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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. इस कथन में थोड़ा अपवाद करते हैं- अवीचारं द्वितीयम् ॥४२॥ अर्थ - किन्तु दूसरा शुक्लध्यान वीचार रहित है। अर्थात् पहला शुक्लध्यान तो वितर्क और वीचार दोनों से सहित है। किन्तु दूसरा शुक्लध्यान वितर्क से सहित है, पर वीचार से रहित है। English - The second type is free from shifting.
  2. अब आदि के दो शुक्लध्यानों का विशेष कथन करते हैं- एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥४१॥ अर्थ - आदि के दोनों शुक्लध्यान पूर्ण श्रुतज्ञानी के ही होते हैं, अतः दोनों का आधार एक ही है। तथा दोनों वितर्क और वीचार से सहित हैं। English - The first two types are based on one substratum and are associated with scriptural knowledge and shifting.
  3. अब शुक्लध्यान का आलम्बन बतलाते हैं- त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ॥४०॥ अर्थ - पहला शुक्लध्यान तीनों योगों में होता है। दूसरा शुक्लध्यान तीनों योगों में से एक योग में होता है। तीसरा शुक्लध्यान काय योग में ही होता है। English - These four types of pure concentrations are achieved by those having all the three activities (the mind, the speech, and the body), one activity, body activity, and no activity respectively.
  4. अब शुक्ल ध्यान के भेद बतलाते हैं- पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरत-क्रियानिवर्तीनि ॥३९॥ अर्थ - पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत क्रियानिवर्ति ये चार शुक्लध्यान के भेद हैं। ये सब नाम सार्थक हैं। इनका लक्षण आगे कहेंगे। English - The four types of pure concentration are that of many substances through the activity of mind, speech and body, that of one substance through the activity of mind, speech and body, that of subtle activity and that of complete destruction of activity.
  5. अब बाकी के दो शुक्लध्यान किसके होते हैं, यह बतलाते हैं- परे केवलिनः ॥३८॥ अर्थ - अन्त के दो शुक्लध्यान सयोग केवली और अयोग केवली के होते हैं। English - The last two types of pure meditation arise in the omniscient.
  6. अब शुक्लध्यान के स्वामी बतलाते हैं- शुक्लेचाद्धेपूर्वविदः ॥३७॥ अर्थ - आदि के दो शुक्लध्यान सकल श्रुत के धारक श्रुतकेवली के होते हैं। ‘च' शब्द से धर्मध्यान भी ले लेना चाहिए। अतः श्रेणी पर चढ़ने से पहले धर्मध्यान होता है और श्रेणी चढ़ने पर क्रम से दोनों शुक्लध्यान होते हैं। English - The first two types of pure meditation are attained by the saints well-versed in the purvas, the Shrutkevali.
  7. अब धर्मध्यान का स्वरूप व भेद बतलाते हैं- आज्ञापायविपाक-संस्थान-विचयायधर्म्यम् ॥३६॥ अर्थ - आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय ये धर्मध्यान के चार भेद हैं। अच्छे उपदेष्टा के न होने से, अपनी बुद्धि के मन्द होने से और पदार्थ के सूक्ष्म होने से जब युक्ति और उदाहरण की गति न हो तो ऐसी अवस्था में सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे गये आगम को प्रमाण मानकर गहन पदार्थ का श्रद्धान कर लेना कि “यह ऐसा ही है, आज्ञा विचय है। अथवा स्वयं तत्त्वों का जानकार होते हुए भी दूसरों को उन तत्त्वों को समझाने के लिये युक्ति दृष्टान्त आदि का विचार करते रहना, जिससे दूसरों को ठीक ठीक समझाया जा सके, आज्ञा विचय है; क्योंकि उसका उद्देश्य संसार में जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का प्रचार करना है। जो लोग मोक्ष के अभिलाषी होते हुए भी कुमार्ग में पड़े हुए हैं, उनका विचार करना कि कैसे वे मिथ्यात्व से छूटे, इसे अपाय विचय कहते हैं। कर्म के फल का विचार करना विपाक विचय है। लोक के आकार का तथा उसकी दशा का विचार करना संस्थान विचय है। ये धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले जीव के होते हैं। English - The virtuous meditation is of four types - concentration on realities (tattva) through pramana and naya, ways and means to help living beings to take the right belief, knowledge and conduct, fruition of karmas and the reasons thereof, and state of the universe.
