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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. धनी जनों धी धनों औ तपोधनों के मुख से अपनी प्रशंसा के सरस श्राव्य / श्रुतिमधुर गीत सुन हृदय में गद्गद हो कभी भूल स्वप्न में भी कठपुतली-सा नर्तक बन करे न नर्तन टुन टुन...टुन टुन यह मेरा संयमित नियंत्रित समाधितंत्रित भावित मन... हे! अमन! हे! चमन!
  2. ओ री स्पर्शा! तेरा वेदन सम्वेदन क्या सो गया है ? क्या खो गया है ? आज तुझे हो क्या गया है ? तू वृत्तिवाली राजसी उल्लास हास की आली रसीली मतवाली विलासिता राजसी अनुभव करने वाली आज विराज रही एक कोने में नाराज सी विश्व उपेक्षिता सहज समाधिलीन मुनि महाराज-सी विषय-विमुखा विरागिनी विपरीता रीता अवनीता स्वयं को किया है अनुपम उत्तम भाव-मालाओं से गिरि उन्नीता नीता विलोकिनी हल्की सी गंभीरा भय भीता भव से है ? ...क्या मुझसे है ? किससे है ? ऐसी सम्पृच्छना वाली भावना मन में उठी ही थी उससे पूर्व ही अश्रुतपूर्वा अपूर्व ध्वनि तरंग क्रम से ध्वनित / निनादित हुई आतम के गूढ़ निगूढ़तम प्रान्त में ...किन्तु अनुभूत हुआ कि वह मौन और गहन गहनतम होता जा रहा है यथार्थ में वह ध्वनि नहीं है औ किसी परिचित से प्रेषित / संप्रेषित संप्रेषण शक्ति भी नहीं है बहिर्जगत का संबंध टूट जाने से पदार्थ का ही सहज परिणमन निरन्तर जो हो रहा है केवल अनधिगत का अधिगमन हुआ... कर्कश कठोरता से मखमल कोमलता से लघुता से क्या ? गुरुता से क्या ? स्निग्ध स्नेहिल रूक्ष रेतिल रे तिल! चंदन चन्दर शीतल क्या ? धू-धू करती ज्वाला से क्या ? कुन्दन कुंकुम से क्या ? दल दल पंकिल से क्या ? मैं स्पर्शा स्पर्शातीता तर्षातीता हर्षातीता हो ‘‘अलिंग-गहण” लिंगातीत गाढालिंगित होकर भी स्पर्शातीता हूँ...! यह भाव जब ध्वनित हुआ तब विदित हुआ कि मैं भी अस्पर्श हूँ अब किसको छू सकता कैसा कौन मुझे छू सकता तू ही फूल बन जा तू ही शूल बन जा तेरी छुवन से भीतरी चुभन से मेरे प्रतिप्रदेश स्पर्शित हों हर्षित हों ओ ...री...स्पर्शा…!!
  3. निश्चल निश्छल संवेदनशील समता छलकती लोचनों में धवलिमा मिश्रित गुलाब फूल की हलकी लालिमा सी भी तरल रेखा नहीं नहीं कभी न खिचे निन्दोपजीवी मतिहीन / दीन विषयों, कषायों में सतत संल्लीन मानव मुख से आश्रव्य निन्द्य वचन सुनकर हे करुणाकर! गुणगण आकर!
