स्वयं को अवगाहित कर रहा हूँ
अतल अगम सत् चेतना के गहराव में
मस्तक के बल पर
दोनों हाथों से
नीचे से नीर को चीरता हुआ...
..... चीरता हुआ
ऊपर की ओर फेंकता हुआ...
.....फेंकता हुआ
जा रहा हूँ...
आर पार होने
अपार की यात्रा करने
पथ में कोई आपत्ति नहीं है
आपत्ति की सामग्री अवश्य!...
ऊपर-नीचे
आगे-पीछे
बिछी है
किन्तु ..... अभी कोई ओर छोर...
दृष्टि में नहीं आ रही है
शोर भी तो नहीं
चारों ओर मौन का साम्राज्य
विस्तृत वितान
बस!
सब कुछ स्वतंत्र
अपनी-अपनी सत्ता को सँजोये हुए
सहज सलील समुपस्थित
परस्पर में किसी प्रकार का टकराव नहीं
लगाव के भाव नहीं
अपने-अपने ठहराव में
अपने-अपने संवेदन
अपने-अपने भाव
पर से भिन्न
अपने से अभिन्न
निरभ्र आकाश मंडल में
उडुदल की भांति
ज्ञानादि उज्ज्वल-उज्ज्वल गुणमणियाँ
अवभासित हैं
अवलोकित हैं
आलोक का परिणमन यहाँ
घनीभूत प्रतीत होता है
लो!
यहीं पर मिथ्यात्व-रूपी मगरमच्छ
से भी साक्षात्कार
किन्तु उधर से आक्रमण नहीं
कटाक्ष नहीं
संघर्ष के लिए
कोई आमंत्रण भी नहीं
अनंत काँटों से निष्पन्न
उसका शरीर है
कठोरता का शुद्ध परिणमन
कठोरता की परम सीमा है
परन्तु ..... मृदुता से विरोध नहीं करता
विरोध में बोध कहाँ ?
बोध बिना शोध कहाँ ?
विरोध तो अज्ञान का प्रतीक
अन्धकार...
ओ!
नयन-गवाक्षों से
फूटती हुई
अबाधित ज्योति किरण
मेरी ओर चाँदी की पतली धार सी
आ रही है
सानन्द आसीन है
सत्तागत अनन्तानुबंधी सर्प
कंदर्प दर्प से पूरा भरा है
ज्ञान ज्ञेय का सहज संबंध हुआ
शुद्ध सुधा
और विष का संगम हुआ
यह ज्ञान के लिए अपूर्व अवसर है
ज्ञान न तो दुखित हुआ
न सुखित हुआ
किन्तु ..... यह सहज
विदित हुआ .... कि
ध्यान ध्येय संबंध से भी
ज्ञेय-ज्ञायक संबंध
महत्वपूर्ण है
पूर्ण है / सहज है
कोई तनाव नहीं
इसमें केवल स्वभाव है
भावित भाव!...
ध्येय एक होता है
जब ध्यान में ध्येय उतरता है
तब ज्ञान ससीम संकीर्ण होता है
संकुचित ज्ञान
अनंत का मुख छू नहीं सकता
अतः ज्ञान प्रवाहित होता हुआ
अनाहत बहता हुआ...
जा रहा है..
सहज अपनी स्वाभाविक गति से
अदभुत है !
अननुभूत है!
विकार नहीं
निर्विकार
तप्त नहीं
क्लान्त नहीं
तृप्त है
शान्त है
जिसमें नहीं ध्वान्त है .....
जीवित है
जाग्रत भी नितान्त है
अपने में विश्रान्त है
यह विभूति
अविकल अनुभूति
ऐसे ज्ञान की शुद्ध परिणति का ही
यह परिपाक है
कि उपयोग का द्वितीय पहलु
दर्शन अपने चमत्कार से परिचित कराता
अब भेद.....पतझड़ होता जा रहा है
अभेद की वसंत-क्रीड़ा प्रारंभ
द्वैत के स्थान पर
अद्वैत उग आया है
विकल्प मिटा
आर-पार हुआ
तदाकार हुआ
निराकार हुआ
समयसार हुआ .....
वह मैं...!
मैं.....मैं सब
प्रकाश में प्रकाश का अवतरण
विकाश में विनाश उत्सर्गित होता हुआ
सम्मिलित होता हुआ
सत् साकार हो उठा
आकार में निराकार हो उठा
इस प्रकार
उपयोग की लम्बी यात्रा
मत् त्वत् और तत् को
चीरती हुई
पार करती हुई
पार आज...!
सत् में विश्रान्त है
पूर्ण काम है
अभिराम है
हम नहीं
तुम नहीं
यह नहीं
वह नहीं
मैं नहीं
तू नहीं
सब घटा
सब पिटा
सब मिटा
केवल उपस्थित !...
सत् सत् सत् सत्
है... है... है... है…