण को स्तुतियों को लिखने वाले आचार्य हैं। फिर भी प्रवचन के शुरू में वे जो मंगलाचरण करते थे वह मंगलाचरण इस प्रकार था | णमो अरिहंताणं, णमो अरहंताणं, णमो अरूहंताणं इन तीन पदों को बोलकर उसकी व्याख्या के साथ ही प्रवचन किया करते थे। उनकी प्रवचन शैली मारवाड़ी भाषा कहावतों के साथ चला करती थी। जैसे जो ना माने सयानों की सीख, ले खपड़िया मांगे भीख। आदि बातें जैसे विशेष घटना को देखकर भी व्याख्या करते थे। एक बार उन्होंने एक बारात को जाते हुए देखा। आदमी एक गैसबत्ती लेकर चल रहा है। वह सबको प्रकाशित करता है, लेकिन स्वयं अंधेरे में रहता है। इसकी लोक व्यवहार की बातों के माध्यम से लोगों को जिनवाणी सुनने में रुझान पैदा होता था। उनके पास कई स्वाध्यायी लोग, तत्त्वप्रेमी अपनी शंकाओं का समाधान पाते थे। प्रवचन में भी शंकाओं को उठाकर समाधान किया करते थे। कभी प्रवचन के लिए ‘नोट' बनाने का काम तो किया ही नहीं। आज का विद्वान् बिना पूर्व ‘नोट' बनाये बोल नहीं पाता। प्रवचनकर्ता होने के कारण उनकी वाणी मॅजती हुई चली गई और यही मुख्य आकर्षण का कारण रहा।
  7. त्याग ही आत्मा का उपादेय तत्त्व है। इस कारण से ही शरीर की स्थिति कायम बनी रहती है। त्यागी का जीवन बारह तपों से जिन्हें हम बारह व्रत कहते हैं। इससे ही आच्छादित होता है। सबसे पहला त्याग त्यागी के लिए रसना इन्द्रिय सम्बन्धी जो खान-पान की वस्तु है, मन में आते ही वह रसना इन्द्रिय को आर्डर प्रदान करने लगता है। इसलिए रसना इन्द्रिय पर नियंत्रण के लिए सबसे पहले मन को कसना होता है। यह कार्य ब्रह्मचारी भूरामलजी पण्डित भूरामलजी, के जीवन में परिलक्षित होता था। वे दवा से नहीं भोजन से ही अपने रोग की चिकित्सा करते थे। एक बार जब वे दिल्ली के पास मंसूरपुर में थे, उस समय दस प्रतिमाओं का निर्वाह करते थे। तब वहाँ ‘फ्लू' नामक बुखार चल रहा था। वे भोजन में हरी तली हुई मिर्च जिसके ऊपरी भाग की परत सफेद पड़ जाती है, उस मिर्ची के सेवन से उन्हें बुखार नहीं आया। इसका प्रयोग (मैंने-मुनि चन्द्रसागर) ने भी किया यह उनका सटीक नुस्खा था, इसमें किसी प्रकार की याचना वृत्ति नहीं छिपी थी। यह तो सहज ही प्राप्त होने वाली वस्तु थी। वे कभी भी चमकदार वस्त्रों का उपयोग नहीं करते थे। साफ सुथरे वस्त्रों का जरूर उपयोग करते थे। वे बार-बार खाने के पक्ष में कभी नहीं रहे। त्यागी, योगी बनकर ही भोजन करें, यही उसकी योग साधना के लिए कार्यकारी होता है। बार-बार भोजन करने से समय बर्बाद होता है और आवश्यकों में प्रमाद की स्थिति बनी रहती है। एक बार मुख में पानी गया, एक भुक्ति हो गई। इस कारण भी बड़े होने के नाते, ज्ञानी मुनि के नाते, शास्त्री होने के नाते बार-बार मुँह को जूठा नहीं करते थे। भले वो घर में रहे हों या घर के बाहर, यही उनका बड़प्पन था। त्याग की हुई वस्तु को कभी स्मरण का विषय नहीं बनाते थे। ना उसका ढिंढोरा पीटते थे। त्याग वही है जो दूसरे को ज्ञात न हो और अपने लिए भी प्रयोग करते समय ही ज्ञात हो। यही तो उपयोग की स्थिरता का कारण बनता है तब कहीं शुद्ध उपयोग प्राप्ति होने की भूमिका बन सकती है।
