हर्ष विवाद से परे आत्म-सत्ता की सतत् अनुभूति ही सच्ची समाधि है।
यहाँ समाधि का अर्थ मरण से है। साधु का अर्थ है श्रेष्ठ/अच्छा अर्थात् श्रेष्ठ/आदर्श। मृत्यु को साधु-समाधि कहते हैं। ‘साधु' का दूसरा अर्थ "सज्जन" से है। अत: सज्जन के मरण को भी साधु-समाधि कहेंगे। ऐसे आदर्श-मरण को यदि हम एक बार भी प्राप्त कर लें तो हमारा उद्धार हो सकता है।
जन्म और मरण किसका ? हम बच्चे के जन्म के साथ मिष्ठान्न वितरण करते हैं। बच्चे के जन्म के समय सभी हँसते हैं, किन्तु बच्चा रोता है। इसलिये रोता है कि उसके जीवन के इतने क्षण समाप्त हो गये। जीवन के साथ ही, मरण का भय शुरू हो जाता है। वस्तुत: जीवन और मरण कोई चीज नहीं है। यह तो पुद्गल का स्वभाव है, वह तो बिखरेगा ही।
आपके घरों में पंखा चलता है। पंखे में तीन पंखुड़ियाँ होती हैं। और जब पंखा चलता है तो एक पंखुड़ी मालूम पड़ती है। ये पंखुड़ियाँ उत्पाद, व्यय, श्रौव्य की प्रतीक हैं और पंखे के बीच का डंडा जो है वह सत् का प्रतीक है। हम वस्तु की शाश्वतता को नहीं देखते, केवल जन्म-मरण के पहलुओं से चिपके रहते हैं जो भटकाने/घुमाने वाला है।
समाधि ध्रुव है, वहाँ न आधि है, न व्याधि है और न ही कोई उपाधि है। मानसिक विकार का नाम आधि है। शारीरिक विकार व्याधि है। बुद्धि के विकार को उपाधि कहते हैं। समाधि मन, शरीर और बुद्धि से परे हैं। समाधि में न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है और न विषाद। जन्म और मृत्यु शरीर के हैं। हम विकल्पों में फँस कर जन्म-मृत्यु का दुख उठाते हैं। अपने अन्दर प्रवाहित होने वाली अक्षुण्ण चैतन्य-धारा का हमें कोई ध्यान ही नहीं। अपनी वैकालिक सत्ता को पहिचान पाना सरल नहीं है। समाधि तभी होगी जब हमें अपनी सत्ता की शाश्वतता का भान हो जायेगा। साधु-समाधि वही है जिसमें मौत को मौत के रूप में नहीं देखा जाता है। जन्म को भी अपनी आत्मा का जन्म नहीं माना जाता। जहाँ न सुख का विकल्प है और न दुख का।
आज ही एक सज्जन ने मुझसे कहा, "महाराज, कृष्ण जयन्ती है आज।” मैं थोड़ी देर सोचता रहा। मैंने पूछा क्या कृष्ण जयन्ती मनाने वाले कृष्ण की बात आप मानते हैं ? कृष्ण गीता में स्वयं कह रहे हैं कि मेरी जन्म-जयन्ती न मनाओ। मेरा जन्म नहीं, मेरा मरण नहीं। मैं तो केवल सकल ज्ञेय ज्ञायक हूँ। वैकालिक हूँ। मेरी सत्ता तो अक्षुण्ण है। अर्जुन युद्ध-भूमि में खड़े थे। उनका हाथ अपने गुरुओं से युद्ध के लिए नहीं उठ रहा था। मन में विकल्प था कि कैसे मारूं अपने ही गुरुओं को। वे सोचते थे चाहे मैं भले ही मर जाऊँ किन्तु मेरे हाथ से गुरुओं की सुरक्षा होनी चाहिए। मोहग्रस्त ऐसे अर्जुन को समझाते हुए श्री कृष्ण ने कहा-
जातस्य हिध्रुवो मृत्यु ध्रुवो जन्म मृतस्य च ।
तस्माद परिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
जिसका जन्म है उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है और जिसकी मृत्यु है उसका जन्म भी अवश्य होगा। यह अपरिहार्य चक्र है, इसलिये हे अर्जुन! सोच नहीं करना चाहिए। अर्जुन! उठाओ अपना धनुष और क्षत्रिय-धर्म का पालन करो। सोची, कोई किसी को वास्तव में मार नहीं सकता। कोई किसी को जन्म नहीं दे सकता। इसलिये अपने धर्म का पालन श्रेयस्कर है। जन्म-मरण तो होते ही रहते हैं। आवीचि मरण तो प्रतिसमय हो ही रहा है। कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, और हम हैं केवल जनम-मरण के चक्कर में, क्योंकि चक्कर में भी हमें शक्कर-सा अच्छा लग रहा है।
तन उपजत अपनी उपज जान,
तन नशत आपको नाश मान।
रागादि प्रकट ये दुख दैन,
तिन ही को सेवत गिनत चैन ॥
हम शरीर की उत्पति के साथ अपनी उत्पति और शरीर-मरण के साथ अपना मरण मान रहे हैं। अपनी वास्तविक सत्ता का हमको भान ही नहीं। सत् की ओर हम देख ही नहीं रहे हैं। हम जीवन और मरण के विकल्पों में फँसे हैं किन्तु जन्म-मरण के बीच जो ध्रुव सत्य है उसका चिन्तन कोई नहीं करता। साधु-समाधि तो तभी होगी जब हमें अपनी शाश्वत सत्ता का अवलोकन होगा। अत: जन्म-जयन्ती न मनाकर हमें अपनी शाश्वत सत्ता का ही ध्यान करना चाहिए, उसी की सँभाल करनी चाहिए।