मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज जी ने कुछ वर्ष पीछे वर्तमान शिक्षा और देश की विसंगति को देखते हुए अटल जी के नाम से हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना की और विज्ञान, चिकित्सा, प्रबंधन, न्याय आदि विषयों की अंग्रेजी पुस्तकों को हिन्दी में अनुवाद करने का संकल्प लिया। ये बहुत अच्छा संकल्प है। बहुत सारे विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम के कारण इन विषयों के अध्ययन से वंचित रह जाते हैं। फलस्वरूप कुछ विद्यार्थी ही अंग्रेजी के माध्यम से आगे पढ़ पाते हैं।
आज यदि भारत यह विचार कर ले कि विदेशी भाषा की अपेक्षा भारतीय भाषा में बच्चों का पठन पाठन होगा तो भारतीय प्राचीन विद्या के माध्यम से हम विद्यानिष्ठ बनकर पूर्णत: विकसित हो जाएँगे।
भाषा एक ऐसी वस्तु है जिसके माध्यम से हम अपने भावों को सहज रूप से अशिक्षित लोगों तक पहुँचा सकते हैं। जहाँ जैसी सुविधा हो वैसी व्यवस्था होना चाहिए। भारत में भारतीय भाषाओं, मातृभाषाओं में शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि हम इतिहास को पुन: दुहरा सकें और हर व्यक्ति विद्यावान् होकर अपने पैरों पर खड़े होकर जीवनयापन करते हुए सुख शान्ति, आनंद का लाभ ले सके।
जब तक अनुसंधानकर्ता भाषा के ऊपर अधिकार नहीं रखता तब तक उसका शोध, उसका बोध गहराई तक नहीं पहुँच पाता। अभिव्यक्ति में वह गलती कर जाता है और उस गलती के कारण उसे नम्बर और उसकी योग्यता का मूल्यांकन नहीं हो पाता है। किसी की योग्यता का मूल्यांकन सही-सही करने के लिए भाषा एक बहुत सख्त महान् शस्त्र है, जिसे आप लोगों ने भुला दिया है। अब धीरे-धीरे वह । सामने आ रहा है। शिक्षा का माध्यम अलग वस्तु है और अन्य भाषा का ज्ञान करना अलग वस्तु है। इंग्लिश का विरोध नहीं कर रहा हूँ, इंग्लिश को आप एक भाषा के रूप में पढ़िए किन्तु माध्यम के रूप में नहीं। अपने भावों का माध्यम वही होना चाहिए जो मातृभाषा है, जिस भाषा को माँ ने सिखाया है। माँ के द्वारा दी गई कला को छोड़कर अन्य भाषा को आप सीख तो सकते हैं, किन्तु उसमें अपने भावों को अच्छे से, पूर्णरूप से प्रस्तुत नहीं कर सकते। अत: मातृभाषा में पढ़ने, लिखने, बोलने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। शिक्षा की मजबूरी के रूप में आंग्ल भाषा की परतंत्रता लादना ठीक नहीं है। इस परतंत्रता को फेक देना चाहिए। आप लोगों को ऐसा कहना मेरा अधिकार तो नहीं है, विधानसभा में ऐसा बोलने में मुझे संकोच हो रहा है। आपने निमंत्रण दिया सो आ गया; इसलिए बोल दिया।
बस, इतना ही कहना चाहता हूँ कि जो भाषा हमारे ऊपर थोपी गई है उसके बारे में हमें पुन: सोचना होगा। पहले भी खूब सोचा जा चुका है किन्तु समय-समय की स्थिति-परिस्थिति भिन्न-भिन्न हुआ करती है। अब भारत पूर्णत: स्वतंत्र है।
१७ वीं-१८ वीं शताब्दी में भारत क्या था?. इसके बारे में विदेशी लेखकों ने बहुत खोजबीन करने के बाद लिखा है। उसका अनुवाद राष्ट्रीय चिंतक धर्मपाल इत्यादि ने किया है। जिसका नाम ‘ब्यूटीफुल ट्री' के रूप में प्रस्तुत है। उन्होंने ब्यूटीफुल विद्या-शिक्षा की अपेक्षा से लिखा है कि भारत वह वैज्ञानिक क्षेत्र था जहाँ से सारे के सारे विश्व के वैज्ञानिक सीखकर के गए हैं। उसमें यह भी लिखा है कि भारत में ऐसा लौह तत्व का आविष्कार होता था जिसमें कभी जंग नहीं लगती थी। १८ वीं शताब्दी तक उस प्रकार का आविष्कार अन्य किसी देश में नहीं होता था। भारत से ही पूरे विश्व में भेजा जाता था। उस लौह तत्व से बने औजारों से शल्य चिकित्सा की जाती थी। उस लौह से बने स्तंभ दिल्ली में आज भी मौजूद हैं।
