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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. (श्री दिगम्बर जैन चन्द्रगिरि तीर्थक्षेत्र डोंगरगढ़, (छ.ग.) जून २o१७ में राष्ट्रीय चिंतक संत शिरोमणि जैनाचार्य प.पू. गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज से प्रिंट मीडिया एवं दृश्य मीडिया का संवाद) पत्रकार - आचार्य श्री जी हथकरघा को लेकर आपने बहुत बड़ा प्रयोग स्वावलंबन बनाने के लिए किया। इस दिशा में काम को और बेहतर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है? आचार्य श्री - इस दिशा में काम बहुत आगे बढ़ सकता है, आवश्यकता है योग्य प्रशिक्षित प्रशिक्षकों की। उन योग्य प्रशिक्षकों की पूर्ति के लिए ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारणियाँ आगे आ रहे हैं और दान-दातार भी आगे आ रहे हैं। यह बहुत अच्छा काम है। सरकार स्वयं चाहती है कि इसको (हथकरघा को) आगे कैसे बढ़ाया जाए, किन्तु कहने मात्र से तो यह कार्य आगे बढ़ने वाला नहीं है और यह कार्य सरकार मात्र का नहीं है। वह कहाँ तक करेगी, किन्तु जो समाजसेवा करना चाहते हैं या कर रहे हैं उनके लिए ये दिशा निर्देश देना चाहता हूँ कि जो महिलाएँ घर से बाहर काम पर निकलती हैं तो उनके लिए समस्या खड़ी हो जाती है। बच्चों को सँभालना, शिक्षा देना, घर का काम करना, रिश्तों में सामंजस्य बनाना आदि कार्य सुनियोजित नहीं हो पाते और उनके जीवन में अशान्ति आ जाती है। यदि महिलाओं को प्रशिक्षण दे दिया जाए और वे घर बैठे आजीविका का काम करें तो उनके लिए सब कार्य सहज और सरल हो जाएगा। उनके जीवन के लिए बहुत बड़ा सहयोग हो जाएगा। ऐसे विचार आने पर समाज वालों को प्रेरित किया। ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारणियों को भी यह कार्य अच्छा लगा, तो सभी लोग इस कार्य को करने के लिए तैयार हो गए। अपनी सेवा, सहायता या दान योग्य व्यक्ति को दो ताकि वह खड़ा हो जाए, लेकिन पैसे से सहयोग कब तक देते रहेंगे? सरकार भी यही चाहती है कि बेरोजगारों को काम, श्रम या रोजी जिसे काम-धंधा कहते हैं वह मिलना चाहिए। साथ ही धंधा मात्र देने से भी काम नहीं चलेगा। उनका काम आगे चले और वे व्यवस्थित हो जाएँ। इसके लिए सहकार समिति की जरूरत है। समाज ने यह काम किया। इस क्षेत्र में प्रतिभास्थली शिक्षण संस्था की प्रतिभामणि शिक्षिकाओं ने भी इस काम को आगे बढ़ाने के लिए कौशल प्राप्त किया और प्रशिक्षण देना प्रारम्भ कर दिया है। शुरुआत में ९ हथकरघा खुले, फिर ४0 तक पहुँच गए। उनके उत्साह ने १o८ हथकरघा का विचार कर लिया और सीखने के लिए महिलाओं की संख्या बहुत आ रही है। इस उत्साह को देखते हुए जैन समाज ने उनकी आने-जाने की व्यवस्था बनाई। सब की समय की पाली बनाकर उन्हें काम दिया। प्रतिभास्थली के बच्चे भी हथकरघा सीखने में रुचि ले रहे हैं। उनमें ये प्रेरणा जागृत होना अच्छी बात है। १२वीं कक्षा के बाद वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकतीं हैं और माता-पिता की चिंता को दूर कर सकतीं हैं जिससे उनका महाविद्यालयीन अध्ययन सतत चलता रहे। घर में रहकर यह सब संभव है। बस, समाज में इस प्रकार की व्यवस्था बनाना आवश्यक है।इसी प्रकार चिकित्सा की भी बात है।
  2. एक समाचार मिला था कि चपरासी के लिए नौकरी निकली,उसमें २५0 से ज्यादा पी-एच.डी. वाले, जिनको डॉक्ट्रेट की उपाधि मिली हुई है उन्होंने उस नौकरी को करने के लिए परीक्षा दी। मात्र १0– १२ हजार रुपये के लिए वे मोहताज हो गए। यह समाचार सुनकर मैंने सोचा-इतनी पढ़ाई करने के बाद भी किसी काम की नहीं! इसका मतलब उन्हें विद्या प्राप्त नहीं हुई, तभी तो वे लोग मोहताज हो गए। जाती थी कि वह अपने जीवन के साथ-साथ दूसरे के जीवन को भी सहारा दे देता था। कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार। एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार ॥ यह भारतीय संस्कृति की देन है-स्त्रियों के लिए ६४ कलाएँ एवं पुरुषों के लिए ७२ कलाएँ बताई गई हैं। यदि दो कलाओं से रहित जीवन है तो किसी काम का नहीं। ऐसे युवा-युवतियाँ लाखों नहीं करोड़ों हैं भारत में। जो खूब पढ़ रहे हैं। लोन ले लेकर पढ़ रहे हैं लेकिन ऐसी शिक्षा किस काम की। जो पढ़े लिखों को मोहताज बनाए। आज शिक्षण के लिए भी बच्चों को कर्ज लेना पड़ रहा है, क्योंकि फीस लम्बी-चौड़ी है, माता-पिता कहाँ से पढ़ाएँ। वो घर चलाएँ या अपना एवं बच्चों का पालन-पोषण करें या सिर्फ बच्चों को पढ़ाते रहें? वो अपना धर्म आराधन भी करें या नहीं?'लोन' लेना पड़ रहा है। से चुकायेंगे। उस योग्य नौकरी ही नहीं है तो फिर पिताजी के नाम पर रोना रोते हैं। इस कारण पूरा परिवार तनाव भरा जीवन जीता है। ऐसी स्थिति में विचार करना आवश्यक है। सम्यग्दर्शन के आठ अंग कहे गए हैं। जिनमें वात्सल्य और प्रभावना अंग महत्वपूर्ण है। अपने साधर्मियों के तनाव भरे जीवन को देखकर उन्हें सहयोग करना चाहिए तभी वात्सल्य अंग पूर्ण होगा और उससे प्रभावना होगी। उपगूहन और स्थितिकरण को मिला लो तो ये चार अंग समाज को लेकर के हैं। समाज में कमजोर वर्ग को सहयोग देकर उसे अपने जैसे बनाना, यह आप लोगों का कर्तव्य है। अर्थ से कभी भी अपने जैसा नहीं बनाया जा सकता किन्तु अर्थोपार्जन का साधन देकर सत्कर्म सिखाया जा सकता है। इसके लिए यह अहिंसक कार्य हथकरघा सर्वोत्तम कार्य माना जा सकता है। आजकल के इन शोध प्रबन्धों को मैं मानता नहीं, क्योंकि शोध केवल विद्या नहीं, शोध केवल नौकरी का साधन नहीं, शोध तो वह है जिसके उपरांत हम नई चीज, नई अनुभूति समाज के सामने लाकर के रखें और अपने जीवन में अनुभव करें उसका नाम है शोध। जो व्यक्ति अर्थ के पीछे पड़ा हुआ है वह व्यक्ति परमार्थ की परिभाषा नहीं समझ सकता । बहुत विचार करने के बाद सक्रिय सम्यग्दर्शन के रूप में समाज के सामने इस अहिंसक कार्य की भूमिका बनाई और कार्य प्रारम्भ हुए। युग के आदि में आदिब्रह्मा ऋषभदेव भगवान के सामने भी जब आजीविका की समस्या खड़ी हुई तो उन्होंने विचार करके षट् कर्म सिखाए, उन षट् कर्मों में स्व-पर जीवन के लिए आजीविका बताई। उन्होंने अहिंसक कर्म सिखाए थे किन्तु आज हिंसा के लिए कर्म हो रहे हैं। कपड़ा बनाना एक शिल्प कर्म है। पर आप लोग जो कपड़ा उपयोग कर रहे हैं, चाहे पहनने के लिए हो या पानी छानने के लिए हो या भगवान के बिम्ब को पोंछने के लिए हो। वह कपड़ा कहाँ से आ रहा है? कैसा बन रहा है? कभी विचार किया? बनाने वालों ने बताया कि धागा को मजबूत बनाने के लिए धागे पर मांस की चर्बी लगाई जाती है। यह बहुत ही सोचनीय विषय है। सम्यग्दृष्टि का अहिंसक वस्तुओं के प्रति झुकाव होता है और वह अहिंसा की रक्षा के लिए ऐसे सत्कर्म (हथकरघा) करता है। बताओ, क्या यह धर्म नहीं है। जो धर्म की रक्षा करता है वह कारण भी धर्म कहलाता है। इस अहिंसक कार्य हथकरघा से प्रत्येक व्यक्ति को, समाज को, देश को जुड़ना चाहिए। गाँव-गाँव, शहर-शहर में आजीविका हीन हाथों को कार्य मिले। आप सबको मिलकर विचार करना है। अहिंसा के प्रति उत्साह होना ही चाहिए तभी शान्ति प्राप्त हो सकती है। चाहे आपकी रसोईघर हो, चाहे आपका परिधान हो, चाहे मन्दिर हो; सभी जगह शुद्ध अहिंसक वस्तुएँ होना चाहिए। भारतीय इतिहास उठाकर पढ़ो तो मालूम पड़ेगा कि सुन्दर से सुन्दर वस्त्र इसी अहिंसक हथकरघा की देन हैं। आज हिंसा के बीच अहिंसक बनाने के लिए यह योगदान है। अहिंसा मन्दिर की वस्तु नहीं है। अहिंसा तो जीवन के प्रत्येक कर्म में होना चाहिए। प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि तीर्थकर की वाणी समझना बहुत कठिन है। अनन्त बार वाणी ब्रह्माण्ड में गूँजी है लेकिन अभी तक हमें यह समझ में नहीं आई। अब एक बार समझ में आ जाए तो फिर कहना ही क्या? पूरी दुनिया उससे लाभान्वित हो, ऐसी भावना है। -११-o७-२o१६, राहतगढ़ (हथकरघा केन्द्र उद्घाटन पर आचार्य श्री के भाव)
