व्यक्ति के जीवन में दो धारायें चला करती हैं, एक शुभ की और एक अशुभ की। जो लोग लाभ-हानि के जानकार होते हैं, वे कभी भी अशुभ तत्त्व का चुनाव नहीं करते। लाभ को चाहने वाला जब भी चयन करेगा या पसन्द करेगा तो शुभ तत्त्व को ही करेगा। शुभ तत्त्व श्रुत का चिन्तन करना, मनन करना, आत्म धारणा में समा लेना, पर्याय बुद्धि को छोड़ आत्म बुद्धि में समा जाना। श्रुत ही संयमी जनों का मोक्षमार्ग के पथ का पाथेय है। कभी आत्मा को खुराक की जरूरत पड़ती है। प्रभु और गुरु के द्वारा प्राप्त श्रुत के तत्त्व को निकालकर शुभ में प्रवर्तमान हो जाते हैं। जब शुभ की आवश्यकता नहीं समझते तो शुद्ध ध्यान का आलम्बन ले स्वभाव में लीन हो चेतना में गुणों से युक्त हो श्रुत का प्रसारण ध्यान की मुद्रा के द्वारा निवृत्तात्मक क्रिया से प्रदान करते हैं। श्रुत का मतलब शास्त्र को लेकर बैठकर स्वाध्याय करने का नाम वही है, जिस श्रुत का दिनभर में स्वाध्याय किया है, उसे विशेषकर रात को निद्रा न लेकर श्रुत के चिन्तन में लीन हो जाना। जैसे पशु दिन में जो भोजन किया है, रात को वह खाये हुए भोजन की जुगाली करता है। ठीक इसी प्रकार गुरुदेव दिनभर के प्रश्नों का समाधान रात में सहज ही चिन्तन की धारा के द्वारा प्राप्त कर लेते हैं, वे रात में स्वाध्याय नहीं करते चिन्तन करते हैं इसलिए वे दुनियाँ की नजरों में शुभ चिन्तक दार्शनिक संतों की श्रेणी में गिने जाते हैं। इसलिए शिष्य-शिष्याओं को यही शिक्षा देते हैं, जितना भी स्वाध्याय दिनभर में किया जाता है, उसे खाली समय में चिन्तन का विषय बनाये रखें, यदि लेखन में गति है तो उसे प्रगतिमान बनाये रखें। यह सब उपयोग की शुद्धता के शुभ साधन हैं। उपयोग में अशुद्ध तत्त्व के प्रवेशीकरण को रोकने के लिए शुभ के चिन्तन का ५० वर्षों से आयाम चल रहा है, यही गुरुदेव की जिनवाणी के लिए शुभ के चिन्तन की धारा रही है।