  4. अरी रसना ! कितनी लम्बी स्थिति है तेरी मरी नहीं तू अभी मेरी उपासना मुझे स्वयं करना किन्तु मेरी शक्ति / क्षमता मेरे पास ना ! मेरे वश ना ! वासना की वसना जो दृष्टि अगोचर / अगम्य ओढ़ रक्खी है तूने ! ... हा!... चाहती नहीं तू अपने में वसना तेरी निराली है रचना स्वाभाविक-सा बन गया है तेरा कार्य, पर में रच पचना कभी मिठास की आस मधुरिम मोदक चखती श्रीखण्ड चखने सदा उत्कण्ठिता / कंठ फुलाती संतुष्टा तृप्ता कदा क्या होती मुधा ? कभी कभी सुर सुर करती दिखती चरपरा चाट चाटती तत्परा परा निरे निरे औ नये नये नित व्यंजन स्वाद विलीना स्व-पर-बोध-विहीना राग रागिनी वीणा उधर उदारमना उदर को भी उपेक्षित करती उदास करती अपनी पूर्ति में अपनी स्फूर्ति में नित निरत रहती किन्तु तेरी क्षुधा कभी मिटती भी क्या नहीं ? ब्रह्माण्डीय रस-राशियाँ। तेरी अनीकी भीतरी शरण में समाहित हुई हैं जा जा आज तक अगाध गहराई है वह हे ब्रह्माण्ड व्यापिनी अनंतिनी महातापिनी महापापिनी “जब तक तेरा पुण्य का बीता नहीं करार तब तक तुझको माफ है चाहे गुनाह करो हजार!”... इस सूक्ति की स्मृति भर मन में रखकर पुरुषार्थ-क्षेत्र में निशिदिन तत्पर हूँ मैं इधर मत गिन वे दिन अब दूर नहीं... सरपट भाग रहा है काल झटपट जाग रहा है पुरुषार्थ का फल भाग्य का विशाल भाल! प्रभातीय लालिमा सा ललित लोहित लाल उदीयमान सुखद भानु बाल लो भगवत्पाद मूल मिला भावना का फल तत्काल साधना के सम्मुख नाच नाचता काल चलता साधक के अनुकूल धीमी धीमी चाल और ज्ञात हुआ अज्ञात विषय कि रसना पराश्रित रस चख नहीं सकती षड्रस नवरस ये रस नहीं नयना-गम्य अदृश्य रस-गुण की विकृतियाँ क्षणिका जड़ की कृतियाँ आत्मा अरस रहा रसातीत समरस रसिया निज रस लसिया निज घर वसिया निश्चय से औ रसीली रसना नहीं मरती अमरावती अजरा अमरा लीलावती तभी वह सर्वप्रथम भक्ति भाव से भीगी भक्ति रस गुणगान अनुपान करती करती कब अनजान यह रसना समरस सिंचित सौम्य सुगंधित पराग-रंजित प्रभुपद-पंकज में तात्कालिक अपनी परिणति आकुंचित कर संकोचित कर संक्रमित संक्रान्त होती है किन्तु कभी कभी लोमानुलोम या प्रतिलोम क्रम से सरस!! सरस!!! सरस!... परम स्वातम रस अरस आतम से वार्ता करती बस...! जिससे संचारित है संचालित आत्मा के वे, नस नस!!... संयत सहज शान्त सुधा रस पीती जाती... पीती जाती… अपनी आँखें निमीलित कर कर वाचा गौण मौन भावातीत स्फीत उदीत समीत सम्वेदना में डूबी जाती अनंत अन्तिम छोर... ...की ओर ...डूबी जाती...डूबी जाती विषयासक्त कामुक भावों से उदभूत अभिभूत आधियाँ पूर्वकृत विकृत कर्मोदय संपादित महा व्याधियाँ और भौतिक / लौकिक / बौद्धिक पर संबंधित बाहरी भीतरी उपाधियाँ अनपेक्षित कर… संकल्प-विकल्पों नाना जल्पों नहीं छूती रह अछूती निर्विकल्प समाधि निःसृत रसास्वाद से स्वादित अयि! रसना अमित अनागत काल तक... मेरी बनी रहे. ...शरणा!
  5. हे अभय! दान विधान-विधाता दयानिधान करुणावान श्रीपाद-प्रान्त में कुछ याचना करने याचक बन कर!... गायक रूप में आया था चाहता था कुछ स्वच्छ साफ धोना बाहर से होना सुन्दर सलोना किन्तु… यह आपकी सहज समता कृति आकृति इस विषय का परिचायक है कि इच्छा याचना दीन-हीन... दयनीय भाव से परोन्मुखी हो पर सम्मुख हाथ पसारना आत्मा की संस्कृति प्रकृति नहीं है विभाव संस्कारित विकृति है पल पल मिटती पलायु वाली परिणति है लो! यह भी अज्ञात ज्ञात हो कण-कण से मिलन हुआ अणु-अणु का छुवन हुआ पुनि पुनि बिछुड़न छुड़न हुआ विभ्रम से भ्रमित हो लक्ष्यहीन अन्तहीन उसी ओर मुड़न हुआ भव-भव में भ्रमण हुआ पुनः पुनः / वहीं वहीं... गमनागमन हुआ महाकाल का प्रभाव दाव बाहर से दबाव भीतर भावुक भाव काल का अनुगमन हुआ...! यह मात्र वर्तन / परिवर्तन परिणमन हुआ ?... हो रहा होगा त्रैकालिक वैभाविक या स्वाभाविक यह आन्तरिक चरण चरण!... संचरण! जिसका उपादान साधकतम, बाधकतम जो भी हो स्वायत्त पुरुषत्वं करण रहा अधिकरण रहा... काल नहीं काल की चाल नहीं उदासीन भाल पर लिखित दैव का भी सवाल नहीं किन्तु चिरन्तन घटना में कुछ भी घटन नहीं कुछ भी बढ़न नहीं हुआ हनन नहीं अंश अंश सही रहा कण कण वही और रहा वहीं… और रहा वहीं… मेरा पर में पर का मुझ में मात्र आभास मिश्रण-सा किन्तु... कहाँ हुआ संक्रमण संकर दोषातीत ध्रुव पिण्ड रहा यह ! अब क्या होना होना ही अमर रहा होना ही समर रहा समर रहा !... होना ही उमर अहा ! चैतन्य सत्ता के मणिमय आसन पर आसीन पुरुष का होना ही !... छायादार छतर रहा सुगंध वाहक चमर रहा औ अधिगत हुआ अवगत हुआ कि यह दान का विधि-विधान बाहरी घटना है औपचारिकी कर्मजा!... अन्तर घटना नहीं क्योंकि परस्पर / आपस में उपादान का आदान-प्रदान नहीं होता उसका केवल होता अपने में ही आप रूप से आविर्माण हे कृतकृत्य ! उपकृत हुआ एक अननुभूत पूत सम्वेदनामय निराकार आकार में जाग्रत होकर आकृत हुआ धन्य...!
