साधु जीवन ही हित का, परम हित का, आत्महित का, समाज हित का, धर्म हित का, राष्ट्र हित का, सम्पादक, चिंतक, सुधारक हुआ करता है।
ऐसे ही एक दिन शाम को वैय्यावृत्ति के समय आचार्य के कौतुक गुण का प्रयोग करते हुए मनोरंजन की भाषा में बोले—क्यों? तुम लोगों को मालूम है, सबसे कम स्वाध्याय मारवाड़ी समाज में होता है। जहाँ न जाये बैलगाड़ी वहाँ जाय मारवाड़ी। वह रात-दिन पैसा कमाने में लगा रहता है। इसलिए मराठी में कहते हैं-झोपलाश का जागा जागा रे, असा कसा रे दिन-रात पैसा-पैसा रे! नींद से जागा और उठा और आदमी पैसा-पैसा करने लगता है। इस प्रसंग को सुनकर लगा वे समाज को सुधारने के लिए ऐसा भी बोला करते थे। इससे कई मारवाड़ी स्वाध्यायी उनके पास दिन-रात आया करते थे। कोई विनती सुनाता, कोई भजन सुनाता, कोई स्वाध्याय सुनता और अपने कार्य को प्राप्त करके चला जाता।
आचार्यश्री के मुख से