साहित्य ही संस्कृति का दिग्दर्शन कराने वाला मात्र एक साधन है। धर्म की क्रान्ति भी धर्म के ग्रन्थों को लिखने से, पढ़ने से उत्पन्न होती है। विध्वंसकारी कार्य भी ऐसे लौकिक साहित्यों से उत्पन्न होते हुए देखने और सुनने को मिलता ही रहता है। लेकिन वह साहित्य महत्त्वपूर्ण माना जाता है, जो भोग से विराम प्रदान कर योग की ओर लगा दे। आत्मा में वैराग्य के बीजों का वपन कर दे। ब्रह्मचारी, पण्डित भूरामल ने अपने साहित्य में श्रृंगार रस का वर्णन किया है। एक बाल ब्रह्मचारी के द्वारा श्रृंगार रस का वर्णन यही संकेत प्रदर्शित करता है तुम्हारे अन्दर वैराग्य उत्पन्न होकर श्रृंगार हमेशा के लिए नष्ट हो जाये। साहित्य को आत्म हित के लिए ही सम्पादित करते थे।
वे सूर्य के आलोक में जीवों की रक्षा करते हुए लेखन कार्य को सम्पादित करते थे। वे कभी कृत्रिम प्रकाश के समर्थक नहीं रहे, इसलिए दिगम्बरी दीक्षा प्राप्त कर सूर्य के आलोक में जहाँ भोजन का प्रावधान हुआ करता है, वे साहित्य में ऐसे काठिन्य शब्दों का, सूत्र का प्रयोग करते थे, जिसे आज के विद्वानों को पढ़कर पसीना आ जाता है। इसमें दोष निकालने का उनमें सामर्थ्य ही नहीं। उनके द्वारा लिखा गया साहित्य इतना ज्यादा परिमार्जित, साफ-सुथरा एवं व्याकरण की दृष्टि से परिपुष्ट है। लिखते जरूर थे लेकिन कभी भी कागज का, कलम का चयन नहीं करते थे। पुराने कागजों में ही लिखना पसन्द करते थे। वे वस्तु के अनर्थदण्ड से डरते थे क्योंकि अहिंसाणुव्रत के पालक थे। इसलिए तो अहिंसा महाव्रत को प्राप्त किया। जैन साहित्य की कमी को, साहित्य लिख-लिखकर जैन साहित्य को समृद्ध बनाया।
बस लिखना ही एक ध्येय था। उपयोग को स्थिर बनाने के लिए। प्रकाशन के विकल्प से तो बचे ही रहते थे। क्योंकि कहीं अशुद्ध न छप जाये। जो हमने शुद्ध लिखा है, वही वे उचित समझते थे। ये उनकी नीति थी।