शशिकला के
मृदुल कल करों का
प्रेम क्षेम
परम प्यार
पाकर
विलासिता का
विकासता का
सरस पान करती
शशिकला की सितता को
अपनी कोमल छवि से
जयशीला
कुमुदिनी
औ
प्रखर प्रचण्ड
प्रभाकर कर-नखघात से
खुलकर / खिलकर दिनभर
विहसनशीला
अनुपमलीला
विकरणशीला
कमलिनी भी
अकुलाती
जीवन से हाथ धोकर
रूप-लावण्य खोकर
दृष्टि अगोचर
होकर..
मिट्टी में मिल जाती
हेमन्तीय
हिमालय का
हिममय चूड़ा...!
छूकर उतरा
हिम मिश्रित
समीर-स्पर्श
पाकर !...
किन्तु
यह कैसी!...
अदभुद घटना
विरोधाभास ?
कि बाहर भीतर
शीतल
होता जा रहा हूँ...
हे शीतल!
शीतलता की तुलना
किस विध करूँ ?
किस शीतलता के साथ ?
ऐसा शीतल पदार्थ नहीं
धरती तल पर
...जब से आप
निष्पाप निस्ताप
कृपाकर!
कर कृपा
मुझ पर!...
मम मानस-पद्मिनी पर
जो थी
चिरकाल से
कुड्मलित
निमीलित
उदासीन
हुए हैं
आसीन …
तब से
होती जा रही वह
विकसित
विलसित
विहसित
अन्तहीन
अनन्त काल के लिए
और...
वैसे आपका शैत्य
अगम्य... अकथ्य!
यह पूर्ण सत्य है
तथ्य है
किसविध
शब्दों से कर सकूँ ?
अकथ्य का कथन
मथन
क्योंकि
शीतलधाम / ललाम
शीतांशु
सुधा का आकर भी
तरुण अरुण की किरणों से
तप-तप कर
सुधा विहीन
होता हुआ दीन
शीतोपचारार्थ
अमा औ प्रतिपदा की
घनी निशा में आकर
आपके तापहारक
शान्ति प्रदायक
पाद प्रान्त में
शांत छाँव में
पड़ा रहता है...
अन्यथा
उन दिनों
नभ-मण्डल में
वह दिखता क्यों नहीं ?
हे अविनश्वर!
सघन ज्ञान के
ईश्वर!