कार्य की सिद्धि के लिए बुद्धि की युक्ति के द्वारा सुलझाने की ज्ञान के प्रकाश से प्राप्त होती चली जाती है। यही उस ज्ञान की विशेषता होती है। जो आगे चलकर सम्यक् ज्ञान बन जाता है।
बात उस दिन की है जब आचार्य ज्ञानसागरजी आहार चर्या से लौट के आये, उस समय स्वाध्यायी श्रावक भी बैठे हुए थे, साथ ही उनका अपना संघ भी उपस्थित था, तब उन्होंने कहा हमेशा ध्यान रखने योग्य बात यह है जब भी अपने हृदय में प्रश्न की उत्पत्ति होगी। तो वह अपनी ही निधि होगी, लेकिन ध्यान रखना उत्तर की प्राप्ति जब भी होगी दूसरे के मन की निधि के द्वारा ही होगी, उपस्थित श्रावकों ने सुनकर गुरु ज्ञानसागरजी की ज्ञान की गरिमा को समझ आनंद में भाव विभोर हो गये, वहीं निधि मुनि विद्यासागर को दे गये।
आचार्य श्री के मुख से
५/९/२००४ रविवार
तिलवारघाट (जबलपुर)