कानून की धारा में भाषा बिन्दुओं से बँधकर चलती है। एक-एक पॉइन्ट महत्त्वपूर्ण होता है। वकील के उस एक बिन्दु पर ही जज अपना निर्णय सुनाता है, जितना प्रश्न महत्त्वपूर्ण होता है उतना ही समाधान। कम शब्दों में अधिक प्रभावपूर्ण शब्दों का प्रयोग करना ही हितकारी, मितकारी माना जाता है। मृदु भाषा नहीं होने वाले कार्य में सफलता का कारण बनती है, लेकिन मृदुता में ध्यान रखें वक्रता न छिपी हो, जिसे माया का भाव या माया कषाय कहते हैं , कषाय से रहित भाषा का प्रयोग आत्महितकारी व्यक्तित्व के द्वारा ही सम्पादित होते हैं। कई बार साधक साधना में लगे होते हैं तो वचन का प्रयोग न करके काय के प्रयोग से अर्थात् इशारे से कार्य का सम्पादन करते हैं। शब्दों के अनर्थदण्ड का ख्याल रखना ही वचन गुप्ति की प्राप्ति में साधक कारण बन सकता है। आज के युग में मोबाइल से शब्दों का अनर्थ ज्यादा हो रहा है। जिसे गुरुदेव ने अपने ब्रह्मचारियों को मोबाइल के प्रयोग के लिए निषेधात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं। उनका हितोपदेश संसारी प्राणी के लिए यही होता है, संसार में रहकर निर्वेग और संवेग भाव को प्राप्त हो वैराग्य के पथ की ओर आने पर भाषा मौन हो जाती है क्योंकि आत्मा की भाषा समझने में आने लगती है, जो आत्मा की भाषा को सुनने का अभ्यासी होता है। वह व्यवहार जगत् में आने पर हित-मित-प्रिय भाषा ही बोलता है क्योंकि आदेश लोगों के लिए शत्रुवत् हो सकता है। बार-बार आदेश माँगने पर एक बार हाँ कहना भी मुश्किल-सा जान पड़ता है। शब्दों की कंजूसी यह लोभ कषाय नहीं है, यह आत्म साधना का साधन है। शब्दों के पाप से आत्मा को बचाना। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने सहज रीति से प्रीति के साथ निर्वाह किया है, जिसे जैन जगत् जानता है।