  8. मनुष्य जीवन दुख को छोड़ सुख को चाहने का काल लोगों ने जान रखा है। लेकिन सुख कहाँ है। ये नहीं जान पाने से दुख सारे जहाँ पर नजर आ रहा है।आचार्य ज्ञानसागरजी कहते थे—यह काल पंचमकाल के नाम से जाना जाता है। आगम ग्रन्थों में इसे दुखमा काल की संज्ञा प्राप्त है। सुख कहाँ है, लोग सुख चाहते हैं, क्योंकि इस काल में मुक्ति नहीं है, इसलिए वह वास्तविक सुख नहीं मिल पायेगा, जो सिद्धों को अनंत-सुख मिलता है। सुख जब भी मिलेगा मुनि बनने के बाद ही मिलेगा, उसे अविनश्वर सुख कहते हैं। आचार्यश्री के श्री मुख से १७.०८.२००४, शुक्रवार तिलवाराघाट, जबलपुर
  9. योग्यता के अनुसार ही योग्य कार्यों का सम्पादन होना उसकी गरिमा का बिन्दु हुआ करता है। पद के अनुसार ही भेष और गुण हुआ करते हैं। गुण-गुणी का सम्बन्ध उसके पद की प्रतिष्ठा के अनुसार होता है। प्रत्येक पदासीन व्यक्ति अपनी भूमिका के अनुसार कार्य को मर्यादित होकर करता है तो कार्य शोभाप्रद माना जाता है। जो लोगों की पसंद भी बनता है। आचार्य ज्ञानसागरजी कहते थे। धर्म के ऊँचे आसन पर बैठ कर हल्ला न करें। समीचीनता का प्रयोग करें। छलावा न करें। नहीं तो लोगों की आस्था टूट जायेगी। आस्था को धक्का लगाना ही सम्यग्दर्शन को नुकसान पहुँचाना है। वे कहते थे-“ऊँची आसन पर बैठ कर धर्म का करें हल्ला ओरन को माया बुरी बताये और आप बिछावे पल्ला' इन बातों को सुनकर ऐसा जान पड़ता है, वे अपने जीवन में अपने पद के अनुसार ही चला करते थे और माया भाव से सावधान रहते थे। आचार्यश्री के श्री मुख से १३/०८/२००५ शनिवार (आत्मानुशासन) बीना बारह, सागर (मध्यप्रदेश)
  10. संघों की व्यवस्था आगम वाक्यों की आचार्य संहिता से प्रारम्भ होकर संघ नायक की अपनी वैचारिक संहिता नीति भी हुआ करती है। वे कभी भी मात्र चर्चा तक सीमित नहीं रहते थे। वे चर्या से अपनी आत्मा का आकर्षण एवं पर को प्रकाश प्रदान किया करते थे। चर्या की कठोरता मनोभावों की सरलता उनका अभिन्न अंग हुआ करता था। वे कभी भी वस्त्र का प्रयोग नहीं करते थे। एक बार मुनि विद्यासागर ने नैपकीन को उठाकर गुरु के चरणों का पाद-प्रक्षालन करने लगे तब गुरुदेव ने कहा कि यह तुम्हारे हाथ में कहाँ से आया? इतना सुनते ही मुनि विद्यासागर अन्दर से काँप गये और तत्काल उस नैपकीन को छोड़ दिया। ऐसा उनके संघ का अनुशासन हुआ करता था। वे अपनी आहार चर्या में अपनी वृद्ध अवस्था के अनुकूल आहार किया करते थे। वृद्ध अवस्था के बाद भी पैदल विहार में कभी कमी नहीं होती थी। वे कम चलना पसन्द करते थे। लेकिन डोली में बैठकर पराश्रित चर्या पसन्द नहीं थी। आसन-सिंहासन से कोई मतलब नहीं रखते थे। ऊँचे-नीचे आसनों का विकल्प भी नहीं होता था। जैसा मिल गया वैसा ठीक। ये लाओ, वो लाओ ऐसा तो कभी कहते ही नहीं थे। ऐसा गुरुदेव विद्यासागर जी के मुख से समय-समय पर सुनने मिल जाता है। वे स्वयं जिस चर्या का पालन करते थे उसी चर्या का संघ में भी पालन कराते थे। संघ में सामूहिक प्रतिक्रमण हुआ करता था। सभी