ध्यान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- अपने उद्देश्य को सही बनाये रखना ही धर्मध्यान है।
- आर्त्त, रौद्रध्यान को पहचानकर उसे छोड़ दो, फिर धर्मध्यान मिल जायेगा।
- हमारा कितना समय प्रमाद में निकल गया यह भी ध्यान में रखना चाहिए।
- सामायिक में तन, मन कब हिलता है, यह देखो इसी का नाम ध्यान है।
- ध्यान का कार्य ड्रायवर के जीवन के समान है। जो सभी व्रत, नियम रूपी यात्रियों को मंजिल तक पहुँचाता है।
- ध्यान सब अनुष्ठानों का उपसंहार है।
- सामायिक की सामर्थ्य से ध्यान धारण करते हैं और ध्यान से केवलज्ञान प्राप्त होता है।
- स्वभाव की ओर दृष्टि रखने से ध्यान अपने आप लग जाता है।
- ध्येय की ओर दृष्टि रखें ध्याता की ओर नहीं, क्योंकि ध्याता अशुद्ध है, ध्यान में शुद्ध को रखो।
- ध्यान करना फिर भी आसान है, लेकिन ध्यानातीत होना बहुत कठिन है। गुणस्थानातीत होने के लिए ध्यानातीत होना अनिवार्य है।
- ऐसा कोई भी गुणस्थान नहीं है जिसमें ध्यान नहीं हो। इसलिए कहा है कि ध्यानातीत हुए बिना मुक्ति नहीं हो सकती।
- ध्यान का अर्थ है अस्त-व्यस्त योगों को व्यवस्थित करना।
- सभी शुभ-ध्यानों से कर्म प्रकृतियों की निर्जरा होती है।
- शुद्धात्मा की आराधना से तात्पर्य है आत्म-ध्यान में लीन होना।
- शुद्धात्मा का ध्यान करने वाला रत्नत्रय का धारी होता है। रत्नत्रय महाव्रत धारण करने से प्राप्त होता है।
- ध्यान आत्मा का स्वभाव नहीं है, आत्मा का परिणाम है।
- ज्ञान और ध्यान में उतना ही अंतर होता है जितना प्रवृत्ति और निवृत्ति में हुआ करता है।
- शक्ति ज्ञान से नहीं ध्यान से आती है।
- दूसरे के दु:ख को देखकर दु:खी होना एवं दूसरे का दु:ख दूर कैसे हो, ऐसा विचार करना अपायविचय धर्म ध्यान कहलाता है।
- ध्यान रूपी अग्नि के माध्यम से ही कर्म रूपी ईधन को जलाया जा सकता है।
- शुक्लध्यान की ओर ध्यान रखने से धर्मध्यान अच्छे से होता है।
- शारीरिक वेदना होने पर भी उसमें हर्ष-विषाद नहीं करना धर्मध्यान का कारण है।
- ध्यान में एक काम अच्छा हो जाता है कि स्वार्थ मिट जाता है।
- ध्यान मुद्रा में भद्रता होनी चाहिए यह प्रसन्नता का प्रतीक है। यह हास्य नहीं है, हर्ष-विषाद से परे है।
- दूसरों के दु:ख को देखकर आँखों में पानी आना धर्म ध्यान है। आज पानी का स्तर नीचे क्यों जा रहा है ? क्योंकि आज दूसरों के दु:ख को देखकर आँखों में पानी नहीं आ रहा है।
- ध्यान में कंडीशन तो होती है लेकिन एयर कंडीशन नहीं।
- स्वार्थ के लिए रोना आर्तध्यान माना जाता है। स्वार्थ को भूलने से धर्म ध्यान अपने आप हो जाता है।
- ध्यान द्वारा संसार का भी संपादन होता है तो ध्यान द्वारा मुक्ति का भी सम्पादन होता है।
- एक ध्यान सोपान का कार्य कर जाता है तो एक ध्यान मदिरापान का।
- एक ध्यान के माध्यम से हम गिर जाते हैं, एक ध्यान के माध्यम से हम उन्नत हो जाते हैं, आगे बढ़ जाते हैं।
- निश्चिंतता में जहाँ भोगी सो जाता है, वहाँ योगी आत्मा में खो जाता है।
- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुरूप हमारी शक्ति सो भी जाती है और जाग भी जाती है।
- निमित्ताधीन दृष्टि होने से ही परिणाम विकृत होते हैं।
- नदी, पहाड़ों-पत्थरों से डरकर कभी वापस नहीं लौटती। जबकि मानव को थोड़ी-सी कठिनाई का अनुभव हो जाता है तो वह अपना रास्ता बदलने लग जाता है।