अरी रसना !
कितनी लम्बी स्थिति है तेरी
मरी नहीं तू अभी
मेरी उपासना
मुझे स्वयं करना
किन्तु
मेरी शक्ति / क्षमता
मेरे पास ना !
मेरे वश ना !
वासना की वसना
जो दृष्टि अगोचर / अगम्य
ओढ़ रक्खी है तूने ! ... हा!...
चाहती नहीं तू
अपने में वसना
तेरी निराली है
रचना
स्वाभाविक-सा बन गया है
तेरा कार्य, पर में
रच पचना
कभी मिठास की आस
मधुरिम मोदक चखती
श्रीखण्ड चखने सदा
उत्कण्ठिता / कंठ फुलाती
संतुष्टा तृप्ता कदा
क्या होती मुधा ?
कभी कभी
सुर सुर करती दिखती
चरपरा
चाट चाटती
तत्परा परा
निरे निरे औ
नये नये नित
व्यंजन स्वाद विलीना
स्व-पर-बोध-विहीना
राग रागिनी वीणा
उधर
उदारमना
उदर को भी
उपेक्षित करती
उदास करती अपनी पूर्ति में
अपनी स्फूर्ति में
नित निरत रहती
किन्तु
तेरी क्षुधा कभी मिटती भी
क्या नहीं ?
ब्रह्माण्डीय रस-राशियाँ।
तेरी अनीकी भीतरी शरण में
समाहित हुई हैं जा जा
आज तक
अगाध गहराई है वह
हे ब्रह्माण्ड व्यापिनी
अनंतिनी
महातापिनी
महापापिनी
“जब तक तेरा पुण्य का
बीता नहीं करार
तब तक तुझको माफ है
चाहे गुनाह करो हजार!”...
इस सूक्ति की स्मृति भर
मन में रखकर
पुरुषार्थ-क्षेत्र में
निशिदिन तत्पर
हूँ मैं इधर
मत गिन
वे दिन
अब दूर नहीं...
सरपट भाग रहा है
काल
झटपट जाग रहा है
पुरुषार्थ का फल
भाग्य का विशाल
भाल!
प्रभातीय लालिमा सा
ललित लोहित लाल
उदीयमान
सुखद भानु बाल
लो भगवत्पाद मूल
मिला भावना का फल
तत्काल
साधना के सम्मुख
नाच नाचता
काल
चलता साधक के अनुकूल
धीमी धीमी चाल
और ज्ञात हुआ
अज्ञात विषय
कि रसना
पराश्रित रस चख नहीं सकती
षड्रस नवरस
ये रस नहीं
नयना-गम्य अदृश्य
रस-गुण की विकृतियाँ
क्षणिका जड़ की कृतियाँ
आत्मा अरस रहा
रसातीत
समरस रसिया
निज रस लसिया
निज घर वसिया
निश्चय से
औ रसीली रसना
नहीं मरती
अमरावती
अजरा अमरा
लीलावती
तभी वह
सर्वप्रथम
भक्ति भाव से भीगी
भक्ति रस गुणगान
अनुपान
करती करती कब
अनजान
यह रसना
समरस सिंचित
सौम्य सुगंधित
पराग-रंजित
प्रभुपद-पंकज में
तात्कालिक
अपनी परिणति
आकुंचित कर
संकोचित कर
संक्रमित संक्रान्त
होती है
किन्तु कभी कभी
लोमानुलोम
या प्रतिलोम क्रम से
सरस!! सरस!!! सरस!...
परम स्वातम रस
अरस आतम से
वार्ता करती बस...!
जिससे संचारित है
संचालित
आत्मा के वे, नस नस!!...
संयत सहज
शान्त सुधा रस
पीती जाती...
पीती जाती…
अपनी आँखें
निमीलित कर
कर वाचा गौण
मौन
भावातीत
स्फीत उदीत
समीत सम्वेदना में
डूबी जाती
अनंत अन्तिम छोर...
...की ओर
...डूबी जाती...डूबी जाती
विषयासक्त
कामुक भावों से उदभूत
अभिभूत
आधियाँ
पूर्वकृत विकृत
कर्मोदय संपादित
महा व्याधियाँ
और भौतिक / लौकिक / बौद्धिक
पर संबंधित
बाहरी भीतरी
उपाधियाँ
अनपेक्षित कर…
संकल्प-विकल्पों
नाना जल्पों
नहीं छूती
रह अछूती
निर्विकल्प समाधि निःसृत
रसास्वाद से
स्वादित
अयि! रसना
अमित अनागत काल तक...
मेरी बनी रहे.
...शरणा!