  3. आज कृषि के क्षेत्र में भी विज्ञान के द्वारा कीटनाशक के नए प्रयोग हो रहे हैं, जिनके दुष्प्रभाव आपके शरीर पर हो रहे हैं। नए-नए प्रयोगों से वातावरण दूषित हो रहा है। कीटनाशक भारतीय संस्कृति नहीं है, बल्कि कीटनिरोधक भारतीय संस्कृति है। आज ऐसी खाद भी बनाई जा रही है जिसे डालने से मौसम के जो कीट होते हैं वो खेत में पनप ही नहीं पाते हैं, इसको प्रोत्साहित करें। आज कृषि उत्पादन में फल, सब्जी, अनाज के साथ अंडा उत्पादन, मछली पालन, मुर्गी पालन को भी सम्मिलित करना राष्ट्र का दुर्भाग्य है। आज कृषि प्रधान भारत में असली कृषि को पीछे धकेल कर मांस उत्पादनों को बढ़ावा देना कृषि के साथ कुठाराघात है। इस विषय में सभी को चिंता के साथ सोचना होगा, तभी अहिंसा धर्म को जीवित रखा जा सकता है। -६ अक्टूबर २०१६, गुरुवार, भोपाल
  4. किसान आज पूरा कर्म करने के बाद भी दु:खी क्यों है; इस पर विचार करने की जरूरत है। आज इण्डिया की नहीं, प्राचीन भारत की कृषि को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। आज श्रमिक का जो शोषण हो रहा है सरकार को उसे रोकने के लिए सार्थक कदम उठाना चाहिये। तभी एक अच्छे समाज की कल्पना को सार्थक किया जा सकता है। आज समाज शेयर बाजार के चक्कर में आगे बढ़ रहा है और देश को पीछे कर रहा है। -२ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  5. आज कृषि के क्षेत्र में हम जिस यूरिया का प्रयोग कर रहे हैं वह हमारी कृषि को कमजोर तो बना ही रहा है; साथ ही हमारे स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुँचा रहा है। सरकार भी इस ओर ध्यान नहीं दे रही है। सरकार आप स्वयं बनी और इस तरफ आप खुद ही ध्यान दो। सरकार विज्ञापन के माध्यम से बातें तो बहुत सी करती है, परन्तु सही दिशा की और सार्थक कदम नहीं उठाती है। -२१ सितम्बर २०१६, बुधवार, भोपाल
  6. वधशाला के सन्दर्भ में कोई कहता है इस क्षेत्र के बाहर हो,कोई कहता है नगर के बाहर हो, कोई कहता है मध्यप्रदेश से बाहर हो, परन्तु धर्म कहता है कि सम्पूर्ण भारत हमारा है, हिंसा इससे बाहर होनी चाहिए। मध्यप्रदेश भारत का हृदय है और इसके ऊपर, नीचे, आगे, पीछे सब जगह भारत राष्ट्र है जिसमें अहिंसा का पालन करना हम सभी का दायित्व है। भारतीय संस्कृति के महापुरुष राम के आर्दशों से हमें प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। उन्होंने जो दायित्वों का निर्वहन किया है वो प्रेरणादायक है। अपने कर्तव्यों का पालन धुआँधार तरीके से कीजिए, न फल की चिंता कीजिए, न परिणाम की; तभी राम राज्य का सपना पूर्ण हो सकेगा। मुँह में राम बगल में छुरी नहीं होना चाहिए। -४ सितम्बर २०१६, रविवार, भोपाल
  7. गुणवत्ता वाली वस्तु को सभी पसंद करते हैं और प्राथमिकता उसे ही देते हैं परन्तु कभी-कभी विज्ञापन के प्रभाव में गुणवत्ता का अभाव हो जाता है और कम गुण वाली वस्तु से संतुष्ट होना पड़ता है। आज विज्ञापन का इतना जोर है कि समाचार पत्रों में विज्ञापन की अधिकता के कारण खबरों की गुणवत्ता कम हो जाती है। कोई भी निष्कर्ष तभी निकलता है जब हम गुणवत्ता को अच्छे से परख लेते हैं। कुशल तैराक भी बाढ़ में बह जाता है। उसी प्रकार आप लोग भी विज्ञापन की बाढ़ में बह रहे हो। -१ सितम्बर २०१६, भोपाल
  8. गाँधी जी को याद कर लीजिए, वे विदेश से वकालत पढ़कर आए थे, उसके बावजूद भी उन्होंने भारत की मर्यादा को नहीं छोड़ा। पढ़कर आए तो अपनी वेशभूषा को अपना लिया। अब सुनते हैं विदेशों में गांधी ड्रेस फैशन के रूप में अपनाई जा रही है, क्योंकि गांधी ड्रेस पहनने से हर तरह की स्वतंत्रता रहती है। उस ड्रेस में कहीं किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती है। कब भागना पड़े, उठना-बैठना पड़े और हर मौसम में वह उपयुक्त रहती है, लेकिन पाश्चात्य ड्रेस जींस पहनने वाले न तो सही ढंग से बैठ सकते हैं, न उठ सकते हैं, न भाग सकते हैं, नीचे बैठने पर फटने का अंदेशा बना रहता है, किन्तु भारतीय संस्कृति की वेशभूषा में व्यक्ति हर हाल में निर्विकल्प बना रहता है और मर्यादा बनी रहती है। जिसमें किसी को भी शर्म नहीं आती है। आज आपकी क्या स्थिति हो गई है, न हाफ पेंट है, न फुल पेंट, देखने वालों को शर्म आती है, पहनने वाले बेशर्म बन रहे हैं। कई लोगों को ऐसे पहनावे के कारण रोग हो रहे हैं। युवाओ! जागो, स्वतंत्रता मिल गई है तो हाथ से बनी खादी जिसको हथकरघा से बने कपड़े कहते हैं, जो अहिंसक हैं, जो आरोग्यकारी हैं, स्वरोजगारी हैं, स्वतंत्रता के प्रतीक हैं, हर मौसम में उपयुक्त हैं, बेरोजगारी को हटाने वाले हैं, स्वाभिमान के प्रतीक हैं; ऐसे वस्त्र आप लोगों को तैयार करना चाहिए और उपयोग करना चाहिए। हथकरघा से देश में रोजगार बढ़ेगा, बेरोजगारी कम होगी। बड़ी-बड़ी पढ़ाई करके चपरासी बनने की अपेक्षा श्रम करो, श्रमिक बनी, स्वाभिमान से जियो, न शोषित होओ, न शोषण करो। इसी कारण तो भारत सोने की चिड़िया था। बिना परिश्रम के वह पिंजड़े की चिड़िया बन गई है, जो पर के आश्रित हो गई है और भीख माँग रही है। माँगना भारतीय संस्कृति में अभिशाप माना गया है। भारतीय संस्कृति तो देने की संस्कृति रही है और दान को धर्म माना गया है किन्तु आप परिश्रम नहीं करेंगे, स्वयं उत्पादन नहीं करेंगे, स्वयं योग्य नहीं बनेंगे तो आप पर को क्या दे सकेंगे? परिश्रम करो और 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' जैसे सूत्रों के आश्रय से एक-दूसरे को सहयोग देकर अपने मानव जीवन को सार्थक करो। ध्यान रखें, भारत का अर्थशास्त्र है। हथकरघा, कृषि, गौपालन, आयुर्वेद, प्राचीन शिक्षा, इसी से हम अपने देश की अर्थ व्यवस्था को मजबूत बना सकते हैं। -१५ अगस्त २o१६, भोपाल