  8. अब रौद्रध्यान के भेद और उनके स्वामियों को बताते हैं- हिंसानृत-स्तेय-विषय-संरक्षणेभ्योरौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३५॥ अर्थ - हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह संचय करने की चिन्ता करते रहने से रौद्रध्यान होता है। यह रौद्रध्यान पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान वालों के तथा देशविरत श्रावकों के होता है। किन्तु संयमी मुनि के नहीं होता; क्योंकि यदि कदाचित् मुनि को भी रौद्रध्यान हो जाये तो फिर वे संयम से भ्रष्ट समझे जायेंगे। English - Cruel meditation relating to injury, untruth, stealing and safeguarding of possessions occurs in the case of laymen with and without partial vows. शंका - जो व्रती नहीं हैं, उनके रौद्रध्यान भले ही हो, किन्तु देशव्रती श्रावक के कैसे हो सकता है? समाधान - श्रावक पर अपने धर्मायतनों की रक्षा का भार है, स्त्री, धन वगैरह की रक्षा करना अभीष्ट है, अत: इनकी रक्षा के लिए जब कभी हिंसा के आवेश में आ जाने से रौद्रध्यान हो सकता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि होने के कारण उसके ऐसा रौद्रध्यान नहीं होता, जो उसको नरक में ले जाये।
  9. अब आर्तध्यान किसको होता है, यह बतलाते हैं- तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानाम् ॥३४॥ अर्थ - वह आर्तध्यान अविरत यानि पहले, दूसरे, तीसरे और चतुर्थ गुणस्थान वालों के, देशविरत श्रावकों के और प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनियों के होता है। परन्तु प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनियों के निदान नहीं होता। बाकी के तीन आर्तध्यान प्रमाद के उदय से जब कभी हो जाते हैं। English - These sorrowful meditations occur in the case of laymen with and without small vows and non-vigilant ascetics.
  10. अब चौथा भेद कहते हैं- निदानं च ॥३३॥ अर्थ - भोगों की तृष्णा से पीड़ित होकर रात-दिन आगामी भोगों को प्राप्त करने की ही चिन्ता करते रहना निदान आर्तध्यान है। इस तरह आर्तध्यान के चार भेद हैं। English - Thinking about the fulfillment of the wishes for enjoyment is the fourth sorrowful meditation.
  11. तीसरा भेद कहते हैं- वेदनायाश्च ॥३२॥ अर्थ - वात आदि के विकार से शरीर में कष्ट होने पर रात-दिन उसी की चिन्ता करना वेदना नामक आर्तध्यान है। English - In the case of suffering from pain thinking continuously for its removal is the third type of sorrowful meditation.
  12. दूसरा भेद कहते हैं- विपरीतं मनोज्ञस्य ॥३१॥ अर्थ - पुत्र, धन, स्त्री आदि प्रिय वस्तुओं का वियोग हो जाने पर उनसे मिलन होने का बार-बार चिन्तन करना इष्ट-वियोग नामक आर्तध्यान है। English - Upon loss of a favorable object, thinking again and again for its repossession is the second kind of sorrowful meditation.
  13. आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥३०॥ अर्थ - विष, काँटा, शत्रु आदि अप्रिय वस्तुओं का समागम होने पर उनसे अपना पीछा छुड़ाने के लिए बार-बार चिंतन करना अनिष्टसंयोग नामक आर्तध्यान है। English - Upon receipt of a harmful object, thinking again and again for its removal is the first kind of sorrowful meditation.
  14. यही बात कहते हैं- परे मोक्षहेतू ॥२९॥ अर्थ - अन्त के धर्म्य और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं। इससे यह मतलब निकला कि आदि के आर्त और रौद्रध्यान संसार के कारण हैं। अब आर्तध्यान के भेद और उनके लक्षण कहते हैं English - The last two (the virtuous and the pure) are the causes of liberation.
  15. अब ध्यान के भेद कहते हैं- आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥२८॥ अर्थ - ध्यान के चार भेद होते हैं-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल इनमें से आदि के दो ध्यान अशुभ हैं, उनसे पाप का बन्ध होता है। शेष दो ध्यान शुभ हैं, उनके द्वारा कर्मों का नाश होता है ॥२८॥ English - The painful (sorrowful), the cruel, the virtuous (righteous) and the pure are the four types of meditation.