  6. हे! जितकाम ललाम आपने ऐसा कौन सा किया है काम की काम का तमाम काम हो बेकाम आगामी सीमातीत काल तक अनुभव करता रहेगा विराम का विदित होता है कि युक्ति से काम लिया है आपने शक्ति से नहीं एक पंथ दो काज!... इस सूक्ति का निर्माण किया है यथार्थ में आपने चिरकालीन चंचल मन की सत्ता को जो है पर से प्रभावित चेतना का ही एक विकृत परिणाम दुखधाम और मनोज का अधिकरण उद्गम स्थान अधिष्ठान हे आप्त! समाप्त किया है...! आपकी दृष्टि मूल पर रही चूल पर नहीं कारण के नाश में कार्य का विकास / विलास संभव नहीं / असम्भव! कारण के सहवास में कार्य का वह विनाश भी असंभव!... यह व्याप्ति है औ आपका न्याय-सिद्धान्त । हे शंभव! इसलिए आपका संदेश है। आदेश है कि दूर रहो... हे भद्रभव्यो!... । मन से मनोज से मनोज के बाण सुमन से... फिर बनो अमन...!
  7. सप्तम पृथ्वी का रवरव नरक रसातल से भी नीचे निगोद के तलातल पाताल से निकला हुआ किसी कर्मवश ऊर्ध्वगम्यमान दुर्लभतम जंगमवान हुआ सुकृत योग शुभोपयोग संयमवान हुआ!... यह यात्री यात्रातीत होने भवभीत हो / विनीत हो एक अदम्य जिज्ञासा के साथ आप से, धर्मामृत पान करने की प्रतीक्षा में... उस तरह जिस तरह... अपने पुरुषार्थ के बल पर क्षार सागर के अगम / अगाध तल से ऊपर उठकर सागर जल के अग्रभाग पर आकर!... अपने को कृतार्थ बनाने यथार्थ बनाने सुचिर काल क्षार जल के सेवन से फटा हुआ / मुँदा हुआ मुख खोलकर वर्षाकालीन नभ मण्डल में जल से लबालब भरे विचरते / सहज डोलते सभी जलद दलों की अपेक्षा नहीं करती केवल!... स्वाति नक्षत्रीय!... मेघमाला से मौन ! किन्तु... भावविभोर हो प्रार्थना करती अपनी कारुणिक आँखों से पूजा करती मौलिक मौक्तिक मणियों में ढलने की प्रकृति वाले अमृतमय शान्त शीतल उज्ज्वल जलकणों की प्रतीक्षा में वह शुक्तिका...!
