जीवन जीने की सार्थकता तब सिद्ध होती है जब जीव आत्मा व्रतों के सहित होती है बाकी का जीवन तो संसार में घुमाने वाला ही है। हिंसा का त्यागकर, वाणी में सत्य का प्रयोग कर, बिना वस्तु के दिये ग्रहण न कर, आत्मा को वासना से रहित कर ब्रह्म की उपासना में लगा, परिग्रह से दूरियाँ तय करने वाला ही संसार से पार करने की यात्रा पाँच महाव्रतों के साथ तय हो पाती है। ऐसी ही विचारणा के चारित्र के साथ व्रतों से संकल्पित दीक्षा को धारण कर चलने वाले गुरुदेव हैं। वे जब भी चलते हैं, ईर्यासमिति से चार हाथ देखकर, जब भी बोलते हैं। भाषासमिति के साथ, शास्त्र और धर्म के विरुद्ध विवेक रहित निष्ठुर वचन कभी नहीं बोलते। एषणा समिति का पालन करते हुए लोक निंदा से रहित विशुद आहार को सुर्य के आलोक में एक ही बार अल्प आहार ग्रहण करते हैं। निक्षेपण और आदान समिति को वह आँख से देखकर तथा पिच्छिका से शोधकर यत्नपूर्वक अपने उपकरण को उठा रखा करते हैं। प्रतिस्थापना समिति का जन्तु रहित स्थान पर मल-मूत्र का त्याग करके पालन करते हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समितियों का पालन करते हुए आगे बढ़ते चल रहे हैं। ‘राग रहितोऽहं' के सूत्र के अनुसार मनोगुप्ति का पालन करते हुए मौन रहकर ही वचन गुप्ति का पालन करते हैं। असत्य अभिप्रायों को मौन के द्वारा रोक देते हैं। ध्यान और चिन्तन की धारा में वचनों के व्यापार को रोककर वचन गुप्ति का पालन करते हैं। काय के द्वारा कायोत्सर्ग की मुद्रा को धारण कर चेष्टा रहित, प्रवृत्ति को रोककर काय गुप्ति में रहना, हिंसा आदि से निवृत्त रहना, शरीर जन्य गुप्ति है। जिसके द्वारा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र रक्षित होते हैं। आठ प्रवचन मातायें आपकी रक्षा के लिये सदा तत्पर रहती हैं। इन ५० वर्षों में आचार्यश्री ने ऐसा ही लिखा-बोला जो पढ़ने और सुनने लायक रहा। उनके इन तेरह प्रकार के चारित्र के पालन के कारण अब उनकी जीवनी लिखने लखने लायक बन शोभित हो रही है।