  16. अब ध्यान का वर्णन करते हैं- उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥२७॥ अर्थ - उत्तम संहनन के धारक मनुष्य का अपने चित्त की वृत्ति को सब ओर से रोक कर एक ही विषय में लगाना ध्यान है। यह ध्यान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। English - Concentration of thought on one particular object is meditation. In the case of a person with the best physical structure or constitution, it extends up to one muhurta. विशेषार्थ - आदि के तीन संहनन उत्तम हैं। वे ही ध्यान के कारण हैं। किन्तु उनमें से मोक्ष का कारण एक वज्रवृषभनाराच संहनन ही है। अन्य संहनन वाले का मन अन्तर्मुहूर्त भी एकाग्र नहीं रह सकता। शंका - यदि ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक ही हो सकता है तो आदिनाथ भगवान् ने छह मास तक ध्यान कैसे किया ? समाधान - ध्यान की सन्तान को भी ध्यान कहते हैं। अतः एक विषय में लगातार ध्यान तो अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। उसके बाद ध्येय बदल जाता है। और ध्यान की सन्तान चलती रहती है, अस्तु | इस सूत्र में तीन बातें बतलायी हैं - ध्याता, ध्यान का स्वरूप और ध्यान का काल। सो उत्तम संहनन का धारी पुरुष तो ध्याता हो सकता है। एक पदार्थ को लेकर उसी में चित्त को स्थिर कर देना ध्यान है। जब विचार का विषय एक पदार्थ न होकर नाना पदार्थ होते हैं, तब वह विचार ज्ञान कहलाता है। और जब वह ज्ञान एक ही विषय में स्थिर हो जाता है, तब उसे ही ध्यान कहते हैं। उस ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त होता है।
  17. अब व्युत्सर्ग तप के भेद कहते हैं- बाह्याभ्यन्तरोपध्योः॥२६॥ अर्थ - त्याग को ही व्युत्सर्ग कहते हैं। उसके दो भेद हैं- बाह्य उपधि त्याग और अभ्यन्तर उपधि त्याग। आत्मा से जुदे धन-धान्य वगैरह का त्याग करना बाह्य उपधि त्याग है और क्रोध, मान, माया आदि भावों का त्याग करना अभ्यन्तर उपधि त्याग है। कुछ समय के लिए अथवा जीवन भर के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना भी अभ्यन्तरोपधि त्याग ही कहा जाता है। इसके करने से मनुष्य निर्भय हो जाता है, वह हल्कापन अनुभव करता है तथा फिर जीवन की तृष्णा उसे नहीं सताती। English - Giving up external and internal attachments are two types of renunciations.
  18. अब स्वाध्याय तप के भेद कहते हैं- वाचना-पृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय-धर्मोपदेशाः ॥२५॥ अर्थ - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश- ये पाँच स्वाध्याय के भेद हैं। धर्म के इच्छुक विनयशील पात्रों को शास्त्र देना, शास्त्र का अर्थ बतलाना वाचना तथा शास्त्र भी देना और उसका अर्थ भी बतलाना वाचना है। संशय को दूर करने के लिए अथवा निश्चय करने के लिए विशिष्ट ज्ञानियों से प्रश्न करना पृच्छना है। जाने हुए अर्थ का मन से अभ्यास करना अर्थात् उसका बार-बार विचार करना अनुप्रेक्षा है। शुद्धता पूर्वक पाठ करना आम्नाय है। धर्म का उपदेश करना धर्मोपदेश है। इस तरह स्वाध्याय के पाँच भेद हैं। स्वाध्याय करने से ज्ञान बढ़ता है, वैराग्य बढ़ता है, तप बढ़ता है, व्रतों में अतिचार नहीं लगने पाता तथा स्वाध्याय से बढ़कर दूसरा कोई सरल उपाय मन को स्थिर करने का नहीं है। अतः स्वाध्याय करना हितकर है। English - Teaching, questioning, reflection, recitation, and preaching are the five types of study.
