सम्यक् प्रकार गमन करना अर्थात् व्रत, समिति, गुप्ति आदि के रूप में प्रवर्तन करना अपहृत या व्यवहार संयम है और दूसरा लक्षण उपेक्षा या निश्चय संयम कहा है, इन्हीं दोनों को वीतराग व सराग चारित्र भी कहते हैं।
अन्य प्राणियों की रक्षा करना प्राणी संयम है एवं इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होना इन्द्रिय संयम है। बात उस दिन की है जब आचार्य ज्ञानसागरजी दोपहर की स्वाध्याय कक्षा में कह रहे थे संयम क्या है? इस प्रश्न को उठाकर समाधान करते हुए बोले, भयानक जंगल है एक तपस्वी चारों तरफ चौकन्ना है और तपस्या करता है, लेकिन कभी जनता के बीच में बैठकर भी साधना करता है। वह महान् तपस्वी है। जो भीड़ में रहकर भीड़ से दूर रहता है। लेकिन वह पर्याय बुद्धि से नहीं चलता, लोग उसे देख रहे हैं, वह कैसे चलेगा? ऐसे आचार्य ज्ञानसागरजी को विद्यासागरजी ने देखा, वे कैसे चले और उन्हें कैसे चलाया? आचार्य ज्ञानसागरजी का अधिकतम जीवन देशसंयम के साथ चला है। बाद में ही संयम की प्राप्ति हुई, जिसे महासंयम कहते हैं।