लोग उसमें भाग लेते थे। ऐसे ही सामूहिक स्वाध्याय हुआ करता था। विद्वानों की चर्चा होती थी तो उसमें मुनि विद्यासागर भी होते थे, क्योंकि इन चर्चाओं के माध्यम से भी उनके अन्दर ज्ञान का समावेश कराना चाहते थे, क्योंकि वो जानते थे आयु कर्म अब बहुत कम बचा है। वो कभी भी किसी प्रकार की कमी अपने शिष्यों में पसन्द नहीं करते थे। शिष्य के लिए जो आवश्यक है, उसकी समुचित व्यवस्था उनकी सहज वृत्ति में था।
  11. कुछ नहीं रखने का भाव और अपने में रहने का भाव, उपकरणों के प्रति भी निर्ममत्वपना रखना आकिंचन्य व्रत का कदम आत्म-सोपान का कदम ही आकिंचन्यवृत्ति को धारण करना ज्ञाता दृष्टा भाव बनाये रखना। बात उस समय की है, जब आचार्य ज्ञानसागरजी ने दिगम्बर दीक्षा को धारण कर निष्परिग्रहता की ओर कदम रखा, तब उनकी दृष्टि में आया, दृष्टि तो शरीर की कमी या उम्र के कारण ओझलपने को प्राप्त हो सकती है, लेकिन आत्मा परिग्रह दृष्टि के कारण ओझल होता चला जाता है। इस कारण आकिंचन्य भाव को नष्ट होने में देर नहीं लगती। आचार्यश्री के मुख से २९.९.२००४, रविवार उ त्तम आकिंचन्य धर्म, तिलवाराघाट, जबलपुर
  12. साधक के लिए अपना वतन उसका अपना ही शरीर हुआ करता है। उस वतन के अन्दर रह रही आत्मा की सुरक्षा अपने मनोभावों एवं आचरण के पक्ष के द्वारा सुरक्षित किया जाता है। इसके लिए वातावरण की बड़ी आवश्यकता होती है। धर्म का वातावरण ग्रामीण। जीवन का वातावरण शहरी जीवन की आपा-धापी से दूरी बनाये। रखना। ग्राम में सादगी एवं धर्म की प्रीति लोगों के अन्दर सहनशीलता आदि के दर्शन सहज प्राप्त हो जाते हैं। ब्रह्मचारी भूरामलजी पण्डित भूरामलजी उन्हें गाँव में रहकर धर्म साधन करना पसंद आता था। कुँए का जल सहज ही मिल जाता था। जो पहली प्रतिमा में लेकर ग्यारह प्रतिमा तक के लिए मुख्य सोपान ही समझना, जानना। दूध की ४८ मिनट की जो क्रियाकोश आदि में मर्यादा बताई गई है, वह ग्राम में सहजता से प्राप्त हो जाता था। हाथ की चक्की के आटे का वह जमाना था, वो भी गाँव में आसानी से उपलब्ध होता था। इसलिए ग्राम से ग्रामान्तर तक जाने में कोई असुविधा नहीं होती थी। गाँव के लोग सदाचारी, भोले होते थे। गरु आज्ञा के पालन में वे हमेशा अग्रणी होते थे। मुनि दीक्षा के बाद भी ग्रामों में अधिक व्यवहार एवं प्रवास किया करते थे। निहार-आहार की समुचित व्यवस्था यों ही हो जाती थी। आगम में भी गाँव में, शहरों में, क्षेत्रों में रुकने की समय अवधि का निर्धारण किया गया है। इसी की पालना का ध्यान रखते हुए अपनी चर्या का पालन किया करते थे और वहाँ रहकर एकान्त स्थान प्राप्त हो जाता था। भीड़ से दूरी एवं एकांत के शांत वातावरण के सहारे लेखन कार्य, पठन-पाठन, सुगमता से हो जाता था। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ गाँव से ही प्राप्त हुई हैं। इससे ज्ञात होता है, वे शहर से ज्यादा गाँवों को पसंद करते थे, क्योंकि उनकी देह का जन्म राणोली ग्राम में हुआ था। इस कारण भी गाँव से प्रीति बढ़ती चली गई। उन्होंने अपने संघ में भी अपने शिष्यों के लिए यही आदेश देते थे। शहरों से बचना। ग्राम और क्षेत्र में साधना उचित है। इसी का प्रतिफल आज क्षेत्रों में विद्यासागरजी का नाम है व निवास है।