  9. दम भारत में रहते हैं, भारत में कमाते हैं, भारत का अनाज खाते हैं, भारत का पानी पीते हैं लेकिन हम अपना धन विदेश में रखते हैं, क्या भारत के ऊपर विश्वास नहीं? जिस माटी पर जीते हैं उसी को सन्देह से देखते हैं, बस यही भारत की कंगाली का कारण है। तन भारत में और धन विदेश में, इसीलिए गरीबी है। वतन में भारत कंगाल हो रहा है, ऋण के भार से दब रहा है, कर्ज बढ़ रहा है और हमारे ही देशवासियों का धन विदेशों की बैंकों में रखा है, हम कैसे कहें कि हम अपने देश का विकास कर रहे हैं। यदि हम भारत को गरीबी से मुक्त करना चाहते हैं, कंगाली मिटाना चाहते हैं तो अपने देश का धन विदेशों में नहीं रखना चाहिए। विदेश में धन-रखने वालों ने ही देश को गरीब बनाया है। आज इस बात की महती आवश्यकता है कि हम अपने देश को कर्ज से मुक्त करने के लिए अपना धन विदेश में न जाने दें। देश को कर्ज से मुक्त करना ही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता होगी। आज देश को आजाद हुए पचास वर्ष होने को आ रहे हैं लेकिन पचास वर्षों में हमारे देश का कर्जा ही बढ़ा? कौन-सी तरक्की की है? पचास वर्ष के उपरान्त भी देश को कर्ज से मुक्त न कर सके, गरीबी न भगा सके, हिंसा-आतंक न रोक सके, फिर किया ही क्या? कर्ज लेलेकर देश को कब तक चलाएँगे? देशप्रेमियों देश को कर्ज से मुक्त करो, भारत की सम्पदा भारत में रहने दो, वस्तुत: भारत को धन की आवश्यकता नहीं, भारत तो धनी ही है, उस धन को विदेश से वापिस ले आओ। पचास वर्ष के उपरान्त भी हमको यह ज्ञात नहीं कि क्या करना है, क्या नहीं करना है, फिर स्वर्ण जयन्ती मनाने से क्या लाभ? पचास वर्ष के उपरान्त मात्र हमने इतना याद रखा है कि १५ अगस्त को हमारा देश स्वतंत्र हुआ था। पचास वर्ष के बाद भी हम ऋणी ही हुए जबकि हमको धनी होना था। ऋणी होना भी अच्छा है लेकिन धन से नहीं, आदर्श से हम ऋणी हैं पूर्वजों के जिन्होंने भारतीय संस्कृति को यहाँ तक लाने का पुरुषार्थ किया, देश को आजाद कराया, उन्होंने बहुत कष्ट उठाए, मुसीबतें सहीं, अनेक बाधाओं से जूझे, जीवन मरण से लड़ते रहे और निस्वार्थ भावना से देश और देशवासियों की सेवाएँ की, ऐसे कर्तव्यशील, निष्ठावान, अहिंसक पूर्वजों के हम ऋणी हैं। हमारे पूर्वजों ने जीना सिखलाया लेकिन हम उनको कहाँ आदर्श मानते हैं। अपने पूर्वजों के आदशों को याद करो, उनके ऋणी बनो और देश को ऋण से मुक्त करो, आजादी की स्वर्ण जयन्ती पर देश को कर्ज से मुक्त करने का संकल्प ली, यही सच्ची भारतीयता-राष्ट्रीयता है। यह कैसी विडम्बना है कि भारत का धन विदेशों में रखा है और भारत अपना ही धन अपने लिए कर्ज के रूप में ले रहा है। अपनी मुद्रा विदेश में रखकर और विदेशी मुद्रा के लिए मांस बेचकर विदेशी मुद्रा कमा रहा है? यह कौन-सी कमाई है कि अपने धन को नष्ट करना और विदेश के धन को इकट्ठा करना, यह अर्थनीति नहीं, यह तो अनर्थनीति है। इस अनर्थनीति को पहले समाप्त करो अन्यथा देश कभी भी आर्थिक सम्पन्न न होगा। कोई भी पार्टी हो, वह सत्ता की ओर न देखें परन्तु देश की सत्ता देश की अस्मिता की ओर देखें, सत्ता की ओर देखने से अहंकार होता है, स्वार्थ होता है लेकिन जब हम देश की सत्ता-अस्मिता की ओर देखते हैं तो स्वाभिमान होता है, कर्तव्य का बोध होता है, दायित्व का बोध होता है। सत्ता (पार्टी) की ओर मत देखो, देश की अस्मिता की ओर देखो, भले तुम किसी भी पक्ष के रहो। चाहे तुम पक्ष के हो या विपक्ष के लेकिन देश का पक्ष कभी भी मत भूलना, यह देश की अस्मिता को देखने का अर्थ है जो व्यक्ति देश का पक्ष लेगा वह अपना धन विदेश में नहीं रख सकता। देश को कर्जदार नहीं बना सकता है इसलिए तुम भी याद रखो - "मरना है तो मरजा लेकिन मरने से पहले कुछ कर जा पर न कर कजा" देश के लिए कुछ कर जाओ लेकिन कर्जा मत करना, हमने आज भारत की क्या दशा कर दी। -१९९७, नेमावर
  10. जिस दिन देश की कृषि समाप्त हो जाएगी, वहाँ दाने-दाने की भुखमरी मच जाएगी। देश की जिन्दगी कृषि पर आधारित है, मशीनों पर नहीं। सोना, चाँदी, हीरा मोती से हम अपना पेट नहीं भर सकते, पेट भरने के लिए कृषि चाहिए, अनाज चाहिए, फसल चाहिए। जब खेत में फसल खड़ी नहीं होगी तब भारत का क्या होगा? फिर हमारा क्या होगा? हमारे खेतों में फसल खड़ी है इसलिए हम भी खड़े हैं, यानि जीवित हैं। फसल के अभाव में चारों ओर भुखमरी मच जाएगी। देश की रक्षा के लिए कृषि की रक्षा अनिवार्य है और वह कृषि की रक्षा इन कीटनाशक दवाओं से नहीं होगी, रासायनिक जहरीली खादों से नहीं होगी। कृषि की रक्षा के लिए हमको अपनी प्राचीन कृषि प्रणाली अपनाना होगी। पहले समय में हमारे यहाँ खेत में जिस खाद का प्रयोग किया जाता था, वह गोबर खाद थी। गोबर की खाद जहाँ डाली जाती है, वहाँ की फसल भी अच्छी होती है और धरती की उत्पादन क्षमता का हास नहीं होता। प्रयोगों से यह भी पता चला है कि 'गोबर की खाद देने से गरमी के दिनों में खेत में उतनी नमी रहती है, जितनी लगभग डेढ़ इंच पानी बरसने से रहती है।” हम गोबर की खाद का प्रयोग करें, गोबर की खाद से जमीन कभी नष्ट नहीं हो सकती, गोबर की खाद का प्रभाव पर्यावरण पर बहुत अच्छा पड़ता है। जो कभी भी नुकसानदायक नहीं है। यदि हमने अपनी भारतीय कृषि व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया तो इसके परिणाम बहुत बुरे होंगे। गाय और गोबर दोनों पर्यावरण के संरक्षक हैं, ये पृथ्वी के भार नहीं है। गाय जितना खाती हैं, उससे अधिक खाद देती है। यह प्रयोग द्वारा सिद्ध हो गया है कि जहाँ गाय-बैल आदि रहते हैं, उस स्थान पर यदि टी.बी. के मरीज को बैठा दिया जाए तो उसकी बीमारी ठीक हो जाती है। इन जानवरों का हमारे जीवन में बहुत बड़ा योगदान है। ये जानवर पर्यावरण के संरक्षक हैं, हमारा कर्तव्य है कि हम पशुओं की सुरक्षा करें, पशुओं को सुरक्षित रखकर ही पर्यावरण की सुरक्षा हो सकती है। -१९९७, नेमावर
  11. हम अपने खेत में इन जहरीली रासायनिक खादों को डालकर धरती के साथ अन्याय न करें, धरती को बीमार न करें, उसके साथ खिलवाड़ न करें, धरती ही जीवन है। यदि धरती बीमार हो जाएगी तो समझ लेना उसी क्षण यहाँ की हरियाली नष्ट हो जाएगी। याद रखो! हरियाली के नष्ट होने पर आदमी का जीना मुश्किल हो जाएगा, हरियाली के अभाव में आप खा नहीं सकेंगे, जी नहीं सकेंगे, सो नहीं सकेंगे। यदि जीवन की रक्षा चाहते हो तो हरियाली की रक्षा करो, पर्यावरण की रक्षा करो, धरती की रक्षा करो, बचाओ पर्यावरण, नहीं तो अकालमरण। -१९९७, नेमावर
  12. आज इस विज्ञान के युग में भी धरती के साथ अन्याय हो रहा है, पर्यावरण का सत्यानाश हो रहा है। जल, जंगल, जमीन, जानवर और जनता प्रदूषित हो चुकी है। पर्यावरण की खराबी के लिए सबसे बड़ा प्रदूषण रासायनिक खादों का है। इन जहरीली रासायनिक खादों के कारण फसल प्रदूषित हो चुकी है। फल, सब्जियाँ, अनाज प्रदूषित हो चुके हैं, जल और वायु प्रदूषित हो चुके हैं। आज हमारे पास न शुद्ध अनाज है और न जल । जो अनाज हम खा रहे हैं, वह जहरीला है क्योंकि उसमें भी जहरीले रासायनिक खादों का अंश मिला है। कीटनाशक दवाएँ भी पर्यावरण को प्रदूषित कर रही हैं। आज अनेक राष्ट्रों में जहरीली दवाएँ पर्यावरण को प्रदूषित कर रही हैं। आज अनेक राष्ट्रों में अनेक जहरीली दवाओं एवं कीटनाशकों पर प्रतिबन्ध लग चुका है लेकिन यह तो भारत है, जहाँ सब कुछ खुल्लम-खुल्ला बिक रहा है। हमारी बीमारियाँ इन्हीं जहरीली उर्वरकों का परिणाम हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण को प्रदूषण से बचाया जाए और इसके लिए तमाम रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों, दवाओं के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाए। ये रासायनिक खादें धरती को जला रही हैं, धरती की उपजाऊ शक्ति को नष्ट कर रही हैं, धरती के पास जो अपनी निजी शक्ति है, उसको तबाह कर रही हैं। यदि इसी प्रकार इन रासायनिक खादों का प्रयोग होता रहा तो एक दिन सारी धरती बंजर हो जायेगी। जहाँ आज फसल उगती है, वहाँ पर घास तक पैदा नहीं होगी। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है कोल्हापुर, सांगली (महाराष्ट्र) के पास की हजारों एकड़ जमीन, आज बाँझ हो चुकी है। वहाँ न तो फसल होती है और मकान ही बना सकते हैं क्योंकि दल-दल हो चुकी है, उसमें क्षार की मात्रा अधिक बढ़ चुकी है। भले आज इन खादों से फसल की मात्रा बढ़ी है लेकिन आगामी समय में उन खेतों की स्थिती बड़ी खराब हो जायेगी। -१९९७, नेमावर
