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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ४९ शिष्यों ने लिया गुरु का साक्षात्कार

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    १५-०२-२०१६

    कूण (उदयपुर राजः)

     

    परमसत्य की शाश्वत्ता पर श्रद्धान्वित गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के तप:पूत चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु...

    हे गुरुवर! यूँ तो आपको सब ज्ञात ही है फिर भी आज मैं वह रहस्य उद्घाटित कर रहा हूँ जो स्तवनिधि में बन गया था कि ब्र, विद्याधर जी अचानक से कहाँ चले गए?... विद्याधर आपकी तरह पूर्व जन्म के वैरागी थे, संसार के रागरंग में दुःख सहित क्षणिक सुखानुभूति में फँसना उन्हें गवाँरापन लगा और अनन्त से भटकती आत्मा को प्रकाश की ओर ले जाना ही जन्म की सार्थकता अनुभूत हुई। आचार्य देशभूषण जी महाराज के संघ में प्रवास करते समय अजमेर के किसी ज्ञानी पुरुष ने उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु आपश्री के बारे में अवगत कराया था। वही ज्ञानपिपासा लेकर विद्याधर स्तवनिधि से मोहीं रागियों की दृष्टि में गायब हुए थे, किन्तु अन्तस् का वह यात्री अपने निश्चित लक्ष्य को लेकर स्तवनिधि से कोल्हापुर होते हुए बॉम्बे पहुँचे और वहाँ से अहमदाबाद पहुँचे, अहमदाबाद से अजमेर पहुँचे थे। दो दिन-रात लोहपथ गामिनी गाड़ी (रेलगाड़ी) में खड़े-खड़े बिना खाये-पिए आपके दर्शन की आश में मई माह की भीषण गर्मी में इतना बड़ा पुरुषार्थ करके आप तक पहुँचे थे और तब आपश्री के चरणों में समर्पित हो गए थे। इस सम्बन्ध में मुनि श्री सुव्रतसागरजी महाराज ने आचार्यश्री के साथ हुई वार्तालाप लिखकर भेजी है। वह मैं आपको प्रेषित कर रहा हूँ

     

    शिष्यों ने लिया गुरु का साक्षात्कार

    "करेली पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव १४-२१ फरवरी २००० में सानंद सम्पन्न होने के बाद आचार्य श्री जी संघ सहित छिंदवाड़ा (म.प्र.) की तरफ प्रस्थान कर रहे थे। छिंदवाड़ा के पहले एक सारना नाम के ग्राम में प्रातः काल पहुँचे, आहारचर्या हुई, २ मार्च २००० का दिन था और ग्राम पंचायत के भवन में आचार्य महाराज ठहरे हुए थे। सारना से मेघाशिवनी ग्राम ५ कि.मी. पर ही था इसलिए विहार शाम को होना था। सामायिक के बाद आचार्य महाराज से तत्त्वचर्चा करने हेतु कुछ मुनिराज उनके पास गए।

     

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    चर्चा के दौरान आचार्य श्री जी मुस्कुराते हुए बोले- 'मैं कोल्हापुर से ट्रेन में बैठकर अजमेर पहुँचा था वो भी रात में, दो उपवास हो गए थे, अतः साधक को अपना आहार, विहार और निहार ठीक रखना चाहिए, नियन्त्रित रखना चाहिए तो वह बीमार नहीं पड़ता, उसकी साधना ठीक चलती है। इसके बाद प्रश्नोत्तर का सिलसिला चल पड़ा हम लोग -

     

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    आचार्यश्री जी! - निहार एवं विहार तो अपने वश में है परन्तु आहार को किस प्रकार से नियन्त्रित किया जाए? अंतराय आदि के समय तो बड़ी गंभीर अवस्था हो जाती है।

    आचार्यश्री - देखो, आहारचर्या पराधीन है, उस समय पता चलता है त्याग का महत्त्व (हँसते हुए)। हमारे जीवन की शुरुआत इसी त्याग से प्रारम्भ हुई थी जो आज तक चल रही है।

    हम लोग - यह कब की बात है आचार्यश्री ?

    आचार्यश्री - जब मैं, आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के पास गया था उस समय की बात है।

    हम लोग - आप कहाँ से कहाँ गए थे आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज के पास ?

    आचार्यश्री - मैं, स्तवनिधि से आचार्य देशभूषणजी महाराज के पास से अजमेर गया था।

    हम लोग - आप ज्ञानसागर जी महाराज के पास स्वयं गए थे या देशभूषण जी महाराज ने भेजा था ?