  13. समाधि जीवन की अभ्यस्त साधना के आधार पर निर्दोष रीति में परिणत तब होती है, जब साधक शरीर और आत्मा की प्रवृत्तियों में अंतर समझ कर शरीर के स्वभाव को जान लेता और अनुभव कर लेता है। तब समाधिमरण को अमर बनने में देर नहीं लगती। बात उस समय की है जब आचार्य ज्ञानसागरजी ने समाधिमरण को क्रमिक क्रम व्यवस्था के अनुसार स्वीकार कर आहार-पानी का त्याग अपने शिष्य निर्यापकाचार्य के इशारे पर किया। उनका शरीर, इन्द्रियाँ शिथिलता को प्राप्त हो चली थी, तब बोलना भी नहीं होता था, न करवट लेना होता था, तब वे अंगुलियों के इशारे से ओंठ के स्पंदन से, आँख के इशारे से संकेत को विधान कर समाधिस्थ होकर संदेश दे गये कि मरण भी अंगुलियों के इशारे पर होता है। आचार्यश्री के मुख से
  14. सही गलत के प्रति विचार उनके मानस पटल में ही उत्पन्न होता है जो अहिंसा की बारीकियों को जानता है और शुद्ध रीति से अपने व्रतों को पालन करने का भाव नित्य बनाये रखता है। उन्हें दूसरों के विरोध की चिन्ता नहीं अपने व्रतों के दोषों की चिन्ता हुआ करती है। सही रीति से हटने वाला कितना भी बड़ा क्यों न हो, उससे दूरी बनाने का भाव सही रीति से प्रीति होने के कारण हो ही जाता है, पण्डित भूरामलजी पंथों का भेदभाव छोड़कर तेरा-बीस सभी मुनि संघों में जाकर पढ़ाया करते थे। लेकिन चर्या अपनी मन के मत के अनुसार पालन करते थे। उनकी एकदम दृढ़ धारणा थी। वनस्पतिकाय जब भी प्रासुकता को प्राप्त होती है, अग्नि के संस्कार के द्वारा ही होती है, जैसे सोना, अग्नि संस्कार से शुद्ध होता है। १०० टंच का सोना बन जाता है। ऐसे ही अग्नि संस्कार से युक्त फल एवं सब्जियों को ग्रहण करने का दिन-प्रतिदिन का यही नियम था। यह विकल्प मन में उत्पन्न होने से सही रीति को प्रकट करने के लिए सचित्त-अचित्त विवेचन नाम की पुस्तक को लिखकर रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने के लिए फलों को प्रासुकता अग्नि के द्वारा उचित समझ में आती है, क्योंकि अग्नि संस्कार से स्वाद में, रूप में, रंग में, रस में अन्तर आ जाता है। छिन्न-भिन्न किये हुए फलों में वह अन्तर जान नहीं पड़ता, जैसा वह फल उत्पन्न हुआ था, वैसा ही स्वाद छिन्न-भिन्न के बाद भी बना रहता है और आगम का एक तथ्य याद आ रहा हैवनस्पतिकाय को छिन्न-भिन्न करने के बाद भी जीवों के उत्पत्ति स्थान बने रहते हैं। वे फलों के बीज के भक्षण में कभी भी सहभागी समर्थक नहीं रहे। फलों के रस के ही समर्थक रहे। चौके में भी कागज के उपयोग के विरोधी रहे। कागज में भी जीवों की उत्पत्ति के स्थान बनते रहते हैं। वह भी वनस्पतिकाय से निर्मित होता है। यह सोलह शुद्धि में प्रश्न चिह्न लगाकर चला जाता रहा इसलिए वे दवा आदि डिब्बी आदि के माध्यम से ग्रहण करते थे। यही सही रीति से प्रीति का कारण रहा।