  19. अब वैय्यावृत्य तप के भेद कहते हैं- आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लान-गण-कुल-संघ साधु-मनोज्ञानाम् ॥२४॥ अर्थ - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ- इन दस प्रकार के साधुओं की अपेक्षा से वैय्यावृत्य के दस भेद हैं।जिनके पास जाकर सब मुनि व्रताचरण करते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। जिनके पास जाकर मुनिगण शास्त्राभ्यास करते हैं, उन्हें उपाध्याय कहते हैं। जो साधु बहुत व्रत, उपवास आदि करते हैं, उन्हें तपस्वी कहते हैं। जो साधु श्रुत का अभ्यास करते हैं, उन्हें शैक्ष कहते हैं। रोगी साधुओं को ग्लान कहते हैं। वृद्ध मुनियों की परिपाटी में जो मुनि होते हैं, उन्हें गण कहते हैं। दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य परम्परा को कुल कहते हैं। ऋषि, यति, मुनि और अनगार के भेद से चार प्रकार के साधुओं के समूह को संघ कहते हैं। अथवा मुनि, आर्यिका और श्रावक, श्राविका के समूह को संघ कहते हैं। बहुत समय के दीक्षित मुनि को साधु कहते हैं। जिसका उपदेश लोकमान्य हो अथवा जो लोक में पूज्य हो उस साधु को मनोज्ञ कहते हैं। इनको कोई व्याधि हो जाये या कोई उपसर्ग आ जाये या किसी का श्रद्धान विचलित होने लगे तो उसका प्रतिकार करना, यानि रोग का इलाज करना, संकट को दूर करना, उपदेश आदि के द्वारा श्रद्धान को दृढ़ करना वैय्यावृत्य है। English - Respectful service to the Head (Acharya), the preceptor, the ascetic, the disciple, the ailing ascetic, the congregation of aged saints, the congregation of disciples of a common teacher, the congregation of the four orders (of ascetic, nuns, laymen and laywomen), the long-standing ascetic and the ascetic of high reputation are the ten kinds of service.
  20. अब विनय तप के भेद कहते हैं- ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः ॥२३॥ अर्थ - ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनयये चार भेद विनय के हैं। आलस्य त्यागकर आदरपूर्वक सम्यग्ज्ञान का ग्रहण करना, अभ्यास करना आदि ज्ञान विनय है। तत्त्वार्थ का शंका आदि दोष रहित श्रद्धान करना दर्शन विनय है। अपने मन को चारित्र के पालन में लगाना चारित्र विनय है और आचार्य आदि पूज्य पुरुषों को देखकर उनके लिए उठना, सन्मुख जाकर हाथ जोड़कर वन्दना करना तथा परोक्ष में भी उन्हें नमस्कार करना, उनके गुणों का स्मरण वगैरह करना, उनकी आज्ञा का पालन करना, यह सब उपचार विनय है। English - Reverence to knowledge, faith, conduct and the custom of homage are the four kinds of reverence.
  21. अब प्रायश्चित्त के नौ भेद कहते हैं- आलोचन-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्गतपश्छेद परिहारोपस्थापनाः ॥२२॥ अर्थ - आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय यानि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना-ये नौ भेद प्रायश्चित्त के हैं। गुरु से अपने प्रमाद को निवेदन करने का नाम आलोचना है। वह आलोचना दस दोषों को बचाकर करनी चाहिए। वे दोष इस प्रकार हैं आचार्य अपने ऊपर दया करके थोड़ा प्रायश्चित्त दें, इस भाव से आचार्य को पिच्छिका-कमण्डलु आदि भेंट करके दोष का निवेदन करना आकम्पित दोष है। गुरु की बातचीत से प्रायश्चित्त का अनुमान लगाकर दोष का निवेदन करना अनुमापित दोष है। जो दोष किसी ने करते नहीं देखा, उसे छिपा जाना और जो दोष करते देख लिया, उसे गुरु से निवेदन करना दृष्ट दोष है। केवल स्थूल दोष का निवेदन करना, बादर दोष है। महान् प्रायश्चित के भय से महानु दोष को छिपा लेना और छोटे दोष का निवेदन करना सूक्ष्म दोष है। दोष निवेदन करने से