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  1. अब तिर्यञ्चों की स्थिति बतलाते हैं- तिर्यग्योनिजानां च ॥३९॥ अर्थ - तिर्यञ्चों की भी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। English - These are the same for the animals. विशेषार्थ - तिर्यञ्च तीन प्रकार के होते हैं- एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय। एकेन्द्रियों में शुद्ध पृथ्वीकायिक जीवों की आयु बारह हजार वर्ष होती है। खर पृथ्वीकाय की आयु बाईस हजार वर्ष होती है। जलकायिक जीवों की आयु सात हजार वर्ष, वायुकायिक की तीन हजार वर्ष और वनस्पतिकायिक की दस हजार वर्ष उत्कृष्ट आयु होती है। अग्निकायिक की आयु तीन दिन रात होती है। विकलेन्द्रियों में, दो इन्द्रियों की उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष, तेइन्द्रियों की उनचास रात दिन और चौइन्द्रियों की छह मास होती है। पञ्चेन्द्रियों में जलचर जीवों की उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि, गोधा/नकुल वगैरह की नौ पूर्वांग, सर्पो की बयालीस हजार वर्ष, पक्षियों की बहत्तर हजार वर्ष और चौपायों की तीन पल्य होती है। तथा सभी की जघन्य आयु एक अन्तर्मुहूर्त की होती है। ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
  2. आगे मनुष्यों की आयु बतलाते है- नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥३८॥ अर्थ - मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। English - The maximum and the minimum periods of the lifetime of human beings are three palyas and antarmuhurta. विशेषार्थ - प्रमाण दो प्रकार का होता है - एक संख्या रूप दूसरा उपमा रूप जिसका आधार एक, दो आदि संख्या होती है, उसे संख्याप्रमाण कहते हैं। और जो संख्या के द्वारा न गिना जाकर किसी उपमा के द्वारा आंका जाता है, उसे उपमा प्रमाण कहते हैं। उसी का भेद पल्य है। पल्य गड्डे को कहते हैं। उसमें तीन भेद हैं - व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य, अद्धा पल्य। एक योजन लम्बा चौड़ा और एक योजन गहरा गोल गड्ढा खोदो। एक दिन से लेकर सात दिन तक के जन्में हुए भेड़ के बालों के अग्रभागों को कैची से इतना बारीक काटो कि फिर उन्हें काट सकना सम्भव न हो। उन बालों के टुकड़ों से उस गड्ढे को खूब ठोक कर मुँह तक भर दो। उसे व्यवहार पल्य कहते हैं। इस व्यवहार पल्य के रोमों में से सौ सौ वर्ष के बाद एक एक रोम निकालने पर जितने काल में वह गड्डा रोमों से खाली हो जाये, उतने काल को व्यवहार पल्योपम काल कहते हैं। व्यवहार पल्य के रोमों में से प्रत्येक रोम के बुद्धि के द्वारा इतने टुकड़े करो जितने असंख्यात कोटि वर्ष के समय होते हैं। और फिर उन रोमों के एक योजन लम्बे चौडे और एक योजन गहरे गड्ढे को भर दो। उसे उद्धार पल्य कहते हैं। उसमें से प्रतिसमय एक-एक रोम निकालने पर जितने काल में वह गड्डा रोमों से शून्य हो जाये, उतने काल को उद्धार पल्योपम कहते हैं। उद्धार पल्य के रोमों में से प्रत्येक रोम के कल्पना के द्वारा पुनः इतने टुकड़े करो जितने सौ वर्ष के समय होते हैं। और उन रोमों से पुनः उक्त विस्तार वाले गड्डे को भर दो। उसे अद्धापल्य कहते हैं। उस अद्धापल्य के रोमों में से प्रति समय एक एक रोम निकालने पर जितने काल