संस्कृति आचरण की आचार संहिता का पालन करते हुए चला करती है। जिस संस्कृति में आचरण की मुख्यता नहीं होती वह कभी भी धूमिल हो सकती है। श्रमणों की संस्कृति हमेशा आचरण की मर्यादा में बँधी रही इसलिए उच्च आसन पर विराजमान बनी रही। अन्य संस्कृतियों में खान-पान, भक्ष्यअभक्ष्य की मर्यादा की हीनता बनी रही। श्रमणों की संस्कृति में पदार्थों की उपयोग करने की विभिन्न ऋतुओं के अनुसार एक सीमित समय निर्धारित है। पानी को छानकर पीना यह जैन संहिता, पानी की जीवाणी या अहिंसा की संहिता ज्यों की त्यों बनी हुई है। श्रमणों में जीवरक्षा की दृष्टि से उबले हुए प्रासुक पानी की नियमितता बनी हुई है। वैष्णव संत परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत की परिपालना के संन्यासी नजर तो आते हैं पर सहज और सरल तरीका उनकी परिपालना में नजर नहीं आता। श्रमण एक ही बार अल्प भोजन-पानी को ग्रहण करते हैं। उपवास की कालावधि में निराहार साधना पद्धति पर विश्वास रखते हैं। अपने ही हाथ से केशों का लौंच करते हैं। शरीर के साज-श्रृंगार की बात ही नहीं। अस्नान व्रत का पालन करते हैं। दाँतों को चमकाने की बात ही नहीं, अदन्तधावन व्रत को धारण करते हैं। हिन्दू संस्कृति में उपवास की परिपालना फलाहार के साथ चलती है। दिन में कितने ही बार, रात में कितने ही बार, खाने-पीने की कोई मर्यादा ही नहीं। जैन संस्कृति में उपवास निराहार रहकर आत्मा की उपासना तक की यात्रा का साधन है और एकासना एक बार भोजन-पानी ग्रहण करके व्रत का पालन किया जाता है। इस प्रकार ५० वर्षों में श्रमण संस्कृति को अपनी चर्या और साधना से ऊँचा बनाये रखा गुरुदेव ने।