  8. वैदिक शास्त्रों में देवताओं की चार विशेषताएं बताई गई हैं। एक देवताओं का पैर धरती से ऊपर होता है। दूसरा, देवता पलक नहीं झपकते। इसके अलावा देवताओं को पसीना नहीं आता | और उनकी परछाई नहीं बनती। उनकी देह पारदर्शी होती है। देवताओं की इन चारों विशेषताओं पर गौर किया जाए तो इनमें गहरे संदेश मिलते हैं। देवताओं का धरती को नहीं छूना पार्थिव आकर्षणों से भौतिक प्रलोभनों से अस्पर्शिता के साथ रहना है। कीच में कमल की तरह विरत और उपराम। दूसरी विशेषता सतत जागरूकता की है। यानी इंटरनल विजिलेंस या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। जीवों के दुख और दुर्दशा की चिंता में संत सज्जन पुरुष रात्रि को जागृत रहते हैं। तीसरी विशेषता नहाने के बिना भी बदबू नहीं आती, पसीना नहीं आने का अर्थ उनके आचरण में छिद्र नहीं होने से है। छिद्रान्वेषियों की विशेष कोशिशों के बावजूद संत जन अपने व्यवहार, आहार विहार में छिद्र नहीं रखने की कोशिश करते हैं। अपने कर्तव्य में छिद्र न छोड़ने वाला देवता होता है। उनका मन निष्कुलिष होता है। वह मैल का न सृजन करता है और न ही उत्सर्जन। चौथी विशेषता है पारदर्शिता। देवता पुरुष में कुटिलता नहीं होती व ऋजु होता है। आर्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है - जो ऋजु है। 180 डिग्री की सरल रेखा वाला है। पारदर्शी पुरुष के आरपार देखा जा सकता है, उसके भीतर सत्य का प्रकाश है। सौंदर्य का गुर है- कम भ्रम और अधिक आत्मा। गुरुदेव आचार्यं विद्यासागरजी की भक्ति लिफ्ट करा दे की इच्छा को पूरा करती है लेकिन बंगला, मोटर, कार दिलादे के लिए नहीं। बल्कि इससे भी ऊपर ओर बेहतर के लिए, विशुद्धि के लिए प्रेरित करती है। पुरुष की जिंदगी में दो ही दिन महत्वपूर्ण हैं, एक वो दिन जब वह पैदा हुआ और दूसरा वह जब वह जान ले, खोज कर ले कि वह क्यों पैदा हुआ। उस दिन वह द्विज बना, जब हमारे अस्तित्व का अर्थ हमें पता लगता है तब हमारा जीवन, जीवन हुआ। आचार्यश्री के जीवन के दो महत्वपूर्ण दिवस में भी महा महत्वपूर्ण पचासवां दीक्षा दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में कुछ भी करने या कहने के लिए चयनित होने से अभिभूत हूं, धन्य हूं, प्रसन्न हूँ। सब कुछ मिल गया का अहसास है कि सद्रु कृपा हमारे पास है। (लेखक पूर्व मुख्य कार्यकारी न्यायाधश मप्र हैं) जस्टिस कृष्ण कुमार लाहोटी Publishd in Daink Bhashker, 11-10-2017, all Addition (aprox) 52 Lacks Copy
  9. जिनके जीवन में निरन्तर अनुस्यूत बहती रहती मानानुभूति ज्ञान की आपको अपना ज्ञान विज्ञान प्रमाण दर्शित / प्रदर्शित कर अपमानित करने का लाघव भाव विभाव वैभाविक मन में भावित कर आपके सम्मुख उद्ग्रीव मुख विनय-विमुख फूल समान नासा फुलाते पहली बार खडे हैं अपने ध्रुव पर अड़े हैं भावी गौतम! इन्द्रभूति!! मोहातीत मायातीत औ अपूर्ण ज्ञान से सुदूर/अतीत हो तुहिन कण की उजल आभा सी स्फटिक शुद्ध पारदर्शिनी स्व-पर-प्रकाशिनी सकलावभासिनी परम चेतना रूपी जननी के पावन पुनीत परम पद्-प्रद् पदपद्मों में अपनी कृतज्ञता का भाव व्यक्त अभिव्यक्त करते हुए विनत मन प्रणत तन नत नयन अंग अंग औ उपांग नमित करते अमित अमिट अतुल / विपुल विमल / परिमल गुण गण कमलों का अर्घ अर्पित समर्पित करते आपको निरखते हैं… उस तरह जिस तरह हरित भरित पल्लव-पत्रों फूले फूलों फलों दलों से लदा हुआ मस्तक झुकाता अपनी जननी वसुंधरा के चरणों में विनीत वह पादप! प्रतिफल यह हुआ कि उनके मानस-सरोवर में कल्पनातीत आशातीत विकल्पों की तरल तरंगमाला... पल भर बस परवश तरंगायित हो। उसी में उत्सर्गित तिरोहित इस निर्णय के साथ हार रे। अब तक मेरा निर्णय, निश्चय निश्चय से सत्य तथ्य से अछूता रहा नश्वर असत्य सारहीन को छूने दीन बना है... भ्रमित मन छटपटा रहा है मुम् आत्मा, मान से संतुष्ट वह आत्मा प्रमाण से सम्पुष्ट मैं परिधि पर भटक रहा अटक रहा मेरा मन विषयों के रस में चटक मटक कर रहा यह केन्द्र में सुधारस गटक रहा मैं उलटा लटक रहा यह सुलटा अनन्य दुर्लभ सुख सम्वेदनशील घटना का घटक रहा मैं विभाव भाव दूषित मैं परावलम्बित पराभूत यह स्वावलम्बित अभिभूत पूत !... इसके इस तुलनात्मक दृष्टिकोण ने मौन का विमोचन कर अपने अंग-अंग को सामयिक आदेश इंगन से इंगित किया कि हो जाओ जागृत ! सावधान! अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिपल...! लोचन युगल एक गहरी नती की अनुभूति में लीन हो डुबकी लगाने लगा कर कमल प्रभु के चरणों में समर्पित होने उद्यत आतुर... जुड़ गये घुटने धरती पर टिक गई पंजों का सहारा एड़ी पर पीठ आसीन और भूली फूली नासिका प्रायश्चित माँगती यह स्वभाव भाव भूषित धरती पर रगड़ने लगी अपनी अनी!... उत्तमांग चिर समार्जित मान का विसर्जन करने कृतसंकल्प प्रणत!... अनन्त काल के लिए हे अनन्त के पार उड़ने वाले! अनन्त सन्त...!!