में गड्डा खाली हो, उतने काल को अद्धा पल्योपम कहते हैं। इन तीन पल्यों में से पहला व्यवहार पल्य तो केवल दो पल्यों के निर्माण का मूल है, उसी के आधार पर उद्धार पल्य और अद्धा पल्य बनते हैं। इसी से उसे व्यवहार पल्य का नाम दिया गया है। उद्धार पल्य के रोमों के द्वारा द्वीप और समुद्रों की संख्या गिनी जाती है। और अद्धा पल्य के द्वारा नारकियों की, तिर्यञ्चों की, देवों और मनुष्यों की आयु कर्मों की स्थिति आदि जानी जाती है। इसी से इसे अद्धापल्य कहते हैं, क्योंकि ‘अद्धा' नाम काल का है। दस कोड़ा कोड़ी अद्धा पल्य का एक अद्धा सागर होता है और दस अद्धा सागर का एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी काल होता है।
  3. अब कर्मभूमियाँ बतलाते हैं। भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्रदेवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥३७॥ अर्थ - पाँच भरत, पाँच ऐरावत और देवकुरु तथा उत्तर कुरु के सिवा शेष पाँच विदेह, ये पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं। पाँच हैमवत, पाँच हरिवर्ष, पाँच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु, पाँच रम्यक्, पाँच हैरण्यवत्; ये तीस भोगभूमियाँ हैं। English - Bharata, Airavata, and Videha excluding Devakuru and Uttarakuru, are the regions of labor. इनमें से दस उत्कृष्ट भोगभूमि हैं, दस मध्यम हैं और दस जघन्य हैं। इनमें दस प्रकार के कल्पवृक्षों के द्वारा प्राप्त भोगों का ही प्राधान्य होने से इन्हें भोगभूमि कहते हैं। तथा भरतादिक पन्द्रह कर्मभूमि क्षेत्रों में बड़े से बड़ा पाप कर्म और बड़े से बड़ा पुण्य कर्म अर्जित किया जा सकता है, जिससे जीव मरकर सातवें नरक में और सर्वार्थसिद्धि में भी जा सकता है। तथा इन क्षेत्रों में षट् कर्मों के द्वारा आजीविका की जाती है। इसलिए कर्म की प्रधानता होने से इन्हें कर्मभूमि कहते हैं।
  4. आगे मनुष्यों के दो भेद बतलाते हैं- आर्या म्लेच्छाश्च ॥३६॥ अर्थ - मनुष्य दो प्रकार के हैं - आर्य और म्लेच्छ। English - The human beings are of two types i.e. civilized people and the barbarians. विशेषार्थ - आर्य मनुष्य भी दो प्रकार के हैं- एक ऋद्धिधारी और दूसरे बिना ऋद्धि वाले। जो आठ प्रकार की ऋद्धियों में से किसी एक ऋद्धि के धारी होते हैं, उन्हें ऋद्धिप्राप्त आर्य कहते हैं। और जिनको कोई ऋद्धि प्राप्त नहीं है, वे बिना ऋद्धि वाले आर्य कहलाते हैं। बिना ऋद्धि वाले आर्य पाँच प्रकार के होते है- क्षेत्र आर्य, जाति आर्य, कर्म आर्य, चारित्र आर्य और दर्शन आर्य। काशी कोशल आदि आर्य क्षेत्रों में जन्म लेने वाले मनुष्य क्षेत्र-आर्य हैं। इक्ष्वाकु, भोज, आदि वंशों में जन्म लेने वाले मनुष्य जाति आर्य हैं। कर्म आर्य तीन प्रकार के होते हैं सावद्य-कर्म-आर्य, अल्प सावद्य-कर्म-आर्य और असावद्य कर्म आर्य। सावद्य कर्म आर्य छह प्रकार के होते हैं। जो तलवार आदि अस्त्रशस्त्रों के द्वारा रक्षा अथवा युद्ध आदि करने की जीविका करते हैं, वे असिकर्म आर्य हैं। जो आयव्यय आदि लिखने की आजीविका करते हैं, वे मसिकर्म आर्य हैं। जो खेती के द्वारा आजीविका करते हैं, वे कृषिकर्म आर्य हैं। जो विविध कलाओं में प्रवीण हैं और उनसे ही आजीविका करते हैं वे विद्याकर्म आर्य