भक्ति-गंगा की लहर हृदय के भीतर से प्रवाहित होनी चाहिए और पहुँचनी चाहिए वहाँ, जहाँ निस्सीमता है।
आज हम अहत् भक्ति की प्ररूपणा करेंगे। अर्हतीति अर्हत् अर्थात् जो पूज्य हैं उनकी उपासना, उनकी पूजा करना। इसी को अर्हत् भक्ति कहते हैं, किन्तु प्रश्न है पूज्य कौन? किसी ने कहा था-भारत देश की विशेषता ही ये है कि यहाँ पूज्य ज्यादा हैं और पूजने वाले कम हैं। उपास्य ज्यादा हैं उपासक कम। जब पूज्यों की कमी हुई तो प्रचुर मात्रा में मूर्तियों का निर्माण होने लगा। पूज्य कौन है? इसी प्रश्न का उत्तर पहले खोजना होगा क्योंकि पूज्य की भक्ति ही वास्तविक भक्ति हो सकती है। अन्य भक्तियाँ तो स्वार्थ साधने के लिये भी हो सकती हैं। पूज्य की भक्ति में गतानुगतिकता के लिये स्थान नहीं है। दो सम्यकद्रष्टियों के भाव, विचार और अनुभव में अन्तर होना संभव है। भले ही लक्ष्य एक हो क्योंकि अनुभूति करना हमारे अपने हाथ की बात है। भाव तो असंख्यात लोक प्रमाण है।
आज से कई वर्ष पूर्व दक्षिण से एक महाराज आये थे। उन्होंने एक घटना सुनाई। दक्षिण में एक जगह किसी उत्सव में जुलूस निकल रहा था। मार्ग थोड़ा सकरा था पर साफ सुथरा था। अचानक कहीं से आकर एक कुत्ते ने उस मार्ग में मल कर दिया। स्वयं-सेवक देखकर सोच में पड़ गया। परन्तु जल्दी ही विचार करके उसने उस मल पर थोड़े से फूल डाल कर ढक दिया। अब क्या था एक-एक करके जुलूस में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने उस पर फूल चढ़ाये और वहाँ फूलों का अम्बार लग गया। वह स्थल पूज्य बन गया। ऐसी मूढ़ता के लिये भक्ति में कोई स्थान नहीं है।
भक्ति किसकी ? जो भक्तों से कहे, आ जाओ मेरी ओर, और मेरी पूजा करो, मैं तुम्हें शरण दूँगा। ऐसा कहने वाला भगवान नहीं हो सकता। जहाँ लालसा है ख्याति की, वहाँ भगवान कैसे ? काम भोग की आकांक्षा रखने वालों से भगवान् का क्या वास्ता ? 'भगवान् भक्त के वश में होते आये' इस कहावत का भी अर्थ गहराई से समझना पड़ेगा। भगवान् तो चुम्बक हैं जो उस लोहे को अपनी ओर खींच लेते हैं जिसे मुक्ति की कामना है। उस पाषाण को कभी नहीं खींचते जिसे भुक्ति की कामना है।
भक्ति-गंगा की लहर हृदय के भीतर से प्रवाहित होनी चाहिए और पहुँचनी चाहिए वहाँ, जहाँ निस्सीमता है। गंगा के तट पर पहुँचकर एक आदमी चुपचाप नदी का बहना देखता रहा। उसके गंगा से यह पूछने पर कि वह कहाँ दौड़ी चली जा रही है ? नदी ने मौन उत्तर दिया वहाँ जा रही हूँ, जहाँ मुझे शरण मिले। पहाड़ों में शरण नहीं मिली। मरुभूमि और गड़ों में मुझे शरण नहीं मिली, जहाँ सीमा है, वहाँ शरण मिल नहीं सकती, नदी की शरण तो सागर में है, जहाँ पहुँच कर बिन्दु सिन्धु बन जाता है और जहाँ इन्दु भी गोद में समा जाता है।
पूजा करो, पूर्ण की करो। अनंत की करो। लोक में विख्यात है कि सुखी की पूजा करोगे तो तुम स्वयं भी सुखी बन जाओगे। गंगा, सिन्धु के पास पहुँच कर स्वयं भी सिन्धु बन गयी। वहाँ गंगा का अस्तित्व मिटा नहीं, बिन्दु मिटी नहीं, सागर के समान पूर्ण हो गयी। जैसे एक कटोरे-जल में लेखनी द्वारा एक कोने से स्याही का स्पर्श कर देने से सारे जल में स्याही फैल जाती, है इसी तरह गंगा भी सारे सिन्धु पर फैल गयी अपने अस्तित्व को लिए हुए। इसे जैनाचार्यों ने स्पर्द्धक की संज्ञा दी है जिसका अर्थ है शक्ति। यह कहना उपयुक्त होगा कि भगवान् भक्त के वश में होते आये और भक्त भगवान् के वश में होते आये, क्योंकि जहाँ आश्लेष हो जाये, वही है असली भक्ति का रूप।