पहले गुरु से पूछना कि महाराज! यदि कोई ऐसा दोष करे तो उसका क्या प्रायश्चित्त होता है, यह छन्न दोष है। प्रतिक्रमण के दिन जब बहुत से साधु एकत्र हुए हों और खूब हल्ला हो रहा हो उस समय दोष का निवेदन करना, जिससे कोई सुन न सके, शब्दाकुलित दोष है। गुरु ने जो प्रायश्चित्त दिया है, वह उचित है या नहीं, ऐसी आशंका से अन्य साधुओं से पूछना बहुजन नाम का दोष है। गुरु से दोष न कहकर अपने सहयोगी अन्य साधुओं से अपना दोष कहना अव्यक्त नाम का दोष है। और गुरु से प्रमाद का निवेदन न करके, जिस साधु ने अपने समान अपराध किया हो, उससे जाकर पूछना कि तुझे गुरु ने क्या प्रायश्चित दिया है, क्योंकि तेरे समान ही मेरा भी अपराध है, जो प्रायश्चित्त तुझे दिया है, वही मेरे लिये भी युक्त है, यह तत्सेवी नाम का दोष है। इस तरह दस दोष रहित प्रमाद का निवेदन करना आलोचना प्रायश्चित्त है। प्रमाद से जो दोष मुझसे हुआ है, वह मिथ्या हो इस तरह अपने किये हुए दोष के विरुद्ध अपनी मानसिक प्रतिक्रिया को प्रकट करना प्रतिक्रमण है। कोई अपराध तो केवल आलोचना से ही शुद्ध हो जाता है, कोई अपराध तो केवल प्रतिक्रमण से ही शुद्ध होता है और कोई आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से शुद्ध होता है, यही तदुभय प्रायश्चित है। सदोष आहार तथा उपकरणों का संसर्ग होने पर उसका त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त है। कुछ समय के लिए कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। अनशन आदि करना तप प्रायश्चित्त है। दीक्षा के समय को छेद देना, जैसे कोई बीस वर्ष का दीक्षित साधु है, अपराध करने के कारण उसकी दस वर्ष की दीक्षा छेद दी गई, अतः अब वह दस वर्ष का दीक्षित माना जायेगा और जो दस वर्ष से एक दिन अधिक के भी दीक्षित साधु हैं, उन्हें इसे नमस्कार करना होगा। यह छेद प्रायश्चित्त है। कुछ समय के लिए संघ से निकाल देना परिहार प्रायश्चित्त है। और पुरानी दीक्षा को छेदकर फिर से दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है। English - Confession, repentance, a combination of confession and repentance, discretion, giving up attachment to the body, penance, suspension, expulsion, and initiation are the nine types of expiration.
  22. इसके बाद इन अभ्यन्तर तपों के उप-भेदों की संख्या कहते हैं- नव-चतुर्दश-पञ्च-द्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥२१॥ अर्थ - प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं। विनय के चार भेद हैं। वैयावृत्य के दस भेद हैं। स्वाध्याय के पाँच भेद हैं और व्युत्सर्ग के दो भेद हैं। इस तरह ध्यान से पहले पाँच प्रकार के तपों के ये भेद हैं। English - These are of nine, four ten, five and two kinds of expiation, reverence, service, study, and renunciation respectively.
  23. अब अभ्यन्तर तप के भेद कहते हैं- प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ अर्थ - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यानये छह अभ्यन्तर तप हैं। ये तप मन को वश में करने के लिए किये जाते हैं, इसलिए उन्हें अभ्यन्तर तप कहते हैं। प्रमाद से लगे हुए दोषों को दूर करना प्रायश्चित्त तप है। पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है। शरीर वगैरह के द्वारा सेवा सुश्रुषा करने को वैयावृत्य कहते हैं। आलस्य त्याग कर ज्ञान का आराधन करना स्वाध्याय है। ममत्व के त्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। और चित्त की चंचलता के दूर करने को ध्यान कहते हैं। English - Expiation, reverence, service to ascetic, study, renunciation and meditation are the internal austerities.
