प्रमाद विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- प्रत्येक प्रवृत्ति में प्राय: प्रमाद जुड़ा रहता है।
- प्रमाद आत्मा की कमजोरी का नाम है, तीर्थंकर भी छद्मस्थ अवस्था में प्रमाद में, छट्टे गुणस्थान में आ जाते हैं।
- अभ्यन्तर प्रमाद तो वर्धमान चारित्र वाले तिर्थंकरो में भी आ जाता है।
- अप्रमत्त का अर्थ प्रमाद रहित अवस्था है, यह मुनिराज में सप्तम-गुणस्थान में गुप्ति एवं समिति दोनों में रह सकती है।
- आहार एवं स्वाध्याय के समय भी मुनियों के सप्तम-गुणस्थान होता है।
- समितियों का पालन करते समय बुद्धिपूर्वक प्रमाद होता है और गुप्ति आदि के समय अबुद्धिपूर्वक प्रमाद होता है।
- शनिवार की रात को सोया विद्यार्थी रविवार को जानबूझकर देर से उठता है, क्योंकि उसे मालूम है कि आज उसे स्कूल नहीं जाना, यह प्रमाद (आलस्य) कहलाता है। प्रमाद वास्तव में असावधानी ही है, इसे भी कषाय में ही गिना है।
- इस जीव को जब तक योग्य पदार्थ नहीं मिलता तब उसके लिए प्रयास करता है और मिल जाने पर प्रमाद करने लगता है।