ज्ञान व्यापक शब्द है। सम्यग्ज्ञान दीपक लेकर खोज करने वाला है। सम्यग्ज्ञान मर्यादाओं और नियमावली से बँधा होता है। यही ज्ञान आत्मा से परमात्मा बना देता है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक हुए, बड़ा-बड़ा ज्ञान उनके पास था लेकिन वह सम्यक् न होने से वह आत्मा व परमात्मा के भेद को नहीं समझ पाये। आचार्य गुरुदेव कालाचार के पालक हैं कभी भी सन्धिकाल में स्वाध्याय नहीं करते यही उनकी काल की मर्यादा है। विनयाचार शास्त्र के प्रति उनकी विनय अद्-भुत है, जब भी जिनवाणी भेंट की जाती है, वे तत्काल हाथ जोड़ लेते हैं या संघ में जब अपने स्थान से अन्य स्थान के लिए जाते हैं तो रास्ते में सिद्धान्त ग्रन्थों के दर्शन होते ही पिच्छिका उठाकर विनयाचार का पालन करते हैं। उपमानाचार-सिद्धान्त ग्रन्थों की वाचना के समय उसे त्याग के साथ वाचना को पूर्ण करना यह उनका अपना गुण है। बहुमानाचार-ग्रन्थों का बहुमान सम्मान अपने से जिनवाणी को उच्च आसन प्रदान करना। जब श्रावकों के द्वारा जिनवाणी को सिर पर रखकर लाया जाता है तो उस समय सम्मान भरी दृष्टि से देख नतमस्तक हो जाना। यही उनकी बहुमानता का गुण है। अनिह्नवाचार-आचार्य गुरुदेव अपने गुरु से प्रत्येक क्षण अपने को उपकृत मानते हैं, वे कभी भी गुरु के नाम को नहीं छिपाते और यही कहते हुए पाये जाते हैं, जो कुछ भी ज्ञान है वो सब गुरुदेव का दिया गया ज्ञान है। व्यंजनाचार-पाठ करते समय पढ़ाते समय व्यंजन और मात्रा के उच्चारण का ध्यान रख शुद्ध पाठ ही बोलते हैं। अर्थाचार-कभी भी वे अर्थ का अनर्थ नहीं करते। जहाँ जैसा अर्थ है वैसा ही अर्थ निकालते हैं। उभयाचार-इसी प्रकार व्यंजन, मात्रा, अर्थ दोनों को दृष्टि में रखकर व्याख्यान, वाचना करने वाले उभयाचार हैं। ५० वर्षों से ज्ञान के आठ अंगों से सुशोभित बने रहे।