  13. (श्री दिगम्बर जैन चन्द्रगिरि तीर्थक्षेत्र डोंगरगढ़, (छ.ग.) जून २०१७ में राष्ट्रीय चिंतक संत शिरोमणि जैनाचार्य प.पू. गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज से प्रिंट मीडिया एवं दूश्य मीडिया के संवाद) पत्रकार - आचार्य श्री आप कन्नड भाषी हैं और आपने हिन्दी पर अपनी पकड़ बनाई, आप हिन्दी पर बहुत जोर दे रहे हैं, आपने प्रतिभास्थली शिक्षण संस्था में एवं अन्य दूसरे शिक्षण संस्थानों में भी हिन्दी माध्यम से पढ़ाई पर जोर दे रहे हैं, जबकि सम्पूर्ण देश या विश्व की बात करें तो वे अंग्रेजी भाषा की तरफ बढ़ रहे हैं, इससे आप कितने सफल हो पाएँगे? आचार्य श्री- जोर देने की बात नहीं है, वस्तुस्थिति है कि जो भी देश उन्नति कर रहे हैं वे अपनी भाषा के बल पर कर रहे हैं। अपनी भाषा को भुलाने से कभी भी उन्नति हो नहीं सकती। अपना भी एक इतिहास है सभी भारतीय भाषाएँ ऐतिहासिक हैं। विश्व में भारत एक ऐसा देश है जहाँ अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। उनको समाप्त करके एक विदेशी भाषा को ग्रहण करना, उसमें शिक्षा देना, संस्कार देना, जीवन बनाना संभव ही नहीं है। यह गलत धारणा है कि अंग्रेजी बहुत व्यापक है। उदाहरण आप सबके सामने है। रूस में, जर्मन में, जापान में, चीन में, इजराइल में, कोरिया में अनेकों ऐसे छोटे-बड़े देश हैं जहाँ पर अंग्रेजी नहीं है और वे विश्व में उन्नत श्रेणी में आते हैं। भारत को क्या हो गया? अपनी भाषा स्वीकारने में कौनसी बीमारी आ गई? ना अपनाने के कारण हमारा देश उन्नत नहीं हो पा रहा है। पढ़े लिखों की यह गलत धारणा बन गई है कि अंग्रेजी के बिना विकास नहीं हो सकता है, क्योंकि उन्होंने उसी भाषा में पढ़ा है। जब तक अपनी भाषा पर पकड़ नहीं होगी। तब तक आप उन्नत कैसे हो सकते हो? विचार करो जितने भी देश परतंत्र हुए थे वे स्वतंत्र होते ही उन्होंने अपनी भाषा पर पहला कदम रख दिया था और भारत को ७0 साल हो गए हैं, गलत धारणा में जी रहा है। यह आप भूल जाइए कि आपका चित अंग्रेजी भाषा में ही चल सकता है विदेशी भाषा में आपका चिंतन नहीं चल सकता। आप है। अपनी भाषा पर स्वाभिमान तो रखना ही चाहिए। पत्रकार - महाराज श्री! आपने मूकमाटी (महाकाव्य) हिन्दी में लिखा जबकि आप कन्नड़ भाषी होते हुए भी काव्य हिन्दी में लिख रहे हैं; इसके बारे में हम जानना चाहेंगे? आचार्य श्री - ऐसा है, हमने जहाँ शिक्षा-दीक्षा पाई वह स्थान हिन्दी का है। हमारे गुरुजी ने हमें हिन्दी एवं संस्कृत के माध्यम से पढ़ाई कराई, संस्कृत ग्रन्थों की हिन्दी में व्याख्या बताई तो हिन्दी में भाव बनते चले गए। हिन्दी अच्छे से पकड़ में आ गई, दूसरी बात यह सोची कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, उत्तरांचल, उत्तरप्रदेश, बिहार, में हिन्दी के माध्यम से अध्ययन चलता है। जब इन प्रान्तों में विधि-लाँ या न्याय-अन्याय की घोषणा हिन्दी भाषा में होती है तो फिर विचार आया कि इधर-उधर की भाषा में लिखने से क्या फायदा? जो अधिक लोग हैं उनको पहले तैयार करके देना श्रेष्ठ है। भारत की आधी आबादी इन प्रान्तों में ही बसती है। कन्नड़ में लिखेंगे तो उसमें संख्या कम है, कम लोगों को लाभ मिलेगा।इसलिए गुरु का ही अनुकरण किया।
  14. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज जी ने कुछ वर्ष पीछे वर्तमान शिक्षा और देश की विसंगति को देखते हुए अटल जी के नाम से हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना की और विज्ञान, चिकित्सा, प्रबंधन, न्याय आदि विषयों की अंग्रेजी पुस्तकों को हिन्दी में अनुवाद करने का संकल्प लिया। ये बहुत अच्छा संकल्प है। बहुत सारे विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम के कारण इन विषयों के अध्ययन से वंचित रह जाते हैं। फलस्वरूप कुछ विद्यार्थी ही अंग्रेजी के माध्यम से आगे पढ़ पाते हैं। आज यदि भारत यह विचार कर ले कि विदेशी भाषा की अपेक्षा भारतीय भाषा में बच्चों का पठन पाठन होगा तो भारतीय प्राचीन विद्या के माध्यम से हम विद्यानिष्ठ बनकर पूर्णत: विकसित हो जाएँगे। भाषा एक ऐसी वस्तु है जिसके माध्यम से हम अपने भावों को सहज रूप से अशिक्षित लोगों तक पहुँचा सकते हैं। जहाँ जैसी सुविधा हो वैसी व्यवस्था होना चाहिए। भारत में भारतीय भाषाओं, मातृभाषाओं में शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि हम इतिहास को पुन: दुहरा सकें और हर व्यक्ति विद्यावान् होकर अपने पैरों पर खड़े होकर जीवनयापन करते हुए सुख शान्ति, आनंद का लाभ ले सके। जब तक अनुसंधानकर्ता भाषा के ऊपर अधिकार नहीं रखता तब तक उसका शोध, उसका बोध गहराई तक नहीं पहुँच पाता। अभिव्यक्ति में वह गलती कर जाता है और उस गलती के कारण उसे नम्बर और उसकी योग्यता का मूल्यांकन नहीं हो पाता है। किसी की योग्यता का मूल्यांकन सही-सही करने के लिए भाषा एक बहुत सख्त महान् शस्त्र है, जिसे आप लोगों ने भुला दिया है। अब धीरे-धीरे वह । सामने आ रहा है। शिक्षा का माध्यम अलग वस्तु है और अन्य भाषा का ज्ञान करना अलग वस्तु है। इंग्लिश का विरोध नहीं कर रहा हूँ, इंग्लिश को आप एक भाषा के रूप में पढ़िए किन्तु माध्यम के रूप में नहीं। अपने भावों का माध्यम वही होना चाहिए जो मातृभाषा है, जिस भाषा को माँ ने सिखाया है। माँ के द्वारा दी गई कला को छोड़कर अन्य भाषा को आप सीख तो सकते हैं, किन्तु उसमें अपने भावों को अच्छे से, पूर्णरूप से प्रस्तुत नहीं कर सकते। अत: मातृभाषा में पढ़ने, लिखने, बोलने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। शिक्षा की मजबूरी के रूप में आंग्ल भाषा की परतंत्रता लादना ठीक नहीं है। इस परतंत्रता को फेक देना चाहिए। आप लोगों को ऐसा कहना मेरा अधिकार तो नहीं है, विधानसभा में ऐसा बोलने में मुझे संकोच हो रहा है। आपने निमंत्रण दिया सो आ गया; इसलिए बोल दिया। बस, इतना ही कहना चाहता हूँ कि जो भाषा हमारे ऊपर थोपी गई है उसके बारे में हमें पुन: सोचना होगा। पहले भी खूब सोचा जा चुका है किन्तु समय-समय की स्थिति-परिस्थिति भिन्न-भिन्न हुआ करती है। अब भारत पूर्णत: स्वतंत्र है। १७ वीं-१८ वीं शताब्दी में भारत क्या था?. इसके बारे में विदेशी लेखकों ने बहुत खोजबीन करने के बाद लिखा है। उसका अनुवाद राष्ट्रीय चिंतक धर्मपाल इत्यादि ने किया है। जिसका नाम ‘ब्यूटीफुल ट्री' के रूप में प्रस्तुत है। उन्होंने ब्यूटीफुल विद्या-शिक्षा की अपेक्षा से लिखा है कि भारत वह वैज्ञानिक क्षेत्र था जहाँ से सारे के सारे विश्व के वैज्ञानिक सीखकर के गए हैं। उसमें यह भी लिखा है कि भारत में ऐसा लौह तत्व का आविष्कार होता था जिसमें कभी जंग नहीं