ओ री स्पर्शा!
तेरा वेदन
सम्वेदन
क्या सो गया है ?
क्या खो गया है ?
आज तुझे
हो क्या गया है ?
तू वृत्तिवाली राजसी
उल्लास हास की आली
रसीली मतवाली
विलासिता राजसी
अनुभव करने वाली
आज विराज रही
एक कोने में
नाराज सी
विश्व उपेक्षिता
सहज समाधिलीन
मुनि महाराज-सी
विषय-विमुखा
विरागिनी विपरीता
रीता
अवनीता
स्वयं को किया है
अनुपम उत्तम
भाव-मालाओं से
गिरि उन्नीता
नीता
विलोकिनी
हल्की सी
गंभीरा भय भीता
भव से है ?
...क्या मुझसे है ?
किससे है ?
ऐसी सम्पृच्छना वाली
भावना मन में उठी ही थी
उससे पूर्व ही
अश्रुतपूर्वा
अपूर्व ध्वनि
तरंग क्रम से
ध्वनित / निनादित हुई
आतम के गूढ़ निगूढ़तम प्रान्त में
...किन्तु
अनुभूत हुआ कि
वह मौन
और गहन गहनतम
होता जा रहा है
यथार्थ में
वह ध्वनि नहीं है
औ किसी परिचित से
प्रेषित / संप्रेषित
संप्रेषण शक्ति भी नहीं है
बहिर्जगत का संबंध
टूट जाने से
पदार्थ का ही सहज परिणमन
निरन्तर जो हो रहा है
केवल अनधिगत का
अधिगमन हुआ...
कर्कश कठोरता से
मखमल कोमलता से
लघुता से क्या ?
गुरुता से क्या ?
स्निग्ध स्नेहिल
रूक्ष रेतिल
रे तिल!
चंदन चन्दर शीतल क्या ?
धू-धू करती ज्वाला से क्या ?
कुन्दन कुंकुम से क्या ?
दल दल पंकिल से क्या ?
मैं स्पर्शा
स्पर्शातीता तर्षातीता
हर्षातीता हो
‘‘अलिंग-गहण”
लिंगातीत
गाढालिंगित होकर भी
स्पर्शातीता हूँ...!
यह भाव जब ध्वनित हुआ
तब विदित हुआ कि
मैं भी अस्पर्श हूँ
अब किसको छू सकता
कैसा कौन मुझे
छू सकता
तू ही फूल बन जा
तू ही शूल बन जा
तेरी छुवन से
भीतरी चुभन से
मेरे प्रतिप्रदेश
स्पर्शित हों
हर्षित हों
ओ ...री...स्पर्शा…!!