हैं। धोबी, नाई, कुम्हार, लुहार, सुनार वगैरह शिल्पकर्म आर्य हैं। वणिज्/व्यापार करने वाले वणिक्-कर्म आर्य हैं। ये छहों सावद्य कर्मार्य होते हैं। उनमें जो अणुव्रती श्रावक होते हैं, वे अल्प सावद्य कर्मार्य होते हैं। और पूर्ण संयमी साधु असावद्य कर्मार्य होते हैं। चारित्र आर्य दो प्रकार के होते हैं- एक, जो बिना उपदेश के स्वयं ही चारित्र का पालन करते हैं और दूसरे, जो पर के उपदेश से चारित्र का पालन करते हैं। सम्यग्दृष्टि मनुष्य दर्शन आर्य हैं। ऋद्धि प्राप्त आर्यों के भी आठ प्रकार की ऋद्धियों के अवांतर भेदों की अपेक्षा से बहुत से भेद हैं। जो विस्तार के भय से यहाँ नहीं लिखे हैं। म्लेच्छ दो प्रकार के होते हैं- अन्तद्वपज और कर्मभूमिज। लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र के भीतर जो छयानवे द्वीप हैं, उनके वासी मनुष्य अन्तद्वपज म्लेच्छ कहे जाते हैं। उनकी आकृति आहार विहार सभी असंस्कृत होता है। तथा म्लेच्छ खण्डों के अधिवासी मनुष्य कर्मभूमिज म्लेच्छ कहे जाते हैं। आर्य खण्ड में भी जो भील आदि जंगली जातियाँ बसती हैं, वे भी म्लेच्छ ही हैं।
  5. अब बतलाते हैं कि भरत आदि क्षेत्रों की रचना आधे ही पुष्कर द्वीप में क्यों है? समस्त पुष्कर द्वीप में क्यों नहीं है ? प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥३५॥ अर्थ - मानुषोत्तर पर्वत से पहले ही मनुष्य पाये जाते हैं अर्थात् जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड और आधे पुष्कर द्वीप पर्यन्त ही मनुष्यों का आवास है। इन अढाई द्वीपों से बाहर कोई भी ऋद्धिधारी या विद्याधर मनुष्य तक नहीं जा सकता। इसी से मानुषोत्तर पर्वत के बाहर के द्वीपों में क्षेत्र वगैरह की रचना भी नहीं पायी जाती है। English - There are human beings up to Manushottara as human beings can not go beyond this mountain.
  6. आगे पुष्करवर द्वीप का वर्णन करते हैं- पुष्करार्द्धे च ॥३४॥ अर्थ - आधे पुष्करवर द्वीप में भी भरत आदि क्षेत्र तथा हिमवन् आदि पर्वत दो-दो हैं। English - Pushkaradvipa is divided into two halves by the Manushottara mountain. Half of Puskaradvipa towards Dhatakikhanda also has regions, mountains, lakes, rivers etc. twice that in Jambudvipa. विशेषार्थ - पुष्करवर द्वीप के बीच में चूड़ी के आकार का एक मानुषोत्तर पर्वत पड़ा हुआ है। उसके कारण द्वीप के दो भाग हो गये हैं। इसी से आधे पुष्करवर द्वीप में ही भरत आदि की रचना बतलायी है। पुष्करार्ध में दक्षिण और उत्तर दिशा में दो इष्वाकार पर्वत हैं, जो एक ओर कालोदधि को छूते हैं तो दूसरी ओर मानुषोत्तर पर्वत को छूते हैं। इससे द्वीप के दो भाग हो गये हैं- एक पूर्व पुष्करार्ध और दूसरा पश्चिम पुष्कराई। दोनों भागों के बीच में एक-एक मेरु पर्वत है। और उनके दोनों ओर भरत आदि क्षेत्र व पर्वत हैं। जहाँ जम्बूद्वीप में जम्बूवृक्ष है, वहीं पुष्करार्ध में परिवार सहित पुष्कर वृक्ष है। उसी से द्वीप का नाम पुष्कर द्वीप पड़ा है।