लगती थी। १८ वीं शताब्दी तक उस प्रकार का आविष्कार अन्य किसी देश में नहीं होता था। भारत से ही पूरे विश्व में भेजा जाता था। उस लौह तत्व से बने औजारों से शल्य चिकित्सा की जाती थी। उस लौह से बने स्तंभ दिल्ली में आज भी मौजूद हैं। अंग्रेजी पढ़ने-लिखने वाले अपने स्वाभिमान से च्युत हो गए हैं। उन्हें भारतीय इतिहास का ज्ञान न होने के कारण यूरोप आदि अच्छे लगते हैं। जरा इतिहास उठाकर पढ़ो, कम से कम वह पुस्तक तो जरूर पढ़ो उसमें लिखा है-भारत कृषि प्रधान देश है यह बात बिल्कुल सही है। आज कृषि विज्ञान कितना उन्नत है? यह आप देख लें वर्तमान में एक एकड़ में अधिक से अधिक ३६ किंवटल अनाज होता है। ऐसा बताया है किन्तु १८वीं शताब्दी के समय तक एक एकड़ में ५६ किंवटल धान निकलता था। अब मुझे आप ही लोग बताएँ उस समय कौन-सा कृषि विज्ञान था। आप लोगों ने भारत के बारे में सोचना छोड़ दिया है। भारत के बारे में सोची, राष्ट्र के बारे में सोची, इधर-उधर जाने की अपेक्षा 'भारत में लौट आओ। भारत के इतिहास को पुनः लौटाना परम आवश्यकता है। आप इसको नोट कर लीजिएगा कि विश्व में भारत जैसा इतिहास नहीं मिलेगा। ये विषय तो प्रशासकीय परीक्षाओं में भी दर्ज किया जाना चाहिए। आज इतिहास के नाम पर विद्यार्थियों को बाहरी संस्कृति के इतिहास को पढ़ाया जा रहा है और परीक्षाएँ पास कराई जा रहीं हैं। भारत के प्राचीन और सच्चे सांस्कृतिक इतिहास को गौण किया जा रहा है। जब हमने ‘ब्यूटीफुल ट्री' पुस्तक विद्यार्थियों को दी तो उसको पढ़ने के उपरान्त उनकी आँखों में पानी आ गया। वो कहने लगे महाराज! हमारा खून उबल रहा है क्योंकि यह सब हम लोगों से ओझल रखा गया है-छिपाया गया है। अनुसंधान के क्षेत्र में भी भारत बहुत ही आगे था, लेकिन आज अनुसंधान केवल विदेश में ही होता है। विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करके अनुसंधान के लिए विदेश जा रहे हैं और अनुसंधान करने के बाद वे उसी देश के हो जाते हैं। उसी के लिए सब कुछ करते हैं। वे भारतभूमि के लिए कुछ नहीं करते। हमें मूल की रक्षा करनी होगी। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में थोड़ा परिवर्तन लाना होगा। जिसके द्वारा जीवन उपयोगी वस्तुओं का निर्माण कर सके, वही शिक्षा होनी चाहिए। जो शिक्षा पराश्रित करे वह शिक्षा सही शिक्षा नहीं। शिक्षा से तो स्वस्थ मन, स्वस्थ वचन, स्वस्थ तन, स्वस्थ धन की प्राप्ति होना चाहिए। शिक्षा से नीति न्याय के संस्कार मिलें तभी तो शिक्षार्थी सभ्य मानव बन सकेगा। शिक्षा के माध्यम से अध्यात्म के संस्कार दिए जाने चाहिए जिससे जीवन में कैसे भी संकट आ जाएँ तो वह घबराकर जीवन को पतन की ओर न ले जाए। उसमें साहस और संबल प्रकट हो सके और अपने दायित्व को पूर्ण कर सके। ऐसी शिक्षा भारत में होती थी। यही होना चाहिए इस दिशा में शिक्षाविद् मिलकर के आगे आएँ कार्य करें। इस प्रकार वीणा उठाने की आवश्यकता है। इतिहास पढ़ने से ज्ञात होता है कि भारत में शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में पैसे या शुल्क नहीं लिया जाता था। व्यावसायिक दृष्टिकोण नहीं रहा किन्तु आज उस इतिहास को भुला दिया गया है और शिक्षा, चिकित्सा दोनों ही व्यवसाय बन गए हैं। इस कारण पढ़ने वाले विद्यार्थियों का उद्देश्य भी मात्र पैसा कमाना रह गया है। वह येन-केनप्रकारेण पैसा कमाने के लिए अनीति-अन्याय का सहारा ले रहा है या फिर देश से पलायन कर रहा है। भारत को पुन: सोने की चिड़िया बनाने के लिए अपने पुरातत्व की ओर लौटना होगा, जो पूरा तत्व है। ऐसे ऐतिहासिक नीतियों को अपनाकर वह कार्य हम कर सकते हैं और इसके लिए युवा शक्ति को जागृत करने की आवश्यकता है। भारत को जो स्वतंत्रता मिली है वह इसी उद्देश्य को लेकर के मिली है। तभी भारत का उद्धार हो सकता है जब इस उद्देश्य को पूर्ण किया जाए। जिन्होंने अपना परिश्रम करके स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने जीवन का होम कर दिया, आहुति दे दी। उनका अनुग्रह, उनका उपकार, उनका ऋण हमें चुकाना होगा और यह तभी चुक सकेगा जब हम उस भारतीय पुरातन ऐतिहासिक शिक्षा, चिकित्सा को अपनी पीढ़ियों को देंगे। यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। -२८ जुलाई २o१६, विधानसभा, भोपाल
  15. एक लेख पढ़ा था, वह लेख एक बहुत बड़े उद्योगपति का था। उनके पास अपार संपति थी उन्होंने अपने बच्चों के लिए एक पत्र लिखा था संभवत: आप लोगों को याद हो, मुझे याद आ रहा है। उन्होंने लिखा था-प्यारे बच्चो! आप लोग बहुत संपदा के बीच में आए हो। संपदा जो भी संगृहीत हुई है यह आपकी नहीं है। इसके असली उपभोक्ता आप नहीं हैं। यह श्रम की एक मात्र प्रस्तुति है, श्रम की फलश्रुति है। इसके उपभोक्ता जन-जन हैं। आप लोग तो इसकी एक कड़ी मात्र हैं। इसलिए इस संपदा पर अभिमान करना आप लोगों की मूर्खता होगी। यह पत्र उन्होंने अपने बच्चों को लाईन पर लाने के लिए, सही रास्ते पर चलाने के लिए लिखा था। यदि आप लोगों ने नहीं पढ़ा हो तो अवश्य पढ़ना और ऐसे आदर्श नागरिक से शिक्षा लेना और अपने बच्चों को धन वितरण के संस्कार देना, जिसे दान कहते हैं। दान के संस्कारों से उनमें अभिमान नहीं पनप पाएगा और वे कुसंस्कारों में नहीं फैंस पाएँगे, दुर्गतियों से भी बच जाएँगे। ये संस्कार भारतीय संस्कृति के संस्कार हैं। -२८ जुलाई २०१६, मध्यप्रदेश विधानसभा, भोपाल
  16. विद्यालय विद्यालय ही रहें। विद्या का लय नहीं हो अपितु वह विद्या का आलय बना रहे, छात्र एवं छात्राएँ विद्या पाने आपके पास आए हैं। उनकी स्लेट बिल्कुल कोरी है, अच्छे विचार उस पर डालोगे तो वतन की रक्षा स्वाभाविक है और वतन ही नहीं देखना है, चेतन को भी देखें। चार बातें शिक्षकों एवं संचालकों को ध्यान में रखना चाहिए-(१) स्वाभिमानी बनना-बनाना, (२) स्वाश्रित होना-करना, (३) नीति-न्याय बनाए रखना-रखवाना, (४) दया-सेवा का भाव होना-देना। शिक्षा के ये चार उद्देश्य होना चाहिए। तभी शिक्षा स्वपरोपकारी होगी। इसी से हम अपने प्राचीन स्वरूप में पहुँच सकते हैं। ७0 वर्ष पूर्व हम स्वतंत्र तो हुए पर मानसिकरूप से परतंत्र होते जा रहे हैं। जब भारत स्वतंत्र हो गया था तब यह तय किया गया था कि राजकार्य हिन्दी भाषा में करने से हम आगे बढ़ेंगे, हम संगठित होंगे, शक्ति सम्पन्न बनेंगे। तब नियम भी लिया गया था और कहा गया था कि १२ वर्ष तक हिन्दी में काम करेंगे तो अंग्रेजी के समकक्ष हो जावेंगे। बी. ए. कक्षा की एक पुस्तक मुझे किसी ने दिखाई तो उसमें पढ़ा कि चीन हमसे दो-ढाई वर्ष बाद स्वतंत्र हुआ तो वहाँ के जो शासनकर्ता थे उन्होंने चीनी भाषा में काम करने की बात रखी तो उनका मंत्रिमण्डल बोला-इसको अमल में लाने के लिए ७-८ वर्ष की आवश्यकता है। तब उनका नेतृत्व करने वाले बोले-समय जितना चाहे लगे किन्तु हम आज ही संकल्प करते हैं कि कल से नहीं आज से ही चीनी भाषा में काम करेंगे और वैसा ही करके उन्होंने पूरे विश्व को दिखा दिया अपना संगठन, शक्ति और वैभव । जिनके अंदर स्वाभिमान हो तभी ऐसा हो सकता है। हिन्दी माध्यम से ही पढ़ाई एवं शोध होना चाहिए। विचार करें, क्या अंग्रेजी के अतिरिक्त शोध नहीं होते? अपनी दृष्टि को विश्वपटल पर रखो तो सब अंधकर छट जाएगा। अंग्रेजी भारतीय भाषा नहीं अत: भारत की भाषा में ही अनुसंधान होना चाहिए और अपनी भाषा पर स्वाभिमान आप लोगों में जागृत होना चाहिए। शिक्षा का वास्तविक अर्थ व्यक्तिगत निर्माण, संस्कृति की रक्षा और समाज की उन्नति होता है परन्तु आज की शिक्षा रास्ते से भटक गई है। -१५ जुलाई २०१६, सती कॉलेज, विदिशा
