वचन नहीं प्रवचन करना'' यह आगम वाक्य साधुओं को आचार्य परम्परा से प्राप्त होता है। विशेष रूप से जो वचन होते हैं, वो ही प्रवचन का अंग बन जाते हैं। वे एक मनीषी, विद्वान्, साहित्याचार्य, व्याकरणाचार्य, शब्दाचार्य आदि के ज्ञाता होते हुए भी वे कभी भी एक घण्टे का प्रवचन बिना ग्रन्थ के नहीं किया करते थे। वे ग्रन्थ को पढ़कर ही उसकी व्याख्या कर प्रवचन करते थे। यहाँ तक भी देखा, सुना, गया वे प्रवचन में जैन कथाओं का आलम्बन लेते थे। वे यहाँ वहाँ के कहानी किस्से चुटकुले आदि पसन्द नहीं करते थे। वे बड़ेबड़े मंगलाचरण को स्तुतियों को लिखने वाले आचार्य हैं। फिर भी प्रवचन के शुरू में वे जो मंगलाचरण करते थे वह मंगलाचरण इस प्रकार था |
णमो अरिहंताणं, णमो अरहंताणं, णमो अरूहंताणं इन तीन पदों को बोलकर उसकी व्याख्या के साथ ही प्रवचन किया करते थे। उनकी प्रवचन शैली मारवाड़ी भाषा कहावतों के साथ चला करती थी। जैसे जो ना माने सयानों की सीख, ले खपड़िया मांगे भीख। आदि बातें जैसे विशेष घटना को देखकर भी व्याख्या करते थे। एक बार उन्होंने एक बारात को जाते हुए देखा। आदमी एक गैसबत्ती लेकर चल रहा है। वह सबको प्रकाशित करता है, लेकिन स्वयं अंधेरे में रहता है। इसकी लोक व्यवहार की बातों के माध्यम से लोगों को जिनवाणी सुनने में रुझान पैदा होता था। उनके पास कई स्वाध्यायी लोग, तत्त्वप्रेमी अपनी शंकाओं का समाधान पाते थे। प्रवचन में भी शंकाओं को उठाकर समाधान किया करते थे। कभी प्रवचन के लिए
‘नोट' बनाने का काम तो किया ही नहीं। आज का विद्वान् बिना पूर्व ‘नोट' बनाये बोल नहीं पाता। प्रवचनकर्ता होने के कारण उनकी वाणी मॅजती हुई चली गई और यही मुख्य आकर्षण का कारण रहा।