हे अभय!
दान विधान-विधाता
दयानिधान
करुणावान
श्रीपाद-प्रान्त में
कुछ याचना करने
याचक बन कर!...
गायक रूप में
आया था
चाहता था कुछ
स्वच्छ साफ धोना
बाहर से होना
सुन्दर सलोना
किन्तु…
यह आपकी सहज
समता कृति
आकृति
इस विषय का परिचायक है
कि
इच्छा याचना
दीन-हीन...
दयनीय भाव से
परोन्मुखी हो
पर सम्मुख
हाथ पसारना
आत्मा की संस्कृति
प्रकृति नहीं है
विभाव संस्कारित
विकृति है
पल पल मिटती
पलायु वाली
परिणति है
लो! यह भी अज्ञात ज्ञात हो
कण-कण से मिलन हुआ
अणु-अणु का छुवन हुआ
पुनि पुनि बिछुड़न
छुड़न हुआ
विभ्रम से भ्रमित हो
लक्ष्यहीन अन्तहीन
उसी ओर मुड़न हुआ
भव-भव में भ्रमण हुआ
पुनः पुनः / वहीं वहीं...
गमनागमन हुआ
महाकाल का प्रभाव
दाव
बाहर से दबाव
भीतर भावुक भाव
काल का अनुगमन हुआ...!
यह मात्र
वर्तन / परिवर्तन
परिणमन हुआ ?...
हो रहा होगा
त्रैकालिक
वैभाविक
या स्वाभाविक
यह आन्तरिक
चरण चरण!...
संचरण!
जिसका उपादान
साधकतम, बाधकतम
जो भी हो
स्वायत्त पुरुषत्वं
करण रहा
अधिकरण रहा...
काल नहीं
काल की चाल नहीं
उदासीन
भाल पर लिखित
दैव का भी सवाल नहीं
किन्तु
चिरन्तन घटना में
कुछ भी घटन नहीं
कुछ भी बढ़न नहीं
हुआ हनन नहीं
अंश अंश सही
रहा कण कण वही
और रहा वहीं…
और रहा वहीं…
मेरा पर में
पर का मुझ में
मात्र आभास
मिश्रण-सा
किन्तु...
कहाँ हुआ संक्रमण
संकर दोषातीत
ध्रुव पिण्ड रहा यह !
अब क्या होना
होना ही अमर रहा
होना ही समर रहा
समर रहा !...
होना ही उमर अहा !
चैतन्य सत्ता के
मणिमय आसन पर
आसीन पुरुष का
होना ही !...
छायादार छतर रहा
सुगंध वाहक चमर रहा
औ अधिगत हुआ
अवगत हुआ
कि यह दान का
विधि-विधान
बाहरी घटना है
औपचारिकी
कर्मजा!...
अन्तर घटना नहीं
क्योंकि
परस्पर / आपस में
उपादान का
आदान-प्रदान
नहीं होता
उसका केवल होता
अपने में ही
आप रूप से
आविर्माण
हे कृतकृत्य !
उपकृत हुआ
एक अननुभूत
पूत सम्वेदनामय
निराकार आकार में
जाग्रत होकर
आकृत हुआ
धन्य...!