  17. शान बाहर नहीं हमारे भीतर है; यह ज्ञान होना भी पहले आवश्यक है। भारत का एक इतिहास रहा जब भी पढ़ते हैं, तो गर्व से मस्तक ऊँचा हो जाता है। भारत के पास ऐसी क्षमता है, कला है, वह कुछ भी नहीं रखते हुए भी सब कुछ रखता है। भारत कुछ भी माँगता नहीं है, लेकिन कभी-कभी प्रमाद (आलस्य, अज्ञानता) के कारण अपने आदर्श मार्ग से भटक जाता है और विश्व की भटकन में शामिल हो जाता है। इसलिए आवश्यक है पहले अपने आप को जानना, पहचानना और संभालना। तभी दूसरे को संभाल सकते हैं। यदि भारत स्वयं संभल जाए तो विश्व तो संभल ही जाएगा। भारत को विश्वगुरु बनने में समय नहीं लगेगा। हम विपरीत दिशा में काम करते हैं। सही दिशा में नहीं इसलिए अपने ज्ञान को सही स्वरूप में ढाल नहीं पाते हैं। आचरण के माध्यम से अहित का अभाव होता है और हित का संपादन भी संभव है। भारत में श्रम होता है। इस कारण कोई अनाथ नहीं है। श्रम तो स्वास्थ्यवर्धक भी है। आज इस युग में संख्या की अपेक्षा बहुत विद्यालय खुल गए हैं। बुला बुलाकर भर्ती किया जा रहा है, लालच भी दिया जा रहा है, गाँव-गाँव में विज्ञापन किए जाते हैं, गाँव के विद्यार्थी सीधे-साधे होते हैं, वे ऐसे एजेंट के मकड़जाल में फेंस जाते हैं। विद्यार्थी विद्या के लिए हैं। व्यवसाय के लिए नहीं। आज बड़े-बड़े व्यवसायी हो गए हैं। उन्होंने विद्या को ही व्यवसाय बना लिया है। अब तो विद्यालय से विद्या का ही लय (विलय) हो गया है जबकि विद्या का अर्थ है-अज्ञान का विनाश एवं ज्ञान का प्रकाश। आज तो विद्यालय की शिक्षा की तरह चिकित्सा में भी बहुत बड़ा बदलाव हो गया है। हर जगह व्यवसायिक दृष्टि हो गई है। हम शिक्षक एवं शिक्षिकाओं से यह बात कहना चाहेंगे कि बागवान की तरह पेड़ की रक्षा करें। बच्चों को श्रम करना सिखाएँ क्योंकि बच्चों में बहुत कुछ करने की क्षमता होती है। आज तो सब वेतन की ओर देख रहे हैं। चेतन को भूलते ही जा रहे हैं और वतन बेचारा चिल्लाता ही रह जाता है। मुरझा रहा है भारत, उसे बागवान रूपी शिक्षकों की जरूरत है। जो गम्भीरता से देखें भारत क्यों मुरझा रहा है और अपनी संस्कृति को क्यों खो रहा है? योग्य विद्यार्थियों को भी लॉन लेना पड़ रहा है। विद्यालयों को अपनी कमाई करने के लिए विद्यार्थियों को लॉन लेने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। इतना सब कुछ करने के बाद भी वह विद्यार्थी पढ़-लिखकर ४-५ हजार रुपए के लिए हाथ फैलाता है। यह भारत के लिए शर्मनाक और दयनीय स्थिति है। इससे तो देश का भविष्य अन्धकारमय बनेगा। आये दिन अखबारों के समाचार लोग लाकर बताते हैं। विद्यालय पर विद्यालय खुलते ही जा रहे हैं। पता चलता है कि ये सारे के सारे विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय चाहे वे चिकित्सा के हों, प्रबन्धन के हों, इंजीनियरिंग के हों, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नेताओं के द्वारा खोले जा रहे हैं। क्यों खोले जा रहे हैं? ये आप सब जानते हैं कि जिसने पूँजी लगाई है वह उससे कई गुना कमाने की कोशिश करता है। जिस देश में सरस्वती का स्वागत नहीं, उस देश में लक्ष्मी भी नहीं रहेगी। लक्ष्मी बरस भी जाए तो वह रुकने वाली नहीं। किसी न किसी रूप में वह भाग जाती है। अर्थ के लिए कहीं परमार्थ को न भूल जाएँ इसलिए मुझे कहना पड़ रहा है। श्रम करना सबसे बड़ा मंत्र है। श्रम से ही आगे बढ़ा जा सकता है। इस हेतु हमें अपने विवेक एवं ज्ञान को जागृत करना होगा। विज्ञान की चिंता नहीं करना। भारत का इतिहास बहुत महत्वपूर्ण है। हथकरघा भारत का इतिहास है, जिसे युग के आदि में भगवान ऋषभदेव ने रचा है। यन्त्र-मन्त्र के इस युग में हम स्वतन्त्र तो हो गए, किन्तु इस युग में हमारी धरती की उर्वरा शक्ति नष्ट हो गई है। चारों ओर से क्षति पहुँचाने वाले विचार आ गए हैं। भारत गरीब होता जा रहा है, क्योंकि श्रम और आचरण के बिना जो खा रहा है। उसे पचा नहीं पा रहा है और विदेशों द्वारा निर्मित विशेष दवाईयाँ खाना पड़ रही हैं। आज विद्यार्थी लोग विदेश जाएँगे तो यही होगा। सरकार को जागना होगा। चिकित्सा एवं शिक्षा दोनों विभागों के लिए सोचें। तभी भारत को आगे बढ़ा सकते हैं। लॉन लेकर अपना जीवन चलाना ठीक नहीं। इस संस्कृति को बदलना होगा। पहले ऐसा नहीं होता था। भारत को अपने स्वाभिमान को बनाए रखना होगा। भारत में जन्म लेकर विदेश में जा रहे हैं जो उन्हें भारत के इतिहास के बारे में मालूम नहीं है। सुख क्या है? पढ़ा था। स्वर्गीय सुख कहा जाता है, यह सुख विषयों में नहीं, इन्द्रियों में नहीं, पैसों में भी नहीं यह हमें बच्चों को शुरु से ही सिखाना है। तभी हम पुन: अपनी जड़ों में लौट पाएँगे और उस सुख को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ पाएँगे। मैं भारत के नेताओं से कहना चाहता हूँ कि वे यह सूक्ति याद रखें-‘‘या विद्या सा विमुक्तये।” अर्थात् विद्या ऐसी हो जो मुक्ति का कारण हो। भारत सदैव बागवान की तरह भीतर झाँकने वाला देश रहा है। लक्ष्मी की ओर मत देखो, लक्ष्मी तो चंचल होती है, उसे बाँधने का प्रयास मत करो। सरस्वती कभी चंचला नहीं होती। जहाँ सरस्वती स्थिर हो जाती है वहाँ लक्ष्मी का वास रहता है। -१५ जुलाई २०१६, सती कॉलेज, विदिशा
  18. जीवन में यदि आगे बढ़ना है तो व्यवस्थित क्रम से ही आगे बड़ा जा सकता है। पहले भोजन फिर स्नान ये क्रम नहीं चलता है बल्कि स्नान के उपरान्त ही भोजन ग्रहण करके हम स्वस्थ रह सकते हैं। एक दिन एक युवा को तेज भूख लग रही थी उसने स्नान के पूर्व ही एकदम गरम भोजन ग्रहण कर लिया फिर ठंडे जल से स्नान कर लिया तो उसी दिन से उसको सिरदर्द की समस्या शुरु हो गई। व्यवस्थित क्रम से जीवन का निर्धारण करेंगे तो सही प्रबंधन हो सकेगा, व्यवस्था का मतलब ही है अवस्था के अनुसार प्रबंधन। जीवन के प्रबंधन की कला जानना भी बहुत जरूरी होता है क्योंकि प्रबंधन से ही बंधन से मुक्ति मिलती है, आज हरेक क्षेत्र में प्रबंधन का बहुत महत्व हो गया है क्योंकि अनेक संस्थाएँ उचित प्रबंधन के अभाव में समय से पूर्व ही अव्यवस्थित हो जाती हैं जिसके कारण वो स्वतः ही समाप्ति की कगार पर पहुँच जाती हैं। खानपान में सबसे अधिक प्रबंधन की आवश्यकता है क्योंकि आज दूषित वस्तुओं के चलन से युवा पीढ़ी समय से पहले प्रौढ़ हो रही है, रोगों के कालचक्र ने आपको घेर लिया है, यदि निरोगी रहना चाहते हो तो खानपान के क्रम को व्यवस्थित करो। अच्छे पेय पदार्थों को छोड़कर डिब्बा बंद पेय को प्राथमिकता देने के कारण ही युवा मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो रहे हैं। स्वच्छ और शुद्ध जल की जगह बोतल के जल का चलन भी हानिकारक सिद्ध हो रहा है क्योंकि उसमें जलीय तत्वों का अभाव रहता है। आपके बच्चों का पुण्य है जो उन्हें आप जैसे माता-पिता मिले हैं, परन्तु आपका पुण्य प्रबल तब कहलाएगा जब आप बच्चों को भारतीय संस्कारों से संस्कारित कर उन्हें जीवन प्रबंधन के गुण सिखाओगे। - २४ नवम्बर २०१६, गुरुवार, भोपाल
