दुनियाँ में दर्शनों की मत-मतान्तरों की सम्प्रदायों की, पंथों की होड़ मची हुई है। इस होड़ में अपने दर्शन को समीचीन बनाये रखना कठिन-सा जान पड़ता है, फिर भी जिसकी दृष्टि समीचीन होती है निर्मल होती है, वह अपने मन को निर्बल होने से बचाये रखता है। कुछ हो या न हो मेरा मन दुर्बल न हो, यह नीति दर्शन की शुद्धता से सहित होती है। समीचीनता बाह्यरूप पर ध्यान रखकर अंतरंग गुणों की ओर भी दृष्टि रखती है। धर्म का मूल गुण होता है, बिना गुणों के दर्शन टिकता नहीं है, वह कभी भी ढह जायेगा, गिर जायेगा टूट जायेगा, छिन्न-भिन्न होकर समाप्त हो जायेगा। गुणों से आच्छादित समीचीन दृष्टि वाला साधक ८ अंगों से सहित होता है। जैसे नि:शंकित अर्थात् जिन वचनों में शंका नहीं रखना, दूसरा नि:कांक्षित अर्थात् कामना से रहित प्रभु के दर्शन करना। तीसरा निर्विचिकित्सा-ग्लानि रहित सेवा के भाव से परिपूरित जीवन जीना, चौथा अमूढदृष्टि-मिथ्या मान्यताओं से गुरुजी का जीवन रीता हुआ है। उपगूहन-दूसरे के दोषों को सुनकर अपने तक सीमित रखने वाले। छठवाँ स्थितिकरण पद से विचलित होने वाले को पद पर स्थित करने वाले, सातवाँ वात्सल्य जैसा गाय बछड़े की प्रीति प्रसिद्ध है, ऐसे ही गुरुदेव धर्मप्रीति के लिए प्रसिद्ध हैं। आठवाँ प्रभावना-लोगों का अज्ञान मिटाकर सम्यक् प्रकाश भरकर सम्यक् प्रभावना करने वाले। इन आठ अंगों से आत्मा के प्रकाश को उजागर करके लोगों को सम्यग्दृष्टि बनाने का प्रयास करने वाले समीचीन दर्शन के पालक आचार्य गुरुदेव इन ५० वर्षों से लगातार कोरे सम्यग्दृष्टियों को यह बता दिया है सम्यग्दृष्टिपना भाषणों से किसी के अन्दर भरा नहीं जा सकता, यह तो गुणात्मक पद्धति का जीवित साधन होता है बाकी तो सब मिथ्या ही जानो।