  10. आहार चर्या शुभ संदेश - फाल्गुन कृष्ण ६ आज परम पूज्य संत शिरोमणि १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज का पड़गाहन करके आहार दान देने का सौभाग्य - श्री यशवंत जी जैन (दिगंबर जैन मंदिर, मालवीय रोड के कोषाध्यक्ष) डी डी नगर, रायपुर निवासी एवं उनके परिवार वालों को प्राप्त हुआ | सूचना प्रदातासिंघई श्री सोनू जी जैन नागपुर
  11. 6 फरवरी 2018 - कल के लिए आचार्य विद्यासागर जी के रूप में आज एक ऐसी कथा बुनी जा रही है। जिसकी सच्चाई आने वाले पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा बनी रहेगी। वे एक ऐसी सत्ता है। जो अपने आसपास से एक लय में दिखाई पड़ती है। उनका आसपास माने पर्यावरण। उनकी कृश काया की लय जिसमें किसी चिड़िया का गीत है, जिसमें किसी बादल की उमड़ घुमड़ है, जिसमें बांसवन की सरसराहट है लेकिन अपने आस-पास की बहुत अलंकृत और बनावटी सामाजिकता में वह बहुत अलग भी पड़ते हैं। उनका वह स्वरूप जो दिगंबर है, आज के आडंबर के स्पष्ट प्रत्याख्यान में है। आचार्य जितने बड़े आदर्श के निर्वाह में लगे हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि तपस्विता की गौरवपूर्ण परंपरा का भविष्य अभी भी सुरक्षित है। आचार्य विद्यासागर की श्रेष्ठता इसमें है कि उन्होंने विद्या को सृजन में बदला है। उनकी साधना-प्रणाली में बहुत सी दार्शनिकता है लेकिन वे उसकी रूक्षता और शुष्कता से आक्रांत नहीं हुए। उन्होंने उसे रचनात्मकता की सरसता में परिणत किया। जैन दर्शन वैसी भी बहुत गूढ़ है। किन्तु आचार्य जी की हार्दिकता ने उसे इतने मधुर और सरल रूप में पेश किया है। प्रायः दर्शनों का एक बड़ा-सा प्रोटोकॉल होता है। स्वयं आचार्य जी के जीवन क्रम में बहुत से नियम-उपनियम, विधियां-उपविधियां हैं जिन्हें उन्होंने बहुत साधना के साथ निबाहा भी है, लेकिन अपनी कविताओं में वे जैसे सारे बंधनों को तोड़ते और शब्दों के साथ अपनी ही क्रीड़ाओं को स्वते हुए दिखाई देते हैं। उनका ‘मूक माटी' जैसा महाकाव्य तो अब विश्वसाहित्य की एक धरोहर है और संभवतः इस मायने में वह अनूठा है कि कोई मानव-मानवी उसका नायक-नायिका नहीं है और इसके बाद भी वह हमारी मानवीयता के सारे भावों-अनुभावों, संचारी भावों को जगाता है। हमें बहुत से स्थाई और संचारी भावों से आलोड़ित करता है और कोई हवाई बात करने की जगह जमीनी बात कहता है। इसी का परिणाम यह है कि आचार्य श्री आज स्वयं ग्रंथलेखक ही नहीं रह गए हैं, बहुत से ग्रंथों के कारण बन गए हैं, स्वयं उन पर बहुत सी पीएचड़ी हो चुकी हैं और उन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उनकी लिखी पुस्तक के अंश विश्व-विद्यालयों के पाठ्यक्रम में हैं। वे कितना आगे चले आए हैं। जिसके लिए विश्व ही विद्यालय हो, उसके लिए विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम भी समर्पित होने ही होने थे। हालांकि मेरा मत यह है कि प्रज्ञात्मा आचार्य श्री को निरंजना शतक, भावना शतक, सुनीति शतक दि रचनाओं के माध्यम से भी जानना चाहिए। विद्यासागर