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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 9 : सूत्र 36

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    Vidyasagar.Guru

    अब धर्मध्यान का स्वरूप व भेद बतलाते हैं-

     

    आज्ञापायविपाक-संस्थान-विचयायधर्म्यम् ॥३६॥

     

     

    अर्थ - आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय ये धर्मध्यान के चार भेद हैं। अच्छे उपदेष्टा के न होने से, अपनी बुद्धि के मन्द होने से और पदार्थ के सूक्ष्म होने से जब युक्ति और उदाहरण की गति न हो तो ऐसी अवस्था में सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे गये आगम को प्रमाण मानकर गहन पदार्थ का श्रद्धान कर लेना कि “यह ऐसा ही है, आज्ञा विचय है। अथवा स्वयं तत्त्वों का जानकार होते हुए भी दूसरों को उन तत्त्वों को समझाने के लिये युक्ति दृष्टान्त आदि का विचार करते रहना, जिससे दूसरों को ठीक ठीक समझाया जा सके, आज्ञा विचय है; क्योंकि उसका उद्देश्य संसार में जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का प्रचार करना है। जो लोग मोक्ष के अभिलाषी होते हुए भी कुमार्ग में पड़े हुए हैं, उनका विचार करना कि कैसे वे मिथ्यात्व से छूटे, इसे अपाय विचय कहते हैं। कर्म के फल का विचार करना विपाक विचय है। लोक के आकार का तथा उसकी दशा का विचार करना संस्थान विचय है। ये धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले जीव के होते हैं।

     

    English - The virtuous meditation is of four types - concentration on realities (tattva) through pramana and naya, ways and means to help living beings to take the right belief, knowledge and conduct, fruition of karmas and the reasons thereof, and state of the universe.


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