केवल अनुमान नहीं है
यह पूर्ण स्पष्ट है
प्रत्यक्ष प्रमाण है
कि
अक्षय / अव्यय
आनन्द का अपार / अपरम्पार
सुधा सागर
अनन्त विध गुणों
उन परिणमनों की
अपरिमित लहरों से
लहरा रहा है निरन्तर...!
आपके
विशाल पृथुल अगाध
उदर के अन्दर...!
अन्यथा
मूंगे की मंजु अरुणिमा भी
स्वयं
जिनके आश्रम में
प्रतिदिन पानी भर कर
अपने को कृतार्थ मानती है
ऐसे आपके
लाल लाल
विमल निहाल
अधरों के अग्रभाग पर
हाव-भाव सहित
सोल्लास
मंद-स्मित-नर्तकी
नर्तन क्यों कर रही है...?
हे! विभो!