निश्चय/व्यवहार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- वह व्यवहार, व्यवहार नहीं माना जाता जो निश्चय की ओर न ले जाए और वह निश्चय, निश्चय नहीं माना जाता, जो व्यवहार को बिल्कुल ही तोड़कर रख दे, गौण कर दे।
- बाहरी पक्ष, भीतरी पक्ष दोनों आपस में सम्बन्ध रखते हैं, जिसे हम व्यवहार या निश्चय कह सकते हैं।
- निश्चय-व्यवहार दोनों नय सापेक्ष हैं। जैसे एक आँख विषय बनाती हैं तो दूसरी आँख सहयोग देती है। परस्पर सापेक्षता से ही काम चलता है।
- निश्चय कहता है तुम बाह्य में कुछ नहीं कर सकते यदि करना है तो अपने में कुछ करो।
- निश्चय में कर्म, कर्ता, करण सामग्री अभिन्न हुआ करती है और हमारी दृष्टि हमेशा भेद पर जाती है, अभिन्न की ओर जाना महत्वपूर्ण है। अभिन्न से निरालम्ब, परनिर्पक्ष अपने आप रुचने लगता है।
- हम निश्चय के स्थान पर व्यवहार और व्यवहार के स्थान पर निश्चय की बात करते हैं यही गलत है।
- व्यवहार में भी जिसे छोड़ रहे हो उस ओर दृष्टि न रखकर जो निश्चय ग्रहण करना है उस ओर दृष्टि रखना चाहिए।
- भगवान् निश्चय से आत्मज्ञ हैं और व्यवहार से सर्वज्ञ हैं।
- निश्चय में अपना आत्म तत्व ही उपादेय है।
- अशुद्ध निश्चयनय बारहवें गुणस्थान तक चलता है क्योंकि वहाँ तक अशुद्ध उपादान चलता रहता है।
- त्याग और ग्रहण निश्चय में होता ही नहीं।
- नरकों में जो वेदना है, वह सम्यक दर्शन का भी कारण बनती है।
- केवली भगवान् निश्चय से आत्मा को देखते-जानते हैं, व्यवहार से सभी को जानते हैं। अर्थात् निश्चय से आत्मज्ञ हैं और व्यवहार से सर्वज्ञ हैं।
- स्वसंवेदन तो निश्चयनय का आलम्बन लेकर ही किया जा सकता है।
- अपने आप को उन्मार्ग से उठाकर सन्मार्ग पर लाना निश्चय सम्यक दर्शन है।
- यदि गुरु महाराज हमेशा निश्चय में ही बैठे रहते तो हम लोग इस मार्ग पर कैसे आ पाते ?
- व्यवहार में धर्म तीर्थ की प्रभावना होती है और निश्चय में आत्मा को प्राप्त करने की भावना होती है।
- व्यवहार धर्म के अभाव में धर्म तीर्थ का लोप हो जायेगा और निश्चय धर्म के अभाव में आत्म तत्व का लोप हो जायेगा, अत: दोनों धर्म की आपस में मित्रता है। एक दूसरे में कार्यकारण या साध्य-साधक का सम्बन्ध है।
- निश्चय या शुद्धोपयोग तो उपादेय है ही लेकिन व्यवहार, शुभोपयोग उसका कारण है उपकारक है, इसलिए यह भी उपादेय है।
- अशुद्ध निश्चयनय से राग जीवात्मा ने किया, निश्चय से तो आत्मा में राग है ही नहीं ऐसा श्रद्धान रखना ही सही श्रद्धान है तभी हम राग को छोड़ सकते हैं।
- निश्चयनय से संसारी प्राणी कषायों से, पापों से रहित है। फिर मोक्षमार्ग पर चलो, ऐसा कहना गलत है पर ऐसा नहीं है इसलिए व्यवहार धर्म आवश्यक है।
- व्यवहारनय से जो भगवान् का श्रद्धान नहीं कर सकता, वह निश्चय से भी श्रद्धान नहीं कर सकता |
- निश्चयनय की अपेक्षा न बंध है, न मोक्ष है बल्कि सभी जीव शुद्धनय से सिद्धस्वरूप ही हैं।
- निश्चय का अर्थ स्वभाव होता है इसलिए राग-द्वेष जीव से नहीं बल्कि जीव के स्वभाव से भिन्न हैं, ऐसा विश्वास रखने पर ही हम राग-द्वेष से बच सकते हैं, वरन् हम कभी राग-द्वेष को छोड़ ही नहीं सकते।
- श्रमण (साधु) को दो ड्रेस (पोशाक) दी गयीं हैं। आत्मा से बाहर आते ही व्यवहार में मूलाचार और निश्चय से जब आत्मा में जाते हैं तो समयसार है। लेकिन एक बात हमेशा ध्यान रखना बिना मूलाचार के समयसार में प्रवेश नहीं किया जा सकता क्योंकि व्यवहार मुद्रा से ही निश्चय मुद्रा बनती है।
- आत्मा दूध की भाँति है और राग-द्वेष आदि कर्म पानी की भाँति हैं, इनका आपस में अनादिकाल से सम्बन्ध है। ऐसा जब तक श्रद्धान नहीं होगा, तब तक दोनों को पृथक्-पृथक् करने की बात ही नहीं होती।
- शुद्धोपयोग अशुद्ध निश्चयनय का विषय है, क्योंकि वह स्वभाव नहीं है।
- अपने आपको उन्मार्ग से उठाकर सन्मार्ग पर लाना निश्चय सम्यक दर्शन को पुष्ट करना है।
- जितने भी सिद्ध हुए हैं, उन्हें सबसे पहले व्यवहार मोक्षमार्ग प्राप्त हुआ है फिर निश्चय मोक्षमार्ग ।
- व्यवहार पराश्रित नहीं है, क्योंकि पर के सहयोग से वह अपने में ही होता है। व्यवहार धर्म चकमक से उत्पन्न आग जैसा है और निश्चय धर्म लाइटर जैसा है।
- सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप हलुआ बना है वही आत्म तत्व निश्चय रत्नत्रय है, ध्यान रूपी अग्नि से पकाया हुआ।
- सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों अभिन्न हों, तभी मोक्ष प्राप्त होता है। जैसे नृत्यकार, गीतकार और वादक तीनों का स्वर एक हो तभी संगीत में आनंद आता है। निश्चय में सम्यक दर्शनज्ञान-चारित्र की एकता रहती है।
- जब व्यवहार में अनुपात सही रहेगा तभी निश्चय धर्म प्राप्त होगा।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव