आचार्य स्वयं भी तैरता है और दूसरों को भी तैराता है। आचार्य नौका के समान है। वह पूज्य है। इन भावनाओं के अंतर्गत अरहंत परमेष्ठी के बाद आचार्य परमेष्ठी की भक्ति का विवेचन है। सिद्ध परमेष्ठी को यहाँ ग्रहण नहीं किया गया क्योंकि उपयोगिता के आधार पर ही महत्व दिया जाता है। जैनेतर साहित्य में भी भगवान से बढ़कर गुरु की ही महिमा का यशोगान किया है।
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय॥
‘बताय' शब्द के स्थान पर यदि 'बनाय' शब्द रख दिया जाय तो अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि गुरु शिष्य को भगवान् बना देते हैं। इसीलिए उन्हें तरणतारण कहा गया है। गुरु स्वयं तो सत्पथ पर चलते हैं, दूसरों को भी चलाते हैं। चलने वाले की अपेक्षा चलाने वाले का काम अधिक कठिन है। रास्ता दूसरों को तारता है इसलिए वह तारण कहलाता है। पुल भी तारण है। किन्तु रास्ता और पुल दोनों स्वयं खड़े रह जाते हैं। 'गुरु' स्वयं भी तैरते हैं और दूसरों को भी तैराते हैं। इसलिए उनका महत्व शब्दातीत है। आचार्य नौका के समान हैं जो स्वयं नदी के उस पार जाती है और अपने साथ अन्यों को भी पार लगाती है।
भगवान् महावीर की वाणी गणधर आचार्य की अनुपस्थिति होने से छियासठ दिन तक नहीं खिरी। आचार्य ही उस वाणी को विस्तार से समझाते हैं। वे अपने शिष्यों को आलंबन देते हैं, बुद्धि का बल प्रदान करते हैं, साहस देते हैं। जो उनके पास दीक्षा लेने जाये, उसे दीक्षा देते हैं और अपने से भी बड़ा बनाने का प्रयास करते हैं। वे शिष्य से यह नहीं कहते तू मुझ जैसा बन जाये वे तो कहते हैं तू भगवान बन जाये।
मोक्षमार्ग में आचार्य से ऊँचा साधु का पद है। आचार्य अपने पद पर रहकर मात्र उपदेश और आदेश देते हैं, किन्तु साधना पूरी करने के लिये साधु पद को अंगीकार करते हैं। मोक्षमार्ग का भार साधु ही वहन करता है। इसीलिए चार मंगल पदों में, चार उत्तम पदों में और चार शरण पदों में आचार्य पद को पृथक् ग्रहण न करके साधु पद के अंतर्गत ही रखा गया है। आचार्य तो साधु की ही एक उपाधि है जिसका विमोचन मोक्ष-प्राप्ति के पूर्व होना अनिवार्य है। जहाँ राग का थोड़ा भी अंश शेष है, वहाँ अनन्त पद की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसीलिए साधना में लीन साधु की वंदना और तीन प्रदक्षिणा आचार्य द्वारा की जाती है।
मैंने अभी दो दिन पूर्व थोड़ा विचार किया इस बात पर कि भगवान महावीर अपने साधना काल में दीक्षा के उपरान्त बारह वर्ष तक निरन्तर मौन रहे। कितना दृढ़ संकल्प था उनका। बोलने में सक्षम होते हुए भी, वचन गुप्ति का पालन किया। वचन-व्यापार रोकना बहुत बड़ी साधना है। लोगों को यदि कोई बात करने वाला न मिले तो वे दीवाल से ही बातें करने लगते हैं। एक साधु थे। नगर से बाहर निकले इसलिये कि कोई उनसे बातें न करे किन्तु फिर भी, एक व्यक्ति उनके साथ हो गया और बोला-महाराज, मुझे अपने जैसा बना लें। मैं आपकी सेवा करता रहूँगा। आपको कोई न कोई सेवक तो चाहिए अवश्य सेवा करने के लिये। साधु बड़े पशोपेश में पड़ गये। आखिर बोले, सबसे बड़ी मेरी सेवा आप ये ही करो कि बोलो नहीं। बोलना बन्द कर दी। बोलने वालों की कमी नहीं है, प्राय: सर्वत्र मिल जाते हैं। मुझे स्वयं भी एक ऐसी घटना का सामना करना पड़ा मदनगंज, किशनगढ़ में। ब्रह्मचर्य अवस्था में एक स्थान पर बैठकर मैं सूत्रजी का पाठ कर रहा था। एक बूढ़ी माँ आई और मुझसे कुछ पूछने वहीं बैठ गयी। मैं मौन ही रहा परन्तु धीरे-धीरे वहाँ और भी कई मातायें आकर बैठने लगीं और दूसरे दिन से मुझे वह स्थान छोड़ना पड़ा। विविक्त शय्यासन अर्थात् एकांतवास भी एक तप है जिसे साधु तपता है इसलिए कि एकान्त में ही अन्दर की आवाज सुनाई पड़ती है। बोलने से साधना में व्यवधान आता है।
आचार्य कभी भी स्वयं को आचार्य नहीं कहते। वे तो दूसरों को बड़ा बनाने में लगे रहते हैं। अपने को बड़ा कहते नहीं। कोई और उन्हें कहे तो वे उसका विरोध भी नहीं करते और विरोध करना भी नहीं चाहिए। गाँधीजी के सामने एक बार यह प्रश्न आया। एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला, महाराज, आप बड़े चतुर हैं, अपने आप को महात्मा कहने लग गये। गाँधीजी बोले, "भैया, मैं अपने को महात्मा कब कहता हूँ। लोग भले ही कहें। मुझे क्या ? मैं किसी का विरोध क्यों करूं ?" यही उनकी महानता है।