जिनके जीवन में
निरन्तर अनुस्यूत
बहती रहती
मानानुभूति
ज्ञान की
आपको
अपना ज्ञान
विज्ञान
प्रमाण
दर्शित / प्रदर्शित कर
अपमानित करने का
लाघव भाव
विभाव
वैभाविक मन में
भावित कर
आपके सम्मुख
उद्ग्रीव मुख
विनय-विमुख
फूल समान
नासा फुलाते
पहली बार
खडे हैं
अपने ध्रुव पर
अड़े हैं
भावी गौतम!
इन्द्रभूति!!
मोहातीत
मायातीत
औ अपूर्ण ज्ञान से
सुदूर/अतीत हो
तुहिन कण की उजल आभा
सी
स्फटिक शुद्ध पारदर्शिनी
स्व-पर-प्रकाशिनी
सकलावभासिनी
परम चेतना रूपी
जननी के
पावन पुनीत
परम पद्-प्रद्
पदपद्मों में
अपनी कृतज्ञता का भाव
व्यक्त
अभिव्यक्त करते हुए
विनत मन
प्रणत तन
नत नयन
अंग अंग औ उपांग
नमित करते
अमित अमिट
अतुल / विपुल
विमल / परिमल
गुण गण कमलों का
अर्घ अर्पित
समर्पित करते
आपको निरखते हैं…
उस तरह
जिस तरह
हरित भरित
पल्लव-पत्रों
फूले फूलों
फलों दलों से
लदा हुआ
मस्तक झुकाता
अपनी जननी
वसुंधरा के
चरणों में
विनीत
वह पादप!
प्रतिफल यह हुआ
कि
उनके मानस-सरोवर में
कल्पनातीत
आशातीत
विकल्पों की
तरल तरंगमाला...
पल भर बस
परवश
तरंगायित हो।
उसी में उत्सर्गित
तिरोहित
इस निर्णय के साथ
हार रे।
अब तक
मेरा निर्णय, निश्चय
निश्चय से
सत्य तथ्य से
अछूता रहा
नश्वर असत्य
सारहीन को
छूने
दीन बना है...
भ्रमित मन
छटपटा रहा है
मुम् आत्मा, मान से संतुष्ट
वह आत्मा प्रमाण से सम्पुष्ट
मैं परिधि पर भटक रहा
अटक रहा
मेरा मन
विषयों के रस में
चटक मटक कर रहा
यह केन्द्र में सुधारस
गटक रहा
मैं उलटा लटक रहा
यह सुलटा
अनन्य दुर्लभ
सुख सम्वेदनशील
घटना का घटक रहा
मैं विभाव भाव दूषित
मैं परावलम्बित
पराभूत
यह स्वावलम्बित
अभिभूत
पूत !...
इसके इस
तुलनात्मक दृष्टिकोण ने
मौन का विमोचन कर
अपने अंग-अंग को
सामयिक
आदेश इंगन से
इंगित किया
कि हो जाओ
जागृत ! सावधान!
अपने कर्तव्य के प्रति
प्रतिपल...!
लोचन युगल
एक गहरी नती की अनुभूति में
लीन हो डुबकी लगाने लगा
कर कमल
प्रभु के चरणों में
समर्पित होने
उद्यत आतुर...
जुड़ गये
घुटने धरती पर
टिक गई
पंजों का सहारा
एड़ी पर पीठ
आसीन
और
भूली फूली
नासिका
प्रायश्चित माँगती
यह स्वभाव भाव भूषित
धरती पर रगड़ने लगी
अपनी अनी!...
उत्तमांग
चिर समार्जित
मान का विसर्जन करने
कृतसंकल्प
प्रणत!...
अनन्त काल के लिए
हे अनन्त के पार उड़ने वाले!
अनन्त सन्त...!!