संघों की व्यवस्था आगम वाक्यों की आचार्य संहिता से प्रारम्भ होकर संघ नायक की अपनी वैचारिक संहिता नीति भी हुआ करती है। वे कभी भी मात्र चर्चा तक सीमित नहीं रहते थे। वे चर्या से अपनी आत्मा का आकर्षण एवं पर को प्रकाश प्रदान किया करते थे। चर्या की कठोरता मनोभावों की सरलता उनका अभिन्न अंग हुआ करता था। वे कभी भी वस्त्र का प्रयोग नहीं करते थे। एक बार मुनि विद्यासागर ने नैपकीन को उठाकर गुरु के चरणों का पाद-प्रक्षालन करने लगे तब गुरुदेव ने कहा कि यह तुम्हारे हाथ में कहाँ से आया? इतना सुनते ही मुनि विद्यासागर अन्दर से काँप गये और तत्काल उस नैपकीन को छोड़ दिया। ऐसा उनके संघ का अनुशासन हुआ करता था। वे अपनी आहार चर्या में अपनी वृद्ध अवस्था के अनुकूल आहार किया करते थे। वृद्ध अवस्था के बाद भी पैदल विहार में कभी कमी नहीं होती थी।
वे कम चलना पसन्द करते थे। लेकिन डोली में बैठकर पराश्रित चर्या पसन्द नहीं थी। आसन-सिंहासन से कोई मतलब नहीं रखते थे। ऊँचे-नीचे आसनों का विकल्प भी नहीं होता था। जैसा मिल गया वैसा ठीक। ये लाओ, वो लाओ ऐसा तो कभी कहते ही नहीं थे। ऐसा गुरुदेव विद्यासागर जी के मुख से समय-समय पर सुनने मिल जाता है। वे स्वयं जिस चर्या का पालन करते थे उसी चर्या का संघ में भी पालन कराते थे। संघ में सामूहिक प्रतिक्रमण हुआ करता था। सभी लोग उसमें भाग लेते थे। ऐसे ही सामूहिक स्वाध्याय हुआ करता था।
विद्वानों की चर्चा होती थी तो उसमें मुनि विद्यासागर भी होते थे, क्योंकि इन चर्चाओं के माध्यम से भी उनके अन्दर ज्ञान का समावेश कराना चाहते थे, क्योंकि वो जानते थे आयु कर्म अब बहुत कम बचा है। वो कभी भी किसी प्रकार की कमी अपने शिष्यों में पसन्द नहीं करते थे। शिष्य के लिए जो आवश्यक है, उसकी समुचित व्यवस्था उनकी सहज वृत्ति में था।