  15. साधु जीवन ही हित का, परम हित का, आत्महित का, समाज हित का, धर्म हित का, राष्ट्र हित का, सम्पादक, चिंतक, सुधारक हुआ करता है। ऐसे ही एक दिन शाम को वैय्यावृत्ति के समय आचार्य के कौतुक गुण का प्रयोग करते हुए मनोरंजन की भाषा में बोले—क्यों? तुम लोगों को मालूम है, सबसे कम स्वाध्याय मारवाड़ी समाज में होता है। जहाँ न जाये बैलगाड़ी वहाँ जाय मारवाड़ी। वह रात-दिन पैसा कमाने में लगा रहता है। इसलिए मराठी में कहते हैं-झोपलाश का जागा जागा रे, असा कसा रे दिन-रात पैसा-पैसा रे! नींद से जागा और उठा और आदमी पैसा-पैसा करने लगता है। इस प्रसंग को सुनकर लगा वे समाज को सुधारने के लिए ऐसा भी बोला करते थे। इससे कई मारवाड़ी स्वाध्यायी उनके पास दिन-रात आया करते थे। कोई विनती सुनाता, कोई भजन सुनाता, कोई स्वाध्याय सुनता और अपने कार्य को प्राप्त करके चला जाता। आचार्यश्री के मुख से
  16. साहित्य ही संस्कृति का दिग्दर्शन कराने वाला मात्र एक साधन है। धर्म की क्रान्ति भी धर्म के ग्रन्थों को लिखने से, पढ़ने से उत्पन्न होती है। विध्वंसकारी कार्य भी ऐसे लौकिक साहित्यों से उत्पन्न होते हुए देखने और सुनने को मिलता ही रहता है। लेकिन वह साहित्य महत्त्वपूर्ण माना जाता है, जो भोग से विराम प्रदान कर योग की ओर लगा दे। आत्मा में वैराग्य के बीजों का वपन कर दे। ब्रह्मचारी, पण्डित भूरामल ने अपने साहित्य में श्रृंगार रस का वर्णन किया है। एक बाल ब्रह्मचारी के द्वारा श्रृंगार रस का वर्णन यही संकेत प्रदर्शित करता है तुम्हारे अन्दर वैराग्य उत्पन्न होकर श्रृंगार हमेशा के लिए नष्ट हो जाये। साहित्य को आत्म हित के लिए ही सम्पादित करते थे। वे सूर्य के आलोक में जीवों की रक्षा करते हुए लेखन कार्य को सम्पादित करते थे। वे कभी कृत्रिम प्रकाश के समर्थक नहीं रहे, इसलिए दिगम्बरी दीक्षा प्राप्त कर सूर्य के आलोक में जहाँ भोजन का प्रावधान हुआ करता है, वे साहित्य में ऐसे काठिन्य शब्दों का, सूत्र का प्रयोग करते थे, जिसे आज के विद्वानों को पढ़कर पसीना आ जाता है। इसमें दोष निकालने का उनमें सामर्थ्य ही नहीं। उनके द्वारा लिखा गया साहित्य इतना ज्यादा परिमार्जित, साफ-सुथरा एवं व्याकरण की दृष्टि से परिपुष्ट है। लिखते जरूर थे लेकिन कभी भी कागज का, कलम का चयन नहीं करते थे। पुराने कागजों में ही लिखना पसन्द करते थे। वे वस्तु के अनर्थदण्ड से डरते थे क्योंकि अहिंसाणुव्रत के पालक थे। इसलिए तो अहिंसा महाव्रत को प्राप्त किया। जैन साहित्य की कमी को, साहित्य लिख-लिखकर जैन साहित्य को समृद्ध बनाया। बस लिखना ही एक ध्येय था। उपयोग को स्थिर बनाने के लिए। प्रकाशन के विकल्प से तो बचे ही रहते थे। क्योंकि कहीं अशुद्ध न छप जाये। जो हमने शुद्ध लिखा है, वही वे उचित समझते थे। ये उनकी नीति थी।
