जीव को अनादिकाल से जन्म-जरा-मृत्यु का कष्ट रहा है। इस कष्ट को दूर करने के लिए भूरामलजी ने शास्त्रों के अध्ययन से जाना। जन्म-जरा-मृत्यु का कष्ट जब भी समाप्त होगा। संयम के भेष के माध्यम से और संयम के लब्धि स्थानों को निरन्तर बढ़ाने से इसी भाव के साथ आजीवन ब्रह्मचर्य को धारण किया। क्रमशः प्रतिमा रूपी व्रतों को स्वीकार किया। फिर क्षुल्लक, ऐलक के पदों को प्राप्त कर फिर आचार्य शिवसागरजी से दिगम्बरी दीक्षा प्राप्त कर अपनी आत्मगत कष्टों के निवारण में लगे क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों को ध्वंस करने में अपने समय का दान कर साधना किया करते थे। इसी बीच में कोई भव्य प्राणी संसार के कष्टों से भयभीत होकर उनके श्री चरणों में आता था तो वह कष्ट को दूर करने का उपाय उसके निवेदन पर अवश्य बताते थे।
संकटमोचन स्तुति के माध्यम से उन्होंने सैकड़ों श्रावकों के कष्टों को भगवत् भक्ति से दूर करा दिया। श्रावकों में वर्षा न होने की खेद-खिन्नता को देख वे शान्तिविधान के द्वारा सहज ही मिटा देते थे। शरीर के कुष्ठ रोगों को शान्तिधारा के गन्धोदक से मिटाकर श्रावकों को मिथ्या प्रवृत्ति छुड़ाकर सम्यक्त्व प्रवृत्ति में लगाकर धर्म का प्रकाश करते हुए उनके करीब आने वाले श्रावक भक्तों ने एक बार नहीं, अनेक बार ऐसी घटनाओं को देखा और सुना है। वास्तव में देखा जाये तो त्नत्रय प्रदान करके भवसागर के दुख को साधु ही भगा देता है। स्नत्रय ही जन्म-जरामृत्यु का विनाशक तत्त्व है। अनन्त संसार को चुल्लु भर करने में सक्षम कारण है। साधक के शरीर में कष्ट होते हुए भी समता परिणाम के कारण आनन्द ही होता है। वे सबके दुख का निवारण करते थे। लेकिन उनके शरीर में साइटिका जैसा रोग हो गया था फिर भी इस कष्ट के निवारण का ध्यान नहीं आता था। इस शरीर कष्ट को समता के भाव से वे समाधान को निवारण को प्राप्त कर लेते थे। वही माघनन्दि महाराज का सूत्र उनके अन्दर सदैव चलता था। शरीररहितोऽहम्। सबके लिए सब कुछ करने के लिए तत्पर रहने वाले अपने लिए केवल साम्य परिणति बनाये रखना ही उद्देश्य, ध्येय रहा।