एक लेख पढ़ा था, वह लेख एक बहुत बड़े उद्योगपति का था। उनके पास अपार संपति थी उन्होंने अपने बच्चों के लिए एक पत्र लिखा था संभवत: आप लोगों को याद हो, मुझे याद आ रहा है। उन्होंने लिखा था-प्यारे बच्चो! आप लोग बहुत संपदा के बीच में आए हो। संपदा जो भी संगृहीत हुई है यह आपकी नहीं है। इसके असली उपभोक्ता आप नहीं हैं। यह श्रम की एक मात्र प्रस्तुति है, श्रम की फलश्रुति है। इसके उपभोक्ता जन-जन हैं। आप लोग तो इसकी एक कड़ी मात्र हैं। इसलिए इस संपदा पर अभिमान करना आप लोगों की मूर्खता होगी।
यह पत्र उन्होंने अपने बच्चों को लाईन पर लाने के लिए, सही रास्ते पर चलाने के लिए लिखा था। यदि आप लोगों ने नहीं पढ़ा हो तो अवश्य पढ़ना और ऐसे आदर्श नागरिक से शिक्षा लेना और अपने बच्चों को धन वितरण के संस्कार देना, जिसे दान कहते हैं। दान के संस्कारों से उनमें अभिमान नहीं पनप पाएगा और वे कुसंस्कारों में नहीं फैंस पाएँगे, दुर्गतियों से भी बच जाएँगे। ये संस्कार भारतीय संस्कृति के संस्कार हैं।
-२८ जुलाई २०१६, मध्यप्रदेश विधानसभा, भोपाल