    आचार्यश्री - (तेज मुस्कान के साथ) क्या हुआ कि सदलगा वहाँ से पास में है। समाचार पाते ही सदलगा से बड़े महावीर जी मुझे लेने आए तो मैंने सोचा कि परिवार के अन्य सदस्य भी आ सकते हैं। अत: यहाँ से दूर जाकर आत्मज्ञान-साधना करना चाहिए। ऐसा विचार कर मैं वहाँ से निकल गया।

    हम लोग - आपने ज्ञानसागर जी महाराज को पहिले से देखा था क्या? या मात्र सुना था?

    आचार्यश्री - जब हम चूलगिरि जयपुर में देशभूषण जी महाराज के पास में थे तब वहाँ अजमेर के एक ब्रह्मचारी जी से परिचय हुआ था। वे हमें ज्ञानसागर जी महाराज के बारे में, उनके ज्ञान के बारे में सदा बताते रहते थे।

    हम लोग - आप कौन-सी स्टेशन से अजमेर के लिए बैठे थे ?

    आचार्यश्री - कोल्हापुर से।

    हम लोग - और टिकिट ?

    आचार्यश्री - टिकिट तो पहले ही ले लिया था।

    हम लोग - रिजर्वेशन कराया था या सिम्पल टिकिट था ?

    आचार्यश्री - उस समय मैं यह सब कुछ नहीं जानता था।

    हम लोग - टिकिट खरीदने के उपरान्त कुछ पैसा तो आपके पास रहा होगा ?

    आचार्यश्री - हाँ, पाँचेक रुपये बचे थे।

    हम लोग - तो आप, दो उपवास के उपरान्त पहुँचे थे?

    आचार्यश्री - दो उपवास के उपरान्त नहीं, दो उपवास में पहुँचे थे। बेला हो गया था, वह मेरे जीवन का पहला बेला था।

    हम लोग - आपने रास्ते में कुछ खाया-पिया क्यों नहीं? पैसे तो थे ?

    आचार्यश्री - उस समय सोचता था कि सात प्रतिमाएँ हैं मेरी और नहाया भी नहीं, देव-दर्शन, पूजन के बिना आहार कैसे करूँ? पैसे थे, दुकाने भी थीं, सामग्री भी थी किन्तु बिना देव-दर्शन, पूजन के कैसे संभव था ?

     

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    हम लोग - आप स्टेशन पर उतरकर दर्शन कर आते ?

    आचार्यश्री - देखो! मैं उस समय कुछ ज्यादा जानता भी नहीं था और मुझे यह भी नहीं मालूम था कि कौन-से गाँव-नगर में मंदिर हैं और कहाँ पर है तथा मन में ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शनों की तीव्र भावना थी, इस कारण खाने-पीने का विकल्प ही नहीं आया।

    हम लोग - फिर उन पाँच रुपयों का क्या किया ?

    आचार्यश्री - रिक्शे आदि में खर्च हो गए।

    हम लोग - आप अजमेर कितने बजे पहुँच गए थे एवं किनके यहाँ पर गए थे ?

    आचार्यश्री - रात के लगभग ११-१२ बजे पहुँचे थे और उन्हीं परिचित ब्रह्मचारी जी के यहाँ पर पहुँचे। पहुँचकर, गरमी के दिन होने के कारण छत पर जाकर लेट गए, किन्तु खाली पेट और अत्यधिक गरमी होने के कारण नींद नहीं आयी। तभी उन ब्रह्मचारी जी ने कहा कि हाथ मुँह धो-लो, और जैसे ही उन्होंने ढका हुआ पात्र उघाड़ा तो उसमें पानी नहीं था। (हँसते हुए) 

    हम लोग - फिर आपने इस परिस्थिति में क्या किया ?

    आचार्यश्री - (मुस्कुराते हुए) उन्हीं ब्रह्मचारी जी से कमण्डलु लिया और दुपट्टा गीला करके ओढ़ लिया। थोड़ी देर बाद दुपट्टा भी सूख गया।

    हम लोग - फिर क्या हुआ था ?  

    आचार्यश्री - (थोड़ा-सा रुककर हँसकर बोले) फिर क्या, घण्टिया गिनते रहे। एक, दो, तीन, चार - चार बजे सुबह उठकर सामायिक की फिर शुद्धि आदि करके अभिषेक, पूजन किया। उसके बाद उन्हीं ब्रह्मचारी जी के यहाँ पारणा की। उसके उपरान्त सामायिक की। फिर नींद आने के कारण लेट गया तो नींद लग गई और ऐसी लगी कि शाम हो गई, पता ही नहीं चला। शाम को ब्रह्मचारी जी ने जगाया और कहा मैं तो जल लेने जा रहा हूँ, आप भी चलिए तो मैं भी चला गया। हम दोनों जल लेकर वापस आ गए।

    हम लोग - आप तो पहले से ही एक बार ही भोजन लेते थे ?  

