त्याग ही आत्मा का उपादेय तत्त्व है। इस कारण से ही शरीर की स्थिति कायम बनी रहती है। त्यागी का जीवन बारह तपों से जिन्हें हम बारह व्रत कहते हैं। इससे ही आच्छादित होता है। सबसे पहला त्याग त्यागी के लिए रसना इन्द्रिय सम्बन्धी जो खान-पान की वस्तु है, मन में आते ही वह रसना इन्द्रिय को आर्डर प्रदान करने लगता है। इसलिए रसना इन्द्रिय पर नियंत्रण के लिए सबसे पहले मन को कसना होता है। यह कार्य ब्रह्मचारी भूरामलजी पण्डित भूरामलजी, के जीवन में परिलक्षित होता था। वे दवा से नहीं भोजन से ही अपने रोग की चिकित्सा करते थे।
एक बार जब वे दिल्ली के पास मंसूरपुर में थे, उस समय दस प्रतिमाओं का निर्वाह करते थे। तब वहाँ ‘फ्लू' नामक बुखार चल रहा था। वे भोजन में हरी तली हुई मिर्च जिसके ऊपरी भाग की परत सफेद पड़ जाती है, उस मिर्ची के सेवन से उन्हें बुखार नहीं आया। इसका प्रयोग (मैंने-मुनि चन्द्रसागर) ने भी किया यह उनका सटीक नुस्खा था, इसमें किसी प्रकार की याचना वृत्ति नहीं छिपी थी। यह तो सहज ही प्राप्त होने वाली वस्तु थी। वे कभी भी चमकदार वस्त्रों का उपयोग नहीं करते थे। साफ सुथरे वस्त्रों का जरूर उपयोग करते थे।
वे बार-बार खाने के पक्ष में कभी नहीं रहे। त्यागी, योगी बनकर ही भोजन करें, यही उसकी योग साधना के लिए कार्यकारी होता है। बार-बार भोजन करने से समय बर्बाद होता है और आवश्यकों में प्रमाद की स्थिति बनी रहती है। एक बार मुख में पानी गया, एक भुक्ति हो गई। इस कारण भी बड़े होने के नाते, ज्ञानी मुनि के नाते, शास्त्री होने के नाते बार-बार मुँह को जूठा नहीं करते थे। भले वो घर में रहे हों या घर के बाहर, यही उनका बड़प्पन था। त्याग की हुई वस्तु को कभी स्मरण का विषय नहीं बनाते थे। ना उसका ढिंढोरा पीटते थे। त्याग वही है जो दूसरे को ज्ञात न हो और अपने लिए भी प्रयोग करते समय ही ज्ञात हो। यही तो उपयोग की स्थिरता का कारण बनता है तब कहीं शुद्ध उपयोग प्राप्ति होने की भूमिका बन सकती है।