हमारी मुक्ति नहीं हो रही क्योंकि हमारी भक्ति में भुक्ति की इच्छा है। जहाँ लालसा हो, भोगों की इच्छा हो, वहाँ मुक्ति नहीं। भक्ति में तो पूर्ण समर्पण होना चाहिए। पर समर्पण है कहाँ ? हम तो केवल भोगों के लिए भक्ति करते हैं अथवा हमारा ध्यान पूजा के समय भी जूतों चप्पलों की ओर ज्यादा रहता है। मैंने एक सज्जन को देखा भक्ति करते हुए। एक हाथ चाबियों के गुच्छे पर और एक हाथ भगवान् की ओर उठा हुआ। यह कौन-सी भक्ति हुई, भइया बताओ। कल आपको क्षुल्लकजी ने यमराज के विषय में सुनाया था। दांत गिरने लगे, वृद्धावस्था आ गई तो अब समझो श्मशान जाने का समय समीप आ गया किन्तु आप तो नई बत्तीसी लगवा लेते हैं क्योंकि अभी भी रसों की भुक्ति बाकी है। रसों की भक्ति वाला कभी मुक्ति की ओर देखता नहीं। भक्ति मुक्ति के लिए है और भुक्ति संसार के लिए है। हम अपने परिणामों से ही भगवान् से दूर हैं और परिणामों की निर्मलता से ही उन्हें पा सकते हैं।
भक्ति करने के लिए भक्त को कहीं जाना नहीं पड़ता। भगवान् तो सर्वज्ञ और सर्वव्यापी हैं। जहाँ बैठ जाओ, वहीं भक्ति कर सकते हो। हमारे भगवान् किसी को बुलाते नहीं और यदि आप वहाँ पहुँच जायेंगे तो आपको दुतकारेंगे भी नहीं। क्या सागर, गंगा नदी से कहने गया कि तू आ, किन्तु नदी बहकर सागर तक गई तो सागर ने उसे भगाया भी नहीं। मन्दिर उपयोग को स्थिर करने के लिये हैं। किन्तु सबके उपयोग को स्थिर करने में निमित्त बने, ये जरूरी नहीं है।
जैनाचार्यों ने कहा, जो अर्हत को जानेगा, वह खुद को भी जानेगा। पूज्य कौन है ? मैं स्वयं पूज्य, मैं स्वयं उपास्य। मैं स्वयं साहूकार हूँ तो भीख किससे मांगूं ?
मैं ही उपास्य जब हूँ स्तुति अन्य की क्यों?
मैं साहूकार जब हूँ, फिर याचना क्यों ?
बाहर का कोई भी निमित्त हमें अहत् नहीं बना सकता। अहत् बनने में साधन भर बन सकता है, अहत् बनने के लिए दिशा-बोध भर दे सकता है पर बनना हमें ही होगा। इसीलिये भगवान् महावीर और राम ने कहा- तुम स्वयं अर्हत् हो। हमारी शरण में आओ, ऐसा नहीं कहा। कहेंगे भी नहीं। ऐसे ही भगवान वास्तव में पूज्य हैं। तो हमारा कर्तव्य है कि हम अपने अन्दर डूब जायें। मात्र बाहर का सहारा पकड़ कर बैठने से अहन्त पद नहीं मिलेगा।
जब तक भक्ति की धारा बाहर की ओर प्रवाहित रहेगी तब तक भगवान् अलग रहेंगे और भक्त अलग रहेगा। जो अर्हत् बन चुके हैं उनसे दिशा-बोध ग्रहण करो और अपने में डूब कर उसे प्राप्त करो। 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ।' यही है सच्ची अहत् भक्ति की भूमिका। गहरे पानी पैठ वाली बात को लेकर आपको एक उदाहरण सुनाता हूँ। एक पण्डित जी रोज सूर्य को नदी के किनारे एक अंजुलि जल देते थे और फिर नदी में गोता लगाकर निकल आते थे। एक गड़रिया जो रोज उन्हें ऐसा करते देखता था उसने पूछा- महाराज, यह गोता क्यों लगाते हो पानी में ? पंडित जी बोले-तू क्या जाने गड़रिये, ऐसा करने से भगवान् के दर्शन होते हैं। भगवान् के दर्शन, ओह! आपका जीवन धन्य है, मैं भी करके देखेंगा और इतना कहकर गड़रिया चला गया। दूसरे दिन पंडित जी के आने से पहिले वह नदी में कूद गया और डूबा रहा दस मिनट पानी में। जल देवता, उसकी भक्ति और विश्वास देखकर दर्शन देने आ गये और पूछा- माँग वरदान, क्या माँगता है ? गडरिया आनंद से भरकर बोला- दर्शन हो गए प्रभु के, अब कोई माँग नहीं। प्रभु के दर्शन के बाद कोई माँग शेष नहीं रहती। ऐसे ही गहरे अपने अन्दर उतरना होगा तभी प्राप्ति होगी प्रभु या स्वयं या आत्मा की। महावीर जी में मैंने देखा एक सज्जन को। घड़ी देखते जा रहे हैं और लगाये जा रहे हैं चक्कर मंदिर के। पूछने पर बताया, एक हजार आठ चक्कर लगाना है। पहले एक सौ आठ चक्कर लगाए थे, बड़ा लाभ हुआ था। ऐसे चक्कर से, जिसमें आकुलता हो, कुछ नहीं मिलता। भक्ति का असली रूप पहिचानो, तभी पहुँचोगे मंजिल पर, अन्यथा संसार की मरुभूमि में ही भटकते रह जाओगे।