कार्य की परिणति का यथोचित रीति-नीति से सम्पादन कार्य की वर्किंग तक सीमित न रहे क्वालिटी के मापदण्ड का ध्यान ही कार्य की प्रशंसा का बिन्दु हुआ करता है।
यह बात जगत् में प्रसिद्ध है कि रसोई घर का सम्पादन घर की मालकिन के द्वारा होता है न कि नौकरानी के द्वारा। ऐसा ही एक दिन आचार्य ज्ञानसागरजी आहार चर्या के बाद संघ में कह रहे थे, सुबह से शाम तक महिलायें रसोई घर में हुआ करती हैं और ऊपर से धुंआ खाती रहती हैं। और हाथ मुँह काले हो जाते हैं और श्रावक बंधु आते हैं, ५ मिनट में भोजन की आलोचना करके चले जाते हैं। वे कभी किसी के कार्य के आलोचक नहीं थे, बल्कि प्रशंसक थे क्योंकि निंदा तो कोई भी कर सकता है। प्रशंसा तो साधकों के बल का काम है। निंदक हमेशा निर्बल होता है और प्रशंसक आत्मबली होता है।
आचार्यश्री के मुख से