आगम का प्रवाहमान मार्ग सूत्रों की धाराओं के रूप में चला आ रहा है। सूत्रों का ज्ञान गुरु परम्परा से शिष्य को प्राप्त होता है। आचार्यश्री को आचार्य ज्ञानसागरजी से जैन आगम के सूत्र प्राप्त हुए। जो समयसमय पर रहस्यों को उद्घाटित करते रहते हैं। बहुत समय से मंगतराय की बारह भावना का पठन-पाठन समाज एवं साधु संघों में चला आ रहा था। धर्म भावना में शब्दावली की समायोजना उचित नहीं जान पड़ने से गुरुदेव ने उचित शब्दों को वहाँ स्थान प्रदान किया। इसी प्रकार दौलतरामजी छहढाला में छठवीं ढाल में जहाँ मुनियों के धर्म का वर्णन है। षट्आवश्यक के प्रसंग में कुछ कमी इस प्रकार रही श्रुति के स्थान प्रत्याख्यान को गुरुदेव ने स्थान प्रदान किया। इसी प्रकार उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र में भाण्ड शब्द कहीं-कहीं पर प्रयोग न देखकर गुरुदेव ने कहा-यह शब्द तो अवश्य ही होना चाहिए क्योंकि ये दस प्रकार के परिग्रह में आते हैं। इसी प्रकार अमितगति आचार्य द्वारा रचित सामायिक पाठ के एक शब्द में कमी देखकर वहाँ उचित शब्द को स्थान देना, धवला, जयधवला की वाचना के समय कई ऐसे प्रसंग आने पर गुरुदेव ने कहा-यह है रहस्य की बात। जैसे गोत्र कर्म का प्रसंग ऊँच-नीच गोत्र को लेकर, इसी प्रकार नरक की व्याख्या को लेकर और भी बहुत से सूत्र पाठों के सही अर्थ को संघ एवं विद्वानों के सामने रखा। यही शब्दों से रहस्यों को निकालकर मिथ्या भ्रम को नष्ट करने की क्षमता के धारक गुरुदेव ५० वर्षों से श्रुत के उन ग्रन्थों को समाज के सामने लाकर रखा, जिन्हें कभी किसी ने देखा नहीं, सुना नहीं, न पढ़ने की योग्यता, इसलिए गुरुदेव ने अपने पात्र तत्त्व का प्रयोग करते हुए जिनवाणी का दान करते हुए षट्खण्डागम, कषायपाहुड, धवल, जयधवल, महाधवला आदि की वाचनाओं के माध्यम से सूत्र ग्रन्थों को स्थान देकर नये अर्थों का दिग्दर्शन कराने वाले रहस्योद्घाटक गुरुदेव जयवंत हों। जयशील हों। जिनवाणी के अनुरूप हों, अपने स्वरूप में हों।