  19. जिस तरह पुराने रेडियो में हम एक स्टेशन लगाते थे और यदि हाथ हिल जाता था तो दूसरा स्टेशन लग जाता था तब गीत की जगह कोई अन्य कार्यक्रम सुनाई देने लगता था क्योंकि स्टेशन की रेंज बदल जाती थी और ये रेंज ऊपर लगे एरियल के माध्यम से मिलती थी। ठीक उसी प्रकार हमारे विचार रूपी विभिन्न स्टेशन हैं जो हमारे मस्तिष्क रूपी एरियल के माध्यम से बदलते रहते हैं। अच्छे विचारों वाला स्टेशन यदि लगाना है तो मस्तिष्क को निर्मल बनाना होगा। स्थिरता लाने पर ही हम एक विचारों वाले स्टेशन पर टिके रह सकते हैं अन्यथा भटकते रहेंगे फिर हम जैसे गुरुओं की कूबत भी नहीं है कि आपको भटकाव से रोक सकें। आजकल की धारणाएँ नकल पर आधारित होती जा रही हैं इसलिए अक्ल को ठण्डे बस्ते में डाल दिया है। नकल से भौतिक परीक्षा तो पास की जा सकती है परन्तु जीवन की असल परीक्षा बिना अक्ल के पास नहीं की जा सकती है। अपनी क्षमताओं का बेहतर उपयोग ही आपको सही दिशा और दशा प्रदान कर सकते हैं इसलिए अपनी क्षमताओं को बेहतर से बेहतर बनाएँ। -२३ नवम्बर २०१६, बुधवार, भोपाल
  20. अब भगवान की आराधना के लिए युवाओं में जागृति लाने का कार्य कीजिये और जो दूर-दराज के विद्यार्थी राजधानी में अध्ययनरत हैं उन्हें प्रेरित कीजिये। ऐसी व्यवस्था बनाइए कि वे धर्मायतनों के आस-पास ही रहकर अध्ययन कर सकें और इसके लिए व्यवस्थित छात्रावास होना चाहिए। संस्कारों को यदि प्रतिष्ठापित करना चाहते हैं तो सबसे पहले ये काम प्रारम्भ कीजिये। कोई भी काम करने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत होती है जैसे मुम्बई में टिफिन का कार्य शाकाहारी कुछ लोगों द्वारा प्रारम्भ किया गया था; जो आज सफलता पूर्वक चल रहा है, आपके यहाँ भी आप ऐसे रचनात्मक कार्य कर सकते हैं जिनसे विद्यार्थियों को शुद्ध आहार मिल सके क्योंकि शुद्ध आहार से ही बुद्धि का विकास होता है। -८ नवम्बर २०१६, भोपाल
  21. (शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नईदिल्ली एवं श्री दिगम्बर जैन पंचायत कमेटी ट्रस्ट, भोपाल के सम्मिलित आयोजकत्व में ४ नवम्बर २o१६ को आचार्य श्री विद्यासागर के ससंघ सान्निध्य में शुभारम्भ जैन मन्दिर हबीबगंज, भोपाल) चित्र अनावरण राज्यपाल बिहार श्री रामनाथ जी कोविन्द,रमेशचंद जी अग्रवाल, अतुल कोठारी जी ने किया और फिर दीप प्रज्ज्वलित किया। श्रीमती और श्री कोविन्द जी तथा अन्य अतिथियों ने गुरुवर के चरणों में श्रीफल समर्पित कर आशीष ग्रहण किया। सभी अतिथियों ने गुरुवर के करकमलों में शास्त्र भेंट किया। विद्या की परछाईयाँ नामक कृति का विमोचन किया गया। मंगलाचरण प्रतिभास्थली की बहनों ने किया। कार्यक्रम संयोजक प्रो. वृषभप्रसाद जी जैन ने परिचर्चा की विषयवस्तु पर प्रकाश डालते हुए कहा कि शिक्षक और छात्र दोनों ही लगातार सीखने का प्रयत्न करते हैं। आज की भौतिक शिक्षा ने संस्कारों को छिन्न-भिन्न कर दिया। प्राचीन परम्पराओं पर कुठाराघात किया गया इस प्रणाली के माध्यम से। सरकार नयी शिक्षा नीति में आमूलचूल परिवर्तन करे उसके लिए ये दो दिवसीय मंथन का आयोजन है। शिक्षा परिषद् के अतुल कोठारी ने कहा कि भारत में ही शिक्षा निहित है। शिक्षा के विभिन्न आयामों को सीखने दुनियाभर के लोग यहाँ आते थे आज विदेशों में जाते हैं। जब हम भीतर की ओर झाँकने का प्रयास करते हैं तो सभी समस्याओं का समाधान मिल जाता है, एक दूसरे पर दोषारोपण करते हैं जबकि सभी की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है शिक्षा की इस दशा के लिए। जातिवाद, भाषावाद की गांठों को खोलने की जरूरत है। सबका कल्याण हो ऐसी शिक्षा नीति बननी चाहिए। प्रत्येक नागरिक को राष्ट्र के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, ऐसी शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा की नींव को मजबूत बनाने की जरूरत है। शिक्षा को बदलना है तो पहले मातृभाषा को मजबूत बनाना होगा, विदेशी भाषा को थोपाना देश के नागरिकों के अधिकारों पर कुठाराघात है। जिस देश को अपनी मातृभूमि, मातृभाषा पर अभिमान नहीं होगा वो देश कभी विकास नहीं कर सकता है। जैन धर्म के इतिहास को शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए। इस मंथन से हम अच्छा समाधान लेकर ही उठे ये भावना है। लेखक संक्रान्त सानू ने कहा कि अभिभावक चाहते हैं कि बच्चे का भविष्य उज्ज्वल हो। अंग्रेजी प्रगति की नहीं दुर्गति की भाषा है। सभी विकसित देश अपनी मातृभाषा के आधार पर ही विकास की धारा में बह रहे हैं। हमें शिक्षा में मातृभाषा का विकल्प खोलना होगा तभी शिक्षा में क्रान्ति आएगी। कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री रमेशचंद्र अग्रवाल ने कहा कि ये शिक्षा प्रणाली हमने नहीं बनाई अंग्रेजों ने थोपी है। अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना हम गर्व का विषय समझते हैं। भारत राजनीति के जाल में फैंस गया है इसलिए अंग्रेजी से मुक्त नहीं हो पा रहा। आज शिक्षा के साथ रोजगार की चिंता भी करना पड़ेगी। हम स्वयं अपनी भाषा में बड़े मंचों पर अपनी बात कहना प्रारम्भ करेंगे तभी तस्वीर को बदल सकते हैं। आज युवा योग्य हैं परन्तु भाषा की हीनभावना से जूझ रहे हैं। अपनी भावनाएँ अपनी मातृभाषा में ही अच्छे तरीके से कर सकते हैं। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल और आला अधिकारी आज गुरुवर के पास आ रहे हैं उसका एक ही कारण है सब भारतीय आध्यत्मिक ज्ञान को प्राप्त करना चाहते हैं। इस अवसर पर बिहार के राज्यपाल श्री रामनाथ कोविन्द ने कहा कि मैं यहाँ आचार्य श्री की अमृतमयी वाणी सुनने आया हूँ। आज नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला हमारी प्राचीन शिक्षा के केन्द्र रहे हैं जिसमें दुनिया के लोग आते थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति को जाना और दुनिया में विस्तारित किया। तीर्थ परम्परा को आचार्य श्री आगे बढ़ा रहे हैं। मैं भी शिक्षा न्यास से जुड़ा रहा हूँ ये अच्छा काम कर रहे हैं। जिनका वजूद नहीं है वे देश को अपना अधिकार समझते हैं। सही मायने में भारतीय परम्परा में पढ़ने और गढ़ने की परम्परा रही है। जो हुनर सीखने मिल रहा है उसे आचरण में लाने की परम्परा रही है। आज शिक्षा के सुधारों में समाधान की जरूरत है और आचार्य श्री ने कहा है कि जो भारत का अतीत रहा है उसे छोड़ना नहीं है तभी शिक्षा को मजबूत बनाया जा सकता है। समाधान अतीत में ही छिपा है बस उसे उजागर करने की जरूरत है। भारतीय जब गाँव से शहर की ओर जाता है तो अपनी सजगता को, संस्कृति को लेकर चलता है। अस्तित्व क्या है, उत्पत्ति कैसे है, ये जानना जरूरी है। लोग कहते हैं कि सरकार सुनती नहीं है, आपकी आवाज में दम होगा तो बहरी सरकार भी सुन लेती है। स्वर के मिलते ही व्यंजन में गति आ जाती है, आप स्वर बन जाएँ तो सरकार व्यंजन बन जाएगी। कर्ता यदि सरकार है तो कार्य की अनुमोदना आपको करना है। ७० वर्षों में सरकार ने यदि शिक्षा की दिशा में