स्नों की परख करने वाला जौहरी होता है। स्वर्ण की परख करने वाला स्वर्णकार होता है। लोहे की परख करने वाला लोह गढ़िया होता है। इसी तरह श्रावकों में मोक्षमार्ग की योग्यता को जानने वाले स्त्नत्रयधारी गुरु हुआ करते हैं जो दिगम्बर अवस्था को प्राप्त कर २८ मूलगुणों को पालन कर तप की आराधना के माध्यम से अपने अन्दर एक ऐसी योग्यता को अपने ही अनुभव से प्राप्त कर लेते हैं। तब कहीं संघ में शिष्यों की भर्ती का कार्य सम्पन्नता को प्राप्त होता है।
साधक इतना अवश्य जानता है। कौन समय को बर्बाद करेगा और कौन समय का सदुपयोग करेगा। सदुपयोग करने वाले को समय का दान देते हैं। समय को बर्बाद करने वाले के सामने मौन व्रत धारण कर लेते हैं न उसे देखते हैं, न उसे बोलते हैं। देखने का मतलब ही बोलने के अभिप्राय को प्रकट करता है। जैसे जानवर होता है, बन्दर, गाय, सुअर, कुत्ता आदि इनसे दृष्टि मिलते ही, ये आक्रमणकारी हो जाते हैं। और इनसे दृष्टि को ओझल करने से आक्रमण से बचाव पक्ष मजबूत हो जाता है। कई लोगों के अन्दर ऐसी क्षमता होती है, वे पक्षी की उड़ान से जान लेते हैं यह कहाँ बीट करेगी। कौन-सा कार्य कब सम्पन्न होगा। ये गुरु जानते हैं। जब शिष्य पूछता है, उस समय उस कार्य का योग्य समय उपस्थित नहीं होने से वे मौन हो जाते हैं। यहाँ तक कि कोई संकेत भी नहीं। इशारा रहित हो जाते हैं।
जब समय आ जाता है, तब हँसते हुए कहते हुए नजर आते हैं, उस दिन तुमने ऐसा पूछा था न, उसके उत्तर का प्रसंग आज उपस्थित हो गया है। हीरा हीरे की पहचान जानता है। इसी तरह विद्याधर का उस समय आचार्य गुरुदेव की ज्ञानसागरजी के पास आना होता है, जब उनकी वृद्धावस्था अन्तिम पड़ाव पर चल रही थी फिर भी गुरुदेव ने योग्यता को देखकर मना नहीं किया, क्योंकि वे पढ़ा-पढ़ा कर थक गये थे। जो भी आता ज्ञान लेकर भाग जाता। कहीं ये विद्याधर भी विद्याओं को लेकर उड़ न जाये तब त्याग का समर्पण देखकर संघ में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। ऐसे पारखी गुरुदेव को मेरा प्रणाम हो।