जी ने अपना पूरा जीवन धर्म की प्रभावना के लिए लगा दिया है। यह युग ऐसा है कि जब धर्म को जिंदगी की ज्यादातर चुनौतियों के लिए अप्रासंगिक माना जा रहा है और कई बात तो ऐसा भी है। कि धर्म स्वयं जिंदगी के लिए चुनौती बन गया है। ऐसे में वह जिंदगी को जिंदगी देने में कम और जिंदगी छीनने में ज्यादा काम आ रहा है और इसी कारण लोग अब धर्म से उचार भी हो रहे हैं। इसके कारण एक ऐसा भौतिकवाद भी बढ़ रहा है जो साफ-साफ धर्म को उलाहना भी देता है कि अच्छा है कि वो धर्म नहीं हुआ। ऐसे में आचार्यश्री अपने जीवन-दृष्टांत से यह स्थापित करते हैं कि धर्म विश्व भर के अपनी व्यक्तिगत इकाई के समर्पण का नाम है, विश्व भर को संत्रस्त करने का नाम नहीं है। आचार्य श्री जिंदगी से न्यूनतम मांग रखते हैं स्वयं के लिए और उसे अपना सर्वस्व देते हैं। वे जीवन की पुष्टि करते हैं और उसे लोगों को मरने-मारने के उद्योग में अपघटित करने के फैशन से मुक्त करते हैं। धर्म की उनके द्वारा की जा रही ऐसी प्रभावना ही 21वीं की दुनिया के लिए एक बड़ी उम्मीद है। आचार्य श्री का महत्व इसमें भी है कि वे उत्तर और दक्षिण के सेतु हैं। जन्म उनका कर्नाटक के बेलगांव जिले के सदलगा गांव में हुआ लेकिन उन्होंने पूरे उत्तर भारत को अपने तप और विद्वता से अभिभूत किया है। वे देश के एकीकरण के एक बहुत बड़े सार्थवाह हैं। कर्नाटक में ऐतिहासिक रूप से देखें तो जैन धर्म की उपस्थिति बहुत प्रबल रही हैं और प्राचीन समय में ही बहुत से जैन वहां बसते आए हैं लेकिन आचार्यश्री वहीं नहीं रूके, वे भारत की माटी के कण-कण को उतने ही स्नेह और आत्मीयता से सिंचित करने जो निकले तो उनके साथ-साथ एक कारवां जुड़ता चला गया। आज उनके असंख्य अनुयायी हैं जो देशभर में अपनी चर्या करते हैं। वे लोग जिनकी रूचि इन दिनों उत्तर और दक्षिण के भेदों को रेखांकित । करने में ज्यादा रही है। आचार्यश्री के जीवन क्रम को। देखकर अपनी रुचि की आत्म-समीक्षा, संशोधन और परिमार्जन कर सकते हैं। आचार्य श्री की एक विशेषता , जो मुझे उनका मुरीद बनाती है, उनका हिंदी के प्रति अगाध प्रेम है। आचार्य जी का कई भाषाओं पर समान अधिकार है, लेकिन बात भाषाओं में हासिल की गई उनकी दक्षता या कौशल की नहीं है, बात इसकी है कि उन्होंने हिंदी के प्रति- उसके राष्ट्रभाषा होने के प्रति अपनी किस हद तक प्रतिबद्धता प्रकट की है। आज जब हम देखते हैं कि हिंदी की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयुक्ति और प्रांसगिकता को लेकर स्वंय कई महानुभावों के मन में सशंय पैदा हो गया है तब आचार्यश्री हिंदी की इस भूमिका को लेकर जितने आश्वस्त और आग्रही हैं, वह महत्वपूर्ण है। इसलिए कि वह उन अहिंदी भाषी राष्ट्रनेताओं की उस महान कड़ी से जुड़ता है जिसने स्वातंत्र्य-पूर्व भारत में राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए हिंदी की जरूरत समझी थी। गांधी हों या तिलक हों या सुभाषचंद्र बोस हों- सभी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में आवश्यक माना था, सिर्फ राजभाषा की तरह ही नहीं। आचार्यश्री के रूप में वह परंपरा अपने प्रामाण्य के साथ पुनः प्रस्तुत हुई है। ऐसा तपस्वी का स्मरण हमारे लिए एक शाश्वत प्रेरणा है। सभार - प्रबोध जैन