  24. आगे तप का कथन करते हैं। तप के दो भेद हैं- बाह्यतप और अभ्यन्तर तप। इनमें से भी प्रत्येक के छह भेद हैं। पहले बाह्य तप के छह भेद कहते हैं- अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥१९॥ अर्थ - अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, ये छह बाह्यतप के भेद हैं। ख्याति, पूजा, मन्त्र-सिद्धि वगैरह लौकिक फल की अपेक्षा न करके, संयम की सिद्धि, राग का उच्छेद, कर्मों का विनाश, ध्यान तथा स्वाध्याय की सिद्धि के लिए भोजन का त्याग करना अनशन तप है। संयम को जागृत रखने के लिए, विकारों की शान्ति के लिए, सन्तोष और स्वाध्याय आदि की सुखपूर्वक सिद्धि के लिए अल्प आहार करना अवमौर्य तप है। जब मुनि भिक्षा के लिए निकलें तो घरों का नियम करना कि मैं आहार के लिए इतने घर जाऊँगा अथवा अमुक रीति से आहार मिलेगा तो लूँगा, इसे वृत्तिपरिसंख्यान तप कहते हैं। यह तप भोजन की आशा को रोकने के लिए किया जाता है। इन्द्रियों के दमन के लिए, निद्रा पर विजय पाने के लिए तथा सुखपूर्वक स्वाध्याय करने के लिए घी, दूध, दही, तेल, मीठा और नमक का यथायोग्य त्याग करना रस परित्याग तप है। ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि की सिद्धि के लिए एकान्त में शयन करना तथा आसन लगाना विविक्त शय्यासन तप है। कष्ट सहने के अभ्यास के लिए, आराम तलबी की भावना को दूर करने के लिए और धर्म की प्रभावना के लिए ग्रीष्म ऋतु में वृक्ष के नीचे ध्यान लगाना, शीत ऋतु में खुले मैदान में सोना, अनेक प्रकार के आसन लगाना आदि कायक्लेश तप है। बाह्य द्रव्य खान-पान आदि की अपेक्षा से ये तप किये जाते हैं तथा इन तपों का पता दूसरे लोगों को भी लग जाता है, इसलिये इन्हें बाह्य तप कहते हैं। English - The external austerities are fasting, reduced diet, special restrictions while accepting food from a household, giving up stimulating and delicious dishes, lonely habitation and mortification of the body. शंका - परीषह में और कायक्लेश तप में क्या अन्तर है ? समाधान - कायक्लेश स्वयं किया जाता है और परीषह अचानक आ जाते हैं।
  25. अब चारित्र के भेद कहते हैं- सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यातमिति चारित्रम् ॥१८॥ अर्थ - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात, इस तरह पाँच प्रकार का चारित्र है। समस्त सावद्ययोग का एकरूप त्याग करना सामायिक चारित्र है। सामायिक चारित्र से डिगने पर प्रायश्चित के द्वारा सावद्य व्यापार में लगे हुए दोषों को छेदकर पुनः संयम धारण करना छेदोपस्थापना चारित्र है। अथवा समस्त सावद्य योग का भेद रूप से त्याग करना छेदोपस्थापना चारित्र है। अर्थात् मैंने समस्त पाप कार्यों का त्याग किया। यह सामायिक चारित्र का रूप है और मैंने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का त्याग किया, यह छेदोपस्थापना चारित्र का रूप है। जिस चारित्र में प्राणीहिंसा की पूर्णनिवृत्ति होने से विशिष्ट विशुद्धि पायी जाती है, उसे परिहार विशुद्धि कहते हैं। जिसने अपने जन्म से तीस वर्ष की अवस्था तक सुखपूर्वक जीवन बिताया हो और फिर जिनदीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थंकर के निकट प्रत्याख्यान नाम के नौवें पूर्व को पढ़ा हो और तीनों सन्ध्या कालों को छोड़ कर दो कोस विहार करने का जिसके नियम हो, उस दुर्द्धर चर्या के पालक महामुनि को ही परिहार विशुद्धि चारित्र होता है। इस चारित्र वाले के शरीर से जीवों का घात नहीं होता, इसी से इसका नाम परिहार विशुद्धि है। अत्यन्त सूक्ष्म कषाय के होने से सूक्ष्म साम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान में जो चारित्र होता है, उसे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं। समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से अथवा क्षय से जैसा आत्मा का निर्विकार स्वभाव है, वैसा ही स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है। इस चारित्र को अथाख्यात भी कहते हैं, क्योंकि अथ शब्द का अर्थ अनन्तर है और यह समस्त मोहनीय के क्षय अथवा उपशम होने के अन्तर ही होता है। तथा इसे तथाख्यात भी कहते हैं, क्योंकि जैसा आत्मा का स्वभाव है, वैसा ही इस चारित्र का स्वरूप है। सूत्र में जो यथाख्यात के बाद इति शब्द है, वह यह बतलाता है कि यथाख्यात चारित्र से सकल कर्मों के क्षय की पूर्ति हो जाती है ॥१८॥ English - Equanimity, reinitiation in case of failure to keep the vow by taking to the vow again after penance, purity of non-injury, slight passion for greed and subsidence or dissociation of deluding karmas are the five kinds of conduct.
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