विद्याधर अष्टगे अपने पिता मल्लप्पाजी अष्टगे के द्वितीय पुत्र थे इसलिए अद्वितीय साबित हुए। गृहस्थ मार्ग को छोड़कर मोक्षमार्ग में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के प्रथम शिष्य अद्वितीय प्रभावक होगा। यह कोई न जान पाया था। आज समझ में आ रहा है। आचार्य ज्ञानसागरजी ने पंडित भूरामल की अवस्था से लेकर ब्रह्मचारी भूरामल तक की अवस्था से लेकर मुनि ज्ञानसागरजी की अवस्था तक जो ज्ञान प्राप्त किया, वह सम्पूर्ण ज्ञान आचार्य ज्ञानसागर बनने के बाद ब्रह्मचारी विद्याधर मुनि विद्यासागर को प्राप्त सम्पूर्ण ज्ञान उनके अन्दर भर दिया। इसलिए आज वह अद्वितीय प्रभावक साबित हुए इसलिए जो काम कोई नहीं कर सकता, वो काम गुरुदेव सहज ही कर लेते हैं, जब शिष्यों को बिना कोई पूर्व योजना के सूचना दिये बिना दीक्षा प्रदान करते हैं। तब समझ में आता है, जिनधर्म की प्रभावना किस रूप हो रही है। बड़ा स्थान भी दर्शकों के लिए छोटा पड़ जाता है। पानी भी गिर रहा हो तो दर्शक मूकदर्शक बनकर वैराग्य के दृश्य को टकटकी लगाकर देखता रह जाता है। सुविधा भोगी श्रावक सुविधाओं को छोड़ देता है। अपने आप युवक लोग मुनि महाराजों के सहयोग से रात भर में मयूर पंख से निर्मित पिच्छिका बना देते हैं और कमण्डलु तैयार कर देते हैं, क्योंकि गुरुदेव व्यवस्थाओं के बारे में नहीं सोचते इसलिए तात्कालिक व्यवस्थायें अपने आप बनती चली जाती हैं। उन्हें मंच-माइक से कोई प्रयोजन नहीं होता, उन्होंने मुनि समयसागरजी को जब मुनि दीक्षा प्रदान की द्रोणगिरि की पहाड़ियों पर उस दिन महाराज ने केशलोंच किया था, वो पहाड़ी पर जंगल के लिए आये थे। आचार्य गुरुदेव भी साथ में थे। उसी समय ब्राह्मी आश्रम की संचालिका दर्शन करने आई। पूछा द्रव्य नहीं लाई, इतना सुनते ही द्रव्य पास में रख दिया। उसी द्रव्य से संस्कार कर दिया। ऐसे अद्वितीय प्रभावक ५० वर्षों से ऐसे ही तात्कालिक साधकों का निर्माण कर अद्वितीय प्रभावना कर रहे हैं।