  12. शशिकला के मृदुल कल करों का प्रेम क्षेम परम प्यार पाकर विलासिता का विकासता का सरस पान करती शशिकला की सितता को अपनी कोमल छवि से जयशीला कुमुदिनी औ प्रखर प्रचण्ड प्रभाकर कर-नखघात से खुलकर / खिलकर दिनभर विहसनशीला अनुपमलीला विकरणशीला कमलिनी भी अकुलाती जीवन से हाथ धोकर रूप-लावण्य खोकर दृष्टि अगोचर होकर.. मिट्टी में मिल जाती हेमन्तीय हिमालय का हिममय चूड़ा...! छूकर उतरा हिम मिश्रित समीर-स्पर्श पाकर !... किन्तु यह कैसी!... अदभुद घटना विरोधाभास ? कि बाहर भीतर शीतल होता जा रहा हूँ... हे शीतल! शीतलता की तुलना किस विध करूँ ? किस शीतलता के साथ ? ऐसा शीतल पदार्थ नहीं धरती तल पर ...जब से आप निष्पाप निस्ताप कृपाकर! कर कृपा मुझ पर!... मम मानस-पद्मिनी पर जो थी चिरकाल से कुड्मलित निमीलित उदासीन हुए हैं आसीन … तब से होती जा रही वह विकसित विलसित विहसित अन्तहीन अनन्त काल के लिए और... वैसे आपका शैत्य अगम्य... अकथ्य! यह पूर्ण सत्य है तथ्य है किसविध शब्दों से कर सकूँ ? अकथ्य का कथन मथन क्योंकि शीतलधाम / ललाम शीतांशु सुधा का आकर भी तरुण अरुण की किरणों से तप-तप कर सुधा विहीन होता हुआ दीन शीतोपचारार्थ अमा औ प्रतिपदा की घनी निशा में आकर आपके तापहारक शान्ति प्रदायक पाद प्रान्त में शांत छाँव में पड़ा रहता है... अन्यथा उन दिनों नभ-मण्डल में वह दिखता क्यों नहीं ? हे अविनश्वर! सघन ज्ञान के ईश्वर!
  13. केवल अनुमान नहीं है यह पूर्ण स्पष्ट है प्रत्यक्ष प्रमाण है कि अक्षय / अव्यय आनन्द का अपार / अपरम्पार सुधा सागर अनन्त विध गुणों उन परिणमनों की अपरिमित लहरों से लहरा रहा है निरन्तर...! आपके विशाल पृथुल अगाध उदर के अन्दर...! अन्यथा मूंगे की मंजु अरुणिमा भी स्वयं जिनके आश्रम में प्रतिदिन पानी भर कर अपने को कृतार्थ मानती है ऐसे आपके लाल लाल विमल निहाल अधरों के अग्रभाग पर हाव-भाव सहित सोल्लास मंद-स्मित-नर्तकी नर्तन क्यों कर रही है...? हे! विभो!
  14. चेतना के भीतरी मध्यभाग में परम विशुद्ध/सहज तीन रेखायें समग्र आत्मप्रदेशों को अपने प्रभाव से प्रभावित करती हुई आपकी कायागत बाहरी ग्रीवा की शोभा वैभव में और मंजुता की छटा उत्कीरती विस्तृत फैलाती सम्यक दृष्टि स्थित प्रज्ञा विरागता के परिवेश में प्रतिछवि सी आपके कण्ठप्रदेश पर केन्द्रीभूत हो जगमग जगमग जगी हैं...! फलस्वरूप आपके कण्ठ को देख अपने कण्ठ से तुलना कर स्वयं को अतुल अमूल्य समझने वाला दिव्य शंख भी स्वयं को निर्मूल्य/नगण्य समझकर लज्जातिरेक से लज्जित हो विकल हो। सर्वप्रथम चिंता में डूब गया दिन प्रतिदिन वह उस चिंता के कारण सफेद हुआ... और अन्त में ऐसा विचार करता है कि संसार को मुख दिखाना कैसा उचित होगा अब... मध्य रात्रि में उठकर अपार जलराशि में जाकर डूब गया...! अन्यथा सागर में उसका अस्तित्व क्यों...? हे भगवन् !!...