अंग्रेजी पढ़ने-लिखने वाले अपने स्वाभिमान से च्युत हो गए हैं। उन्हें भारतीय इतिहास का ज्ञान न होने के कारण यूरोप आदि अच्छे लगते हैं। जरा इतिहास उठाकर पढ़ो, कम से कम वह पुस्तक तो जरूर पढ़ो उसमें लिखा है-भारत कृषि प्रधान देश है यह बात बिल्कुल सही है। आज कृषि विज्ञान कितना उन्नत है? यह आप देख लें वर्तमान में एक एकड़ में अधिक से अधिक ३६ किंवटल अनाज होता है। ऐसा बताया है किन्तु १८वीं शताब्दी के समय तक एक एकड़ में ५६ किंवटल धान निकलता था। अब मुझे आप ही लोग बताएँ उस समय कौन-सा कृषि विज्ञान था। आप लोगों ने भारत के बारे में सोचना छोड़ दिया है। भारत के बारे में सोची, राष्ट्र के बारे में सोची, इधर-उधर जाने की अपेक्षा 'भारत में लौट आओ। भारत के इतिहास को पुनः लौटाना परम आवश्यकता है। आप इसको नोट कर लीजिएगा कि विश्व में भारत जैसा इतिहास नहीं मिलेगा। ये विषय तो प्रशासकीय परीक्षाओं में भी दर्ज किया जाना चाहिए। आज इतिहास के नाम पर विद्यार्थियों को बाहरी संस्कृति के इतिहास को पढ़ाया जा रहा है और परीक्षाएँ पास कराई जा रहीं हैं। भारत के प्राचीन और सच्चे सांस्कृतिक इतिहास को गौण किया जा रहा है। जब हमने ‘ब्यूटीफुल ट्री' पुस्तक विद्यार्थियों को दी तो उसको पढ़ने के उपरान्त उनकी आँखों में पानी आ गया। वो कहने लगे महाराज! हमारा खून उबल रहा है क्योंकि यह सब हम लोगों से ओझल रखा गया है-छिपाया गया है।
अनुसंधान के क्षेत्र में भी भारत बहुत ही आगे था, लेकिन आज अनुसंधान केवल विदेश में ही होता है। विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करके अनुसंधान के लिए विदेश जा रहे हैं और अनुसंधान करने के बाद वे उसी देश के हो जाते हैं। उसी के लिए सब कुछ करते हैं। वे भारतभूमि के लिए कुछ नहीं करते। हमें मूल की रक्षा करनी होगी। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में थोड़ा परिवर्तन लाना होगा। जिसके द्वारा जीवन उपयोगी वस्तुओं का निर्माण कर सके, वही शिक्षा होनी चाहिए। जो शिक्षा पराश्रित करे वह शिक्षा सही शिक्षा नहीं। शिक्षा से तो स्वस्थ मन, स्वस्थ वचन, स्वस्थ तन, स्वस्थ धन की प्राप्ति होना चाहिए। शिक्षा से नीति न्याय के संस्कार मिलें तभी तो शिक्षार्थी सभ्य मानव बन सकेगा। शिक्षा के माध्यम से अध्यात्म के संस्कार दिए जाने चाहिए जिससे जीवन में कैसे भी संकट आ जाएँ तो वह घबराकर जीवन को पतन की ओर न ले जाए। उसमें साहस और संबल प्रकट हो सके और अपने दायित्व को पूर्ण कर सके।
ऐसी शिक्षा भारत में होती थी। यही होना चाहिए इस दिशा में शिक्षाविद् मिलकर के आगे आएँ कार्य करें। इस प्रकार वीणा उठाने की आवश्यकता है। इतिहास पढ़ने से ज्ञात होता है कि भारत में शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में पैसे या शुल्क नहीं लिया जाता था। व्यावसायिक दृष्टिकोण नहीं रहा किन्तु आज उस इतिहास को भुला दिया गया है और शिक्षा, चिकित्सा दोनों ही व्यवसाय बन गए हैं। इस कारण पढ़ने वाले विद्यार्थियों का उद्देश्य भी मात्र पैसा कमाना रह गया है। वह येन-केनप्रकारेण पैसा कमाने के लिए अनीति-अन्याय का सहारा ले रहा है या फिर देश से पलायन कर रहा है। भारत को पुन: सोने की चिड़िया बनाने के लिए अपने पुरातत्व की ओर लौटना होगा, जो पूरा तत्व है। ऐसे ऐतिहासिक नीतियों को अपनाकर वह कार्य हम कर सकते हैं और इसके लिए युवा शक्ति को जागृत करने की आवश्यकता है।
भारत को जो स्वतंत्रता मिली है वह इसी उद्देश्य को लेकर के मिली है। तभी भारत का उद्धार हो सकता है जब इस उद्देश्य को पूर्ण किया जाए। जिन्होंने अपना परिश्रम करके स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने जीवन का होम कर दिया, आहुति दे दी। उनका अनुग्रह, उनका उपकार, उनका ऋण हमें चुकाना होगा और यह तभी चुक सकेगा जब हम उस भारतीय पुरातन ऐतिहासिक शिक्षा, चिकित्सा को अपनी पीढ़ियों को देंगे। यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है।
-२८ जुलाई २o१६, विधानसभा, भोपाल