नहीं सोचा तो आप ही सरकार को बनाने बाले हैं। विद्यालय का अर्थ नहीं जान पाये तो ये चल क्या रहा है? क्यों स्कूल चलाए जा रहे हैं। आज बाबू बनने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसका अभिप्राय मानसिक रूप से गुलामी करना है। सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी माँ को पत्र लिखकर कहा था कि ‘बाबू बनने से अच्छा है, मैं राष्ट्र सेवा करूं।' आज नौकरी में पैकेज दहेज की तरह बन गया है जिसे पाने के लिए युवा लालायित हो रहे हैं। जिस वाक्य में कर्ता स्वतंत्र न हो उस वाक्य का कोई अर्थ नहीं है। बुद्धि यदि खराब हो जाए तो फिर ठीक नहीं हो सकती। ज्ञान को सही विषय मिल जाए तो ज्ञान को सही दिशा मिल जाती है, नहीं तो विकृति आने से ऊपर वाला भी नहीं रोक सकता है। हमारे यहाँ अंक से नहीं चलता, अनुभव से चलता है इसलिए अनुभव जरूरी है। सरकार सिंधु है जनता बिंदु है। बैठने का नाम सरकार नहीं होता है उसे तो जनता के हित में चलते रहना चाहिए। अपने अतीत को पुन: जागृत करने की जरूरत है। केवल वाणी का मंथन करने से नवनीत नहीं मिल सकता। विदेशी शिक्षा नीति ने भारत के इतिहास को पीछे धकेल दिया है। ७० वर्षों में भी मंथन से यदि कुछ नहीं निकला तो चिंता का विषय है। कर्ता का काम करने का है। जो अनुभवी लोग हैं उन्हें आगे आकर इस कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए। अनुभवी शिक्षाविद् इस दिशा में कार्य करें परन्तु इतिहास को सामने रखकर करें, अपने इतिहास की अच्छाईयों को उजागर करें तो स्वतंत्रता के साथ न्याय हो सकेगा। संस्कृति को संरक्षित करने पर ही सुख-शान्ति का अनुभव कर सकते हैं। आज श्रमिक बनकर ही हम राष्ट्र कल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। भारत की युवा शक्ति विराट है उसे केन्द्रित करने की जरूरत है, उसे मूल तत्व से जोड़ने की जरूरत है। हम समय को भी बाँध सकते हैं यदि प्रतिभा का सही उपयोग करें तो। -४ नवंबर २०१६, भोपाल
  22. 'शिक्षा और भारत'राष्ट्रीय परिचर्चा से पूर्व पत्रकार वार्ता ३ नबम्बर २o१६, भोपाल आयोजक-शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नईदिल्ली एवं श्री दिगम्बर जैन पंचायत कमेटी ट्रस्ट, भोपाल पत्रकार - महाराज श्री! आज की जो शिक्षा है उसमें माँ बाप अपने बच्चे को ज्यादा से ज्यादा पढ़ा-लिखाकर नौकर बनाना चाहते हैं, उस पर प्रकाश डालेंगे क्या आप? आचार्य श्री - हम यह कहना चाहेंगे कि ज्यादा पढ़ाई क्या होती है? पढ़ाई तो पढ़ाई है, जितनी शिक्षा आवश्यक है उतना पर्याप्त है। कुछ काम करोगे तो उम्र के हिसाब से अपने आप उसमें विकास होता चला जाएगा। मैं पढ़ाई का निषेध नहीं कर रहा हूँ, अभिभावकों को जितना पढ़ाना हो पढ़ाएँ, किन्तु यह विवेक अवश्य लगाएँ कि आपकी स्थिति-परिस्थिति क्या है? कुल-समाज-धर्म की परम्पराएँ-संस्कार क्या हैं? जीवन का उद्देश्य क्या है? जो शिक्षा नौकर बनाए वह शिक्षा शिक्षा नहीं कहलाती। शिक्षा तो वही है जो स्वाभिमान से जीने की कला सिखाए। नौकरी में स्वाभिमान कहाँ रहता है? सम्यक् शिक्षा वही है जो स्वावलम्बी बनाए, स्वावलम्बी के लिए व्यवसाय जरूरी है। पत्रकार - आचार्य श्री ! आज की शिक्षा में प्रतिस्पर्धा होने के कारण युवक-युवतियाँ असामयिक काल-कवलित हो रहे हैं? आचार्य श्री - यह प्रतिस्पर्धा आप लोगों ने तैयार की है शिक्षा में इस प्रकार की प्रणाली बना दी गई है कि बच्चे मनोवांछित सफलता न पाने के कारण घबरा जाते हैं, अवसाद में चले जाते हैं, क्योंकि उनके सामने माँ-बाप का भय बना रहता है। आप लोगों ने उनसे बहुत सारी अपेक्षाएँ जोड़ रखीं हैं। आप लोग इस प्रकार की प्रणाली छोड़ दीजिए तो अपने आप सब ठीक हो जाएगा। पत्रकार - महाराज श्री! आज शिक्षा बहुत मँहगी हो गई है और सरकारी स्कूलों में पढ़ाई हो नहीं रही है? ऐसे में क्या करें? आचार्य श्री - यह समस्या पैदा हो गई है, या कर दी गई है, यदि हो गई है तो मैं हिंदी भाषा को ठीक नहीं समझता हूँ। क्या अपने आप हो गई है? क्या भगवान की कृपा से हो गई है? हो कहाँ गई? शिक्षा को व्यवसाय बनाया गया है तो फिर मेंहगी कहाँ हो गई। वह तो की गई है और सरकारी स्कूलों में पढ़ाई हो नहीं रही है; यह कथन भी गलत है। जब पैसे वालों ने अपने बच्चे उन स्कूलों से निकाल लिए और स्टेंडर्ड के चक्कर में अंग्रेजी स्कूलों में डाल दिए है तो उन सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के बच्चे, डॉक्टरों और इंजीनियरों के बच्चे, नेताओं के बच्चे, बड़े अधिकारियों के बच्चे नहीं होने के कारण उन स्कूलों पर किन्हीं का ध्यान ही नहीं है कि पढ़ाई कैसी हो रही है और पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी कोई डर-भय नहीं है; इसलिए ऐसा हो रहा है।
  23. छत्तीसगढ़ की पावन धरा ओर एक मात्र तीर्थक्षेत्र श्री डोंगरगढ़ चंद्रगिरि ,पर आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज के ससंघ सान्निध्य में एवं ब्र. सुनील भैया इंदौर के निर्देशन में ऐतिहासिक वेदी शिलान्यास हुआ | आज प्रातः 8 बजे आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महामुनिराज ससंघ प्रतिभा स्थली के बनने बाले मंदिर स्थल पर पहुचे तो प्रतिभा स्थली में अध्यनरत छोटे छोटे बच्चों ने जय जयकारो से ओर श्रावको के उत्साह से पूरा वातावरण ही धर्ममय हो गया । आचार्य भगवन ने अपनी दिव्यदेशना में कहा कि रहने को घर तो पशु पक्षी भी बना लेते पर भगवान का मंदिर सिर्फ मनुष्य ही बनाता है जो जितना धन ,धर्म मे लगाता हो उसका उतना ही बढ़ता जाता है आज आप लोगो को दान के साथ साथ भावनाओ का भी ध्यान रखना चाहिए,आप सभी धर्म मार्ग में लगे रहे यही मेरा सबको आशीर्वाद | चंदाप्रभु तीर्थक्षेत्र कमेटी डोंगरगढ़ चंद्रगिरि
  24. जब लचक होती है तभी झुकने का उपक्रम होता है। तूफान में भी वही टिक पाते हैं जिनकी जड़ें मजबूत होती हैं, शीर्षासन से रक्त का संचार सही होता है इसलिए झुकने के परिणाम आने चाहिए। भारत को यदि बड़ा बनना है तो विनयशीलता को कायम रखना होगा। विनय से ही हम दूसरे के लिए पाठ्यक्रम बन सकते हैं। जो झुकने की कला सीख लेते हैं उन्हें फिर जीवन में किसी के सामने झुकने की जरूरत नहीं पड़ती है। -१ नवम्बर २०१६, मंगलवार, भोपाल
  25. जीवन में आचार, विचार, आहार और व्यवहार का विशेष ध्यान रखना चाहिए। आप लोग दृष्टि का उपयोग सही नहीं कर पा रहे हैं। अपने दृष्टिकोण को सही दिशा में ले जाना है तो उसका उपयोग सही करना होगा। ज्ञान तो हम लोगों के पास भी है, परन्तु अन्धकार के साथ है अर्थात् दिया तले अन्धेरा है। हमारा ज्ञान सामान्य है, अधूरा है। हरेक व्यक्ति के मन में भय व्याप्त होता है, भय रखने से भय कभी छूटता नहीं है। मृत्यु का भय सभी में व्याप्त है परन्तु मृत्यु होती किसकी है; ये नहीं जानते। जो सैनिक होता है वो कभी पीछे नहीं हटता, राजा और मंत्री एक कदम पीछे हट सकते हैं, किन्तु सैनिक के सामने मृत्यु भी खड़ी हो तो वो मृत्यु से नहीं डरता है। जो व्यक्ति जीवन और मृत्यु को समझ लेता है वो श्वांस और विश्वास से परिपूर्ण रहता है। -२३ अक्टूबर २०१६, रविवार, भोपाल
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