  17. साधना ही जीवन का सच्चा प्रचार है, इसी से नहीं चाहते हुए भी प्रभावना होती चली जाती है। अपनी भावना भी परिपक्व बनी रहती है। अपने काम से मतलब रखने वाला समय का सदुपयोग करने वाला अप्रभावना से बचा रहता है। आचार्य ज्ञानसागरजी हमेशा लघुता को प्रकट करते हुए यही गुनगुनाते, गीत गाते, बोलचाल की भाषा में कहते रहते थे मैं प्रचारक नहीं हूँ, साधक हूँ, साधना ही हमारा धर्म है। मैं कभी प्रभावना नहीं चाहता, लेकिन अप्रभावना से बचना चाहता हूँ। नीतिकार कहते हैं-यही सबसे बड़ी प्रभावना है कि अप्रभावना को नहीं चाहना। उनके उम्र भर की समीचीन चर्या ही प्रभावना का कारण बन पड़ी और वे यह भी कहते थे हम अप्रभावक नहीं प्रभावक ही बने। आचार्यश्री जी के श्री मुख से १४.०३.२००५, सोमवार धवला पहली पुस्तक वाचना कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र (मध्यप्रदेश)
  18. सहना और अपने में रहना, किसी से कुछ नहीं कहना, क्योंकि अपना दुख सहा जाता है, पर का दुख कहा जाता है। अपनी चिन्ता, अपना विकल्प आर्तध्यान और रौद्रध्यान का कारण बनता है। पर के उत्थान के विकल्प को धर्म शास्त्रों में आचार्यों ने धर्मध्यान की कोटि में रखा है। क्योंकि आदमी जितना सहन करता है, उसका शरीर बल उतना ही बढ़ता चला जाता है। आत्म बल हमेशा सहनशीलता के लिए ही प्रोत्साहित करता है। यही प्रतिकूल-अनुकूल परिस्थितियों में रहने की प्रेरणा देता रहता है। जो प्रतिकूल परिस्थितियों में रहना जानता है, वो कभी भी साधन के अभाव में खेद-खिन्न नहीं होता। पण्डित भूरामलजी जब स्याद्वाद विद्यालय में पढ़ते थे, तब दूसरे विद्यार्थियों के लिए अधिक संख्या में श्लोक याद हो जाते थे। आपके श्लोकों की संख्या कम रहती थी। साथियों के शब्द बाणों को सुनकर सहनशीलता को बढ़ाते थे। कभी भी क्षुब्ध नहीं होते थे। पुरुषार्थ तो पूरा करते थे। अधिक याद नहीं होने पर यही सोचते थे अपना क्षयोपशम इतना ही होगा। अपन ने कभी किसी को पूर्व जीवन में व्यवधान उत्पन्न कर अन्तण्य कर्म को बांधा होगा। अपनी करनी का ही तो परिणाम है। कोई बात नहीं, थोड़े ज्ञान में भी बहुत गुजारा हो सकता है। बस ऐसा ही साम्यभाव बना रहे। ऐसा सोचकर अपने को समझा लेते थे। मुनि बनने के बाद कभी चटाई का प्रयोग नहीं करते थे। करते भी ये तो बैठने के लिए खजूर की पत्तियों का आसन जो चुभन को ही देता है या सूखी घास के तृण का उपयोग करते थे, जो भी चुभन देती है। आरामदेह वस्तु के बारे में कभी इच्छा नहीं करते थे। बस काम चल जाये और दोष न लगे, इसी रीति से अपने दैनिक कार्य को सम्पादित करते थे। सल्लेखना के समय में भीषण गर्मी में बिना वातानुकूल साधना से काया को छोड़ने का आयाम बनाये रखा। वे आचार्य उमास्वामी महाराज के “इच्छा निरोधः तपः' सूत्र के प्रतिपालकाचार्य के रूप में कीर्तिमान को स्थापित करके समाधि को प्राप्त किया।
  19. ध्यान देने योग्य बातें-हमें अपने स्तर पर हमेशा सावधान होकर सोचते रहना चाहिए, जीवन में ऐसी आत्मवृद्धि की कौन-सी बातें हैं, जो ध्यान देने योग्य हैं। आचार्य ज्ञानसागरजी ने एक सूत्र दिया-दो प्रकार की क्रिया ही ध्यान देने योग्य हुआ करती हैं-एक क्रिया हमारे सम्यग्दर्शन को पुष्ट करने वाली क्रिया हुआ करती है। जिसे हम सम्यक्त्ववर्धनी क्रिया के नाम से पुकारते हैं। दूसरी होती है-मिथ्यात्व को पुष्ट करने वाली क्रिया, जिसे मिथ्यावर्धनी क्रिया के नाम से पुकारा जाता है, इसलिए वे कहते थे-मिथ्यात्व में नहीं पड़ना चाहिए, बल्कि सम्यक्त्व को पुष्ट करना चाहिए। आचार्यश्री के श्री मुख से ०४.०९.२००३, शुक्रवार अमरकण्टक (मध्यप्रदेश)
