आगम ग्रन्थों के रहस्यों की चर्चा करने वालों की आज कमी नहीं है लेकिन उसके अनुरूप चलने वालों की कमी जरूर है। लोग चर्चा तो कर लेते हैं, चर्या के क्षेत्र में अर्थात् चारित्र में शून्य की ओर ही आ जाते हैं। उनकी चर्चा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, जो चर्या के रूप में देखने मिलती है, इसे ही चारित्र कहते हैं। चारित्रमान पुरुष आगम के एक शब्द को भी लोगों के कान तक पहुँचाने का काम करता है तो उनके मनोभावों में हलचल मच जाती है। विशुद्ध चर्या ही शुद्ध चर्चा से शोभित होती है, इसे मूल आम्नाय आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्वामी की धरोहर के रूप में जाना जाता है। बाल हों, वृद्ध हों, रुग्ण हों, किसी भी स्थिति में हों, चर्या जब भी होगी, मूलाचार के परिवेश के साथ ही होगी। यहाँ प्रमाद और छूट की कोई गुंजाइश नहीं। खड़े होकर भोजन तो लेना ही है साथ में करपात्र में किसी पात्र में आहार करता है तो चर्या की शिथिलता है। पैरों में चलने की सामर्थ्य नहीं है, किसी तीर्थक्षेत्र पर रुक जाये, वहाँ रुककर स्वास्थ्य लाभ लो लेकिन शिथिलता नहीं। मुनि बनकर आरम्भ मत करो। लाइट को जलाओ मत, बुझाओ मत अपने हाथ से। इसमें अग्निकायिक, वायुकायिक, जलकायिक जीवों की विराधना होती है। कृत, कारित, अनुमोदना के लिए निषेधवाचक शब्दों का प्रयोग किया गया है। मन, वचन, काय को पापों की सीढ़ी चढ़ने से बचने के लिए प्रतिफल मूलाचार याद रखो। आत्मा में जाने के लिए समयसारमय ध्यान करो। ५० वर्षों में गुरुदेव की चर्या मूलाचार के राही बनकर चली आ रही है और समयसार के ध्यानी आत्मा बनकर लोगों को सम्यग्ज्ञान का संदेश देकर सम्यक्चारित्र की ओर प्रेरित करते हुए देखे जा रहे हैं।