प्रयोजनभूत स्मृतियाँ साधक के लिए क्षम्य हो सकती हैं, अप्रयोजनीय स्मृतियाँ संक्लेश के कारण भावहिंसा के कारण भी बन सकती हैं। हमारी स्मृतियाँ ही हमारे अन्दर गुद-गुदापन उत्पन्न करती हैं तो हमारी स्मृतियाँ हमें मचलने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, यही हमारे सुख- दुख का कारण होता है। संयमी जन स्मृतियों से भी अपने आत्मगत विचारों की रक्षा करते हैं। हाँ यह आवश्यक जरूर है, जब शास्त्र के आलम्बन से पृष्ठ संख्या का स्मरण आ जाना, यह स्मृति की महानता है।
इसी स्मृति को धारण करने वाले ब्रह्मचारी भूरामलजी, पण्डित भूरामल, मुनि ज्ञानसागर, आचार्य ज्ञानसागरजी थे। जब एक बार वे ब्रह्मचारी विद्याधर को अष्टसहस्री पढ़ा रहे थे, तब एक गाँव से ग्रन्थ मंगवाये गये और कहा-अमुक-अमुक पृष्ठ पर देख लो वहाँ मेरे निशान लगे हैं पुराने। तब विद्याधर ने देखा तो वैसा ही पाया। तब उनके अन्तर्मन में ध्वनि हुई-धन्य-धन्य हैं आपकी स्मृति । इसी पुरानी स्मृति को ताजा बनाने के लिए आचार्य गुरुदेव ने संघ में अपनी कक्षा में मुनियों के लिए बताया। जब भी वो स्वाध्याय किया या करवाया करते थे, तब उस समय वे कहते थे—यह अमुक विषय-अमुक ग्रन्थ के पृष्ठ संख्या पर देखें, खोलने पर वही मिलता था।
ऐसे ही संस्कार मुनि विद्यासागर पर भी डाले। वे आचार्य गुरुदेव ग्रन्थ को पढ़ने के बाद क्षेपक का प्रयोग नहीं करते। पृष्ठ संख्या याद रखकर अगले दिन स्वाध्याय प्रारम्भ करते हैं। हाँ, यह बात ध्यान रखने योग्य है-पूर्व में भोगे हुए भोगों की स्मृति के लिए आगम में निषेध किया गया है। लेकिन स्वाध्याय के अंगों में एक आम्नाय (मौखिक) स्वाध्याय आता है जो पाठ रूप हुआ करता है, इसे अमल में लाने से चिन्तन की धारा बढ़ती है और उपयोग की शुद्धि बढ़ती है। आत्मगत परिणामों में विशुद्धि बनाये रखने के लिए यह नेक साधना है। इससे स्मृति हमेशा साफ-सुथरी बनी रहती है। स्मृति-धन सारे धनों में महान् है। बिना
आलम्बन के कार्य को कर देता है।