  7. आगे धातकी खण्ड द्वीप की रचना बतलाते हैं- द्विर्धातकीखण्डे ॥३३॥ अर्थ - धातकी खण्ड द्वीप में भरत आदि क्षेत्र दो-दो हैं। English - In Dhatakikhanda regions, mountains, lakes, rivers etc are twice that in Jambudvipa. विशेषार्थ - धातकी खण्ड की दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा में दो इष्वाकार पर्वत हैं। वे दोनों पर्वत इषु यानि बाण की तरह सीधे और दक्षिण से उत्तर तक लम्बे हैं। उनकी लम्बाई द्वीप के बराबर यानि चार लाख योजन है। इसी से वे एक ओर लवण समुद्र को छूते हैं तो दूसरी ओर कालोदधि समुद्र को छूते हैं। उनके कारण धातकी खण्ड के दो भाग हो गये हैं - एक पूर्व भाग, दूसरा पश्चिम भाग दोनों भागों के बीच में एकएक मेरु पर्वत है। और उनके दोनों ओर भरत आदि क्षेत्र तथा हिमवन् आदि पर्वत हैं। इस तरह वहाँ दो भरत, दो हिमवन् आदि हैं। उनकी रचना गाड़ी के पहिये की तरह है। जैसे गाड़ी के पहिये में जो डंडे लगे रहते हैं, जिन्हें अर कहते हैं, उनके समान तो हिमवन् आदि पर्वत हैं। वे पर्वत सर्वत्र समान विस्तार वाले हैं। और अरों के बीच में जो खाली स्थान होता है, उसके समान भरत आदि क्षेत्र हैं। वे क्षेत्र कालोदधि के पास में अधिक चौड़े हैं। और लवण समुद्र के पास में कम चौड़े हैं। जम्बूद्वीप में जिस स्थान पर जामुन का पार्थिव वृक्ष है, धातकीखण्ड में उसी स्थान पर धातकी (धतूरा) का एक विशाल पार्थिव वृक्ष है। उसके कारण द्वीप का नाम धातकी खण्ड पड़ा है। धातकीखण्ड को घेरे हुए कालोदधि समुद्र है। उसका विस्तार आठ लाख योजन है और कालोदधि को घेरे हुए पुष्करवर द्वीप है। उसका विस्तार सोलह लाख योजन हैं।
  8. आगे दूसरी तरह से भरतक्षेत्र का विस्तार बतलाते हैं- भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः ॥३२॥ अर्थ - जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। उसमें एक सौ नब्बे का भाग देने पर एक भाग प्रमाण भरतक्षेत्र का विस्तार है। जो पहले बतलाया है। English - The width of Bharata is one hundred and ninetieth part of that of Jambudvipa. विशेषार्थ - पहले भरतक्षेत्र का विस्तार पाँच सौ छब्बीस सही ६/ १९ योजन बतलाया गया है। सो जम्बूद्वीप के एक लाख योजन विस्तार का एक सौ नब्बेवां भाग है। क्योंकि जम्बूद्वीप सात क्षेत्रों और छह पर्वतों में बँटा हुआ है। उसमें भरत का एक भाग, हिमवन् के दो भाग, हैमवत के चार भाग, महाहिमवन् के आठ भाग, हरिवर्ष के सोलह भाग, निषध पर्वत के बत्तीस भाग, विदेह के चौंसठ भाग, नील पर्वत के बत्तीस भाग, रम्यक के सोलह भाग, रुक्मी पर्वत के आठ भाग, हैरण्यवत क्षेत्र के चार भाग, शिखरी पर्वत के दो भाग और ऐरावत का एक भाग है। इन सब भागों का जोड़ १९० होता है। इस तरह जम्बूद्वीप का वर्णन समाप्त हुआ। जम्बूद्वीप को घेरे हुए लवण समुद्र है। उसका विस्तार सब ओर दो लाख योजन है। लवण समुद्र को घेरे हुए धातकी खण्ड नाम का द्वीप है। उसका विस्तार सब ओर चार लाख योजन है।
  9. आगे विदेहक्षेत्र की स्थिति बतलाते हैं- विदेहेषु संख्येयकालाः ॥३१॥ अर्थ - पाँचों मेरु सम्बन्धी पाँच विदेह क्षेत्रों में मनुष्यों की आयु संख्यात वर्ष की होती है। English - In Videhas the lifetime is numberable years, ranging from seventy lakh fifty-six thousand crore years (this is a period anywhere from) a little less than forty-eight minutes to little more than one instant body height 500 Dhanush and take food daily. These conditions correspond to the end of the third period