    आचार्यश्री - हाँ, परन्तु शाम को जल तो लेता था। फिर उन ब्रह्मचारी जी से चर्चा हुई फिर वे ही आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शन कराने ले गए। मैंने दर्शन करके उनके चरणों में अपना माथा रख दिया एवं कहा- ‘अपनी शरण में ले लो।' तो महाराज ने पूछा-तुम्हारा नाम क्या है? तो हमने कहा- ‘विद्याधर'। फिर महाराज बोले- 'तुम्हारा नाम तो विद्याधर है, तुम तो विद्या धारण करके चले जाओगे मुझे क्या मिलेगा?' तो मैंने कहा- ‘महाराज नहीं जाऊँगा; आज से सवारी गाड़ी का त्याग करता हूँ' तब ज्ञानसागर जी महाराज मुझे विस्मयकारी दृष्टि से देखते रहे। शायद वो कहना चाह रहे हो इतनी-सी बात पर इतना बड़ा त्याग, तो मेरे कहने पर क्या होगा और मुझे देखते ही रहे।"

    हम लोग - आपकी दीक्षा के पहले आपकी बिंदौरी भी निकली थी क्या ? 

    आचार्यश्री - हाँ, वहाँ का रिवाज तो अलग प्रकार का ही है।

    हम लोग - क्या ?

    आचार्यश्री - वहाँ तो २०-२५ दिनों पहले से ही बिंदौरी, टीका एवं निमन्त्रण प्रारम्भ हो जाता है।

    हम लोग - आप पैदल जाते थे क्या ?

    आचार्यश्री - हाँ कभी पैदल, कभी बग्गी में कभी रिक्शा में बैठाकर ले जाते थे।

    हम लोग - आचार्यश्री जी! आपने केशलोंच मंच पर किया था क्या ? कैसा लग रहा था ?

    आचार्यश्री - मंच तो मंच होता है आज भी वह दृश्य आँखों में झूलता है। (हँसने लग गए)

    हम लोग - मंच पर केशलोंच में कितना समय लगा था आचार्य श्री ?

    आचार्यश्री - लगभग ३ घण्टा।इससे पहले मैं गुरु आज्ञा से दो बार केशलोंच कर चुका था।

    हम लोग - जब पहली बार केशलोंच किया था तब कितना समय लगा था?

    आचार्यश्री - वही ३-३॥ घण्टे। पहले बहुत घने बाल थे। धुंघराले एवं कड़क भी थे। इस कारण केशलोंच के समय खून निकलता था और अँगुलियाँ भी कट जाती थीं। जब स्टेज पर से लौटकर आए तो ज्यादा तकलीफ होने के कारण महाराज जी ने एक श्रावक को कहा चंदन

    का तेल लगादो, तो उन लोगों ने केसर का तेल लगा दिया और तकलीफ बढ़ गई।

    हम लोग - आपने ज्ञानसागर जी महाराज से पूछा था क्या ?

    आचार्यश्री - नहीं, उन्होंने ही श्रावकों से कहा था।

    हम लोग - यह कहाँ की बात है आचार्यश्री ?

    आचार्यश्री - किशनगढ़ की।

    हम लोग - ज्ञानसागर जी महाराज केशलोंच देखने आए थे क्या ?

    आचार्यश्री - नहीं, उनकी वृत्ति अलग ही थी। वे कभी कुछ नहीं करते थे एवं आते ही नहीं थे।

    हम लोग - आप ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्ति करते थे क्या ?  

    आचार्यश्री - हाँ, मैं एक बार महाराज की वैयावृत्ति करने गया तो महाराज जी ने वैयावृत्य नहीं कराई और कहा जाओ, पढ़ाई करो।

    हम लोग - आपने कभी महाराज जी से नहीं पूछा, आप कहाँ तक पढ़े ? कैसे रहते थे ? किस प्रकार यहाँ तक आए ? 

    आचार्यश्री - नहीं, आप लोग तो बहुत बोलते हो, मैं उनके सामने बोलता ही नहीं था। वे वृद्ध भी तो थे। और वे कम बोलते थे। नीचे सिर करके बैठे रहते थे और आँख बंद रहती थी, उनकी प्रवृत्ति अलग ही थी तथा मैं हिन्दी भी कम जानता था, सो कोई गलती न हो जाए इसलिए कम ही बोलता था।

    हम लोग - फिर आप प्रवचन कैसे करते थे ?

    आचार्यश्री - (कुछ सोचते हुए) एक बार मुझे महाराज जी ने प्रवचन करने को कहा, उस समय मैं ब्रह्मचारी था उन्होंने कहा तो मैंने प्रवचन किया। प्रवचन में, मैं एक कहानी सुना रहा था। कहानी में मुनि महाराज प्रवचन सुना रहे थे। प्रवचन सभा में एक