  15. स्वयं को अवगाहित कर रहा हूँ अतल अगम सत् चेतना के गहराव में मस्तक के बल पर दोनों हाथों से नीचे से नीर को चीरता हुआ... ..... चीरता हुआ ऊपर की ओर फेंकता हुआ... .....फेंकता हुआ जा रहा हूँ... आर पार होने अपार की यात्रा करने पथ में कोई आपत्ति नहीं है आपत्ति की सामग्री अवश्य!... ऊपर-नीचे आगे-पीछे बिछी है किन्तु ..... अभी कोई ओर छोर... दृष्टि में नहीं आ रही है शोर भी तो नहीं चारों ओर मौन का साम्राज्य विस्तृत वितान बस! सब कुछ स्वतंत्र अपनी-अपनी सत्ता को सँजोये हुए सहज सलील समुपस्थित परस्पर में किसी प्रकार का टकराव नहीं लगाव के भाव नहीं अपने-अपने ठहराव में अपने-अपने संवेदन अपने-अपने भाव पर से भिन्न अपने से अभिन्न निरभ्र आकाश मंडल में उडुदल की भांति ज्ञानादि उज्ज्वल-उज्ज्वल गुणमणियाँ अवभासित हैं अवलोकित हैं आलोक का परिणमन यहाँ घनीभूत प्रतीत होता है लो! यहीं पर मिथ्यात्व-रूपी मगरमच्छ से भी साक्षात्कार किन्तु उधर से आक्रमण नहीं कटाक्ष नहीं संघर्ष के लिए कोई आमंत्रण भी नहीं अनंत काँटों से निष्पन्न उसका शरीर है कठोरता का शुद्ध परिणमन कठोरता की परम सीमा है परन्तु ..... मृदुता से विरोध नहीं करता विरोध में बोध कहाँ ? बोध बिना शोध कहाँ ? विरोध तो अज्ञान का प्रतीक अन्धकार... ओ! नयन-गवाक्षों से फूटती हुई अबाधित ज्योति किरण मेरी ओर चाँदी की पतली धार सी आ रही है सानन्द आसीन है सत्तागत अनन्तानुबंधी सर्प कंदर्प दर्प से पूरा भरा है ज्ञान ज्ञेय का सहज संबंध हुआ शुद्ध सुधा और विष का संगम हुआ यह ज्ञान के लिए अपूर्व अवसर है ज्ञान न तो दुखित हुआ न सुखित हुआ किन्तु ..... यह सहज विदित हुआ .... कि ध्यान ध्येय संबंध से भी ज्ञेय-ज्ञायक संबंध महत्वपूर्ण है पूर्ण है / सहज है कोई तनाव नहीं इसमें केवल स्वभाव है भावित भाव!... ध्येय एक होता है जब ध्यान में ध्येय उतरता है तब ज्ञान ससीम संकीर्ण होता है संकुचित ज्ञान अनंत का मुख छू नहीं सकता अतः ज्ञान प्रवाहित होता हुआ अनाहत बहता हुआ... जा रहा है.. सहज अपनी स्वाभाविक गति से अदभुत है ! अननुभूत है! विकार नहीं निर्विकार तप्त नहीं क्लान्त नहीं तृप्त है शान्त है जिसमें नहीं ध्वान्त है ..... जीवित है जाग्रत भी नितान्त है अपने में विश्रान्त है यह विभूति अविकल अनुभूति ऐसे ज्ञान की शुद्ध परिणति का ही यह परिपाक है कि उपयोग का द्वितीय पहलु दर्शन अपने चमत्कार से परिचित कराता अब भेद.....पतझड़ होता जा रहा है अभेद की वसंत-क्रीड़ा प्रारंभ द्वैत के स्थान पर अद्वैत उग आया है विकल्प मिटा आर-पार हुआ तदाकार हुआ निराकार हुआ समयसार हुआ ..... वह मैं...! मैं.....मैं सब प्रकाश में प्रकाश का अवतरण विकाश में विनाश उत्सर्गित होता हुआ सम्मिलित होता हुआ सत् साकार हो उठा आकार में निराकार हो उठा इस प्रकार उपयोग की लम्बी यात्रा मत् त्वत् और तत् को चीरती हुई पार करती हुई पार आज...! सत् में विश्रान्त है पूर्ण काम है अभिराम है हम नहीं तुम नहीं यह नहीं वह नहीं मैं नहीं तू नहीं सब घटा सब पिटा सब मिटा केवल उपस्थित !... सत् सत् सत् सत् है... है... है... है…
  16. स्वाध्याय 7 - तत्त्व सिद्धान्त विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/sagar-boond-samaye/svadhyaay-tatv-siddhant/ #quotes
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