of degeneration lq"eknq" "kek" विशेषार्थ - पाँचों विदेहों में सदा सुषमादुषमा काल की सी दशा रहती है। मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई अधिक से अधिक पाँच सौ धनुष होती है। प्रतिदिन भोजन करते हैं। उत्कृष्ट आयु एक कोटी पूर्व की है। और जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त की है। पूर्व का प्रमाण इस प्रकार कहा है चौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वांग होता है और चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व होता है। अतः चौरासी लाख को चौरासी लाख से गुणा करने पर ७०५६०००००००००० संख्या आती है; इतने वर्षों का एक पूर्व होता है। ऐसे एक कोटिपूर्व की आयु कर्मभूमि में होती है।
  10. तथोत्तराः ॥३०॥ अर्थ - दक्षिण जम्बूद्वीप के क्षेत्रों की जैसी स्थिति है, वैसी ही उत्तर जम्बूद्वीप के क्षेत्रों की जाननी चाहिए। English - The condition is the same in the north. अर्थात् हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों की स्थिति हैमवत क्षेत्र के मनुष्यों के समान है। रम्यक क्षेत्र के मनुष्यों की स्थिति हरिवर्ष क्षेत्र के मनुष्यों के समान है। और उत्तरकुरु के मनुष्यों की स्थिति देवकुरु के मनुष्यों के समान है।
  11. इन क्षेत्रों के मनुष्यों की आयु बतलाते हैं एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्षकदैवकुरवकाः ॥२९॥ अर्थ - हैमवत क्षेत्र के मनुष्यों की आयु एक पल्य की है। हरिवर्ष क्षेत्र के मनुष्यों की आयु दो पल्य की है। और देवकुरु के मनुष्यों की आयु तीन पल्य की है। English - The lifespan of the human beings in Haimavata, Hari, and Devakuru (an area in the south of the Sumeru) are one, two and three palyas respectively; body height is 2000, 4000 and 6000 Dhanush (1000 Dhanush equal to 1 mile) respectively; take food after one, two and three days respectively; colour of the body is blue, white and golden respectively. These conditions reflect the third �lq"eknq" "kek" second �lq"Ek" and first �lq"eklq" ek" periods respectively of the degeneration aeon (Avsarpini). विशेषार्थ - इन तीनों क्षेत्रों में सदा भोगभूमि रहती है। भोगभूमि के मनुष्य सदा युवा रहते हैं। उन्हें कोई रोग नहीं होता और न मरते समय कोई वेदना ही होती है। बस पुरुषों को जंभाई और स्त्री को छींक आती है और उसी से उनका मरण हो जाता है। मरण होने पर उनका शरीर कपूर की तरह उड़ जाता है। भोगभूमि में न पुण्य होता है और न पाप हाँ, किन्हीं को सम्यक्त्व अवश्य होता है। मरण होने पर सम्यग्दृष्टि तो सौधर्म या ईशान स्वर्ग में देव होते हैं और मिथ्यादृष्टि भवनत्रिक में जन्म लेते हैं। वहाँ के पशु भी मरकर देव होते हैं। उनमें परस्पर में ईर्ष्या द्वेष नहीं होता। सूर्य की गर्मी पृथ्वी तक न आ सकने के कारण वर्षा भी नहीं होती। कल्पवृक्षों के द्वारा प्राप्त वस्तुओं से ही मनुष्य अपना जीवन निर्वाह सानन्द करते हैं। वहाँ न कोई स्वामी है और न सेवक, न कोई राजा है न प्रजा प्राकृतिक साम्यवाद का सुख सभी भोगते हैं। अब उत्तर जम्बूद्वीपों के क्षेत्रों की स्थिति बतलाते हैं |
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