बचपन के विद्याधर अपने स्कूल जीवन में कक्षा नायक बनना चाहते थे। उनकी शारीरिक लम्बाई कम होने के कारण कक्षा नायक के पद पर स्थित नहीं हो पाये। इसी प्रकार एक बार नेहरूजी का चित्र देखकर बड़े बनने के लिए मचल गये। इस प्रकार क्रम चलता ही रहा और कक्षा नायक नहीं बन पाये, राजनेता नहीं बन पाये तो धर्म के नेता, मुनियों के नायक के पद पर स्थित होकर एक बाल ब्रह्मचारी ने बालब्रह्मचारियों की मुनि परम्परा को सूत्रपात किया। इसी प्रकार आर्यिकाओं के लिए। इसके पीछे कारण यही रहा होगा, इनके गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी बालब्रह्मचारी आचार्य थे। उसी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले गुरुदेव हैं, क्योंकि जो गृहस्थी बसाकर गृहस्थी का त्याग करके श्रमण बनना चाहता है लेकिन आदेश का पूर्णतः पालन करने में सक्षम नहीं हो पाता क्योंकि जिसने अपने जीवन के अधिकतम समय को आदेश देने में बिता दिया हो फिर वह दूसरों के आदेश में रह नहीं पाता। इसलिए ऐसे आवकों के लिए उदासीन आश्रम में भेज देते हैं। बालब्रह्मचारियों को उनकी योग्यता अनुसार संघ में या अन्यत्र स्थान पर भेज देते हैं। अवसर आने पर रत्नत्रय प्रदान कर मुनिधर्म की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखते हैं, जो मुनिधर्म का पालन करते हैं। उस मुनिपने में ही जीते रहते हैं, मोह को विनष्ट करने वाला ही मुनि होता है और यही मुमुक्षु बनने की योग्यता रखता है। चेतन में समा जाना, आत्मा में रहे आने वाला ही स्वभाव की प्राप्ति करने वाला ही मुमुक्षु होता है। श्रमणों की परम्परा ही मुमुक्षु बनने की योग्यता के पथ का प्रदर्शन करने वाला है।५० वर्ष में बाह्य और अभ्यन्तर से एक श्रमण ने आचार्य गुरुदेव ने मुमुक्षुपने का संदेश देकर नामधारी मुमुक्षुओं को सावधान करके श्रमण परम्परा को बनाये रखा है।