क्षमावाणी आत्म-परिमार्जन का पर्व है। जिनसे वैर हो, विरोध हो, उनके प्रति क्षमा का भाव हृदय स्थल में विराजमान हो, यह हाथ जोड़ने के व्यवहार तक सीमित नहीं है, इसका समापन मन-वचनकाय की एकता के आधार पर ही निश्चित है, इसलिए एक बार क्षमावाणी पर व्याख्यान देते हुए आचार्य ज्ञानसागरजी ने कहा था-'क्षमा न बनी’ यही है आज की क्षमावाणी क्योंकि हम लोग उनसे ही क्षमा माँगते हैं, जिनसे हमारा प्रेम होता है, हमने क्षमावाणी को हाथ जोड़ने के व्यवहार तक सीमित कर दिया, इसलिए आचार्य परमेष्ठी को सूत्र वचन देना पड़ा क्षमावनी-न
आचार्यश्री के श्री मुख से
१३.०९.२०००, बुधवार
अमरकण्टक (मध्यप्रदेश)