  20. वाद में न विवाद में, विश्वास है आत्मवाद में। वे संवाद के लिए कभी अवसर प्रदान नहीं करते थे क्योंकि संवाद ही विवाद को जन्म प्रदान कर समय को नष्ट कर आर्त और रौद्रध्यान की ओर सहजता से गमन करा देता है और समय को नष्ट होने पर आगम को लिखने में व्यवधान जान पड़ता था। इसलिए वे अपने कार्य से ही प्रयोजन रखते थे। पंथवाद के झगड़े से दूर रहते थे। शास्त्रों में दो प्रकार की धाराएँ-एक कथंचित् ऐसा भी है वैसा भी है। स्थितियों में वे मौन रहते थे, फिर समाज में निश्चय-व्यवहार के झगड़े चला करते थे। वे कहते थे-व्यवहार धर्म बहुत कठिन है, निश्चय धर्म सरल है। हाथ-पर हाथ रखकर बैठ जाओ। आचार्य नेमिचन्द्र महाराज के सूत्र को उजागर करने वाले ‘‘अप्पा-अप्पम्मि रओ' इस स्थिति में आने से अपने आप वाद-विवाद छूट जाता है। इसे ही आचार्यों ने ध्यान की मुद्रा की संज्ञा प्रदान की है। विशेष रूप से वे तत्त्व चर्चा को प्रोत्साहित करते थे। कभी भी फिजूल खर्ची बातों का जमा-खर्च उनके पास रहा ही नहीं। यदि कोई शास्त्रीय त्रुटि हो जाती थी तो उसे प्रकट होने से पहले जिस कलम से गलत लिखा गया उसी कलम से सही कर विद्वत् जनों के सामने प्रस्तुत करते थे। शुद्ध उच्चारण उनके कण्ठ में विराजमान रहता था। वे दीर्घ और ठोस शब्दों के उच्चारण का ध्यान रखते थे। शुद्ध बोलना, शुद्ध लिखना इसलिए न वाद में, न विवाद और विश्वास आत्मवाद में इसी सूत्र पर चलने और चलाने की प्रथा के जनक रहे। शिष्यों में भी वाद-विवाद से दूर रहने की शिक्षा का प्रसारण स्वाध्याय करते समय कहते हुए सुना जाता था। यही आदेश-निर्देश शिष्य के सुधार के लिए पर्याप्त हुआ करता है। जहाँ वाद-विवाद की स्थिति होती थी, ऐसी संगोष्ठियों में, संघों में जाना कतई पसंद नहीं करते थे। एकान्त में रहना तो उन्हें भा जाता था लेकिन भीड़ में पहुँचने के बाद हानि तो पसन्द ही नहीं थी, वे तो वही काम करते थे, जो हँसी का नहीं आत्म प्रगति का साधन बने।
  21. क्षमावाणी आत्म-परिमार्जन का पर्व है। जिनसे वैर हो, विरोध हो, उनके प्रति क्षमा का भाव हृदय स्थल में विराजमान हो, यह हाथ जोड़ने के व्यवहार तक सीमित नहीं है, इसका समापन मन-वचनकाय की एकता के आधार पर ही निश्चित है, इसलिए एक बार क्षमावाणी पर व्याख्यान देते हुए आचार्य ज्ञानसागरजी ने कहा था-'क्षमा न बनी’ यही है आज की क्षमावाणी क्योंकि हम लोग उनसे ही क्षमा माँगते हैं, जिनसे हमारा प्रेम होता है, हमने क्षमावाणी को हाथ जोड़ने के व्यवहार तक सीमित कर दिया, इसलिए आचार्य परमेष्ठी को सूत्र वचन देना पड़ा क्षमावनी-न आचार्यश्री के श्री मुख से १३.०९.२०००, बुधवार अमरकण्टक (मध्यप्रदेश)
  22. गुवाहटी, नलवाड़ी, डीमापुर, विजय नगर में होगा रिद्धि मंत्रो से संगीतमय भक्तामर अनुष्ठान का आयोजन
  23. जीव को अनादिकाल से जन्म-जरा-मृत्यु का कष्ट रहा है। इस कष्ट को दूर करने के लिए भूरामलजी ने शास्त्रों के अध्ययन से जाना। जन्म-जरा-मृत्यु का कष्ट जब भी समाप्त होगा। संयम के भेष के माध्यम से और संयम के लब्धि स्थानों को निरन्तर बढ़ाने से इसी भाव के साथ आजीवन ब्रह्मचर्य को धारण किया। क्रमशः प्रतिमा रूपी व्रतों को स्वीकार किया। फिर क्षुल्लक, ऐलक के पदों को प्राप्त कर फिर आचार्य शिवसागरजी से दिगम्बरी दीक्षा प्राप्त कर अपनी आत्मगत कष्टों के निवारण में लगे क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों को ध्वंस करने में अपने समय का दान कर साधना किया करते थे। इसी बीच में कोई भव्य प्राणी संसार के कष्टों से भयभीत होकर उनके श्री चरणों में आता था तो वह कष्ट को दूर करने का उपाय उसके निवेदन पर अवश्य बताते थे। संकटमोचन स्तुति के माध्यम से उन्होंने सैकड़ों श्रावकों के कष्टों को भगवत् भक्ति से दूर करा दिया। श्रावकों में वर्षा न होने की खेद-खिन्नता को देख वे शान्तिविधान के द्वारा सहज ही मिटा देते थे। शरीर के कुष्ठ रोगों को शान्तिधारा के गन्धोदक से मिटाकर श्रावकों को मिथ्या प्रवृत्ति छुड़ाकर सम्यक्त्व प्रवृत्ति में लगाकर धर्म का प्रकाश करते हुए उनके करीब आने वाले श्रावक भक्तों ने एक बार नहीं, अनेक बार ऐसी घटनाओं को देखा और सुना है। वास्तव में देखा जाये तो त्नत्रय प्रदान करके भवसागर के दुख को साधु ही भगा देता है। स्नत्रय ही जन्म-जरामृत्यु का विनाशक तत्त्व है। अनन्त संसार को चुल्लु भर करने में सक्षम कारण है। साधक के शरीर में कष्ट होते हुए भी समता परिणाम के कारण आनन्द ही होता है। वे सबके दुख का निवारण करते थे। लेकिन उनके शरीर में साइटिका जैसा रोग हो गया था फिर भी इस कष्ट के निवारण का ध्यान नहीं आता था। इस शरीर कष्ट को समता के भाव से वे समाधान को निवारण को प्राप्त कर लेते थे। वही माघनन्दि महाराज का सूत्र उनके अन्दर सदैव चलता था। शरीररहितोऽहम्। सबके लिए सब कुछ करने के लिए तत्पर रहने वाले अपने लिए केवल साम्य परिणति बनाये रखना ही उद्देश्य, ध्येय रहा।
  24. कार्य की परिणति का यथोचित रीति-नीति से सम्पादन कार्य की वर्किंग तक सीमित न रहे क्वालिटी के मापदण्ड का ध्यान ही कार्य की प्रशंसा का बिन्दु हुआ करता है। यह बात जगत् में प्रसिद्ध है कि रसोई घर का सम्पादन घर की मालकिन के द्वारा होता है न कि नौकरानी के द्वारा। ऐसा ही एक दिन आचार्य ज्ञानसागरजी आहार चर्या के बाद संघ में कह रहे थे, सुबह से शाम तक महिलायें रसोई घर में हुआ करती हैं और ऊपर से धुंआ खाती रहती हैं। और हाथ मुँह काले हो जाते हैं और श्रावक बंधु आते हैं, ५ मिनट में भोजन की आलोचना करके चले जाते हैं। वे कभी किसी के कार्य के आलोचक नहीं थे, बल्कि प्रशंसक थे क्योंकि निंदा तो कोई भी कर सकता है। प्रशंसा तो साधकों के बल का काम है। निंदक हमेशा निर्बल होता है और प्रशंसक आत्मबली होता है। आचार्यश्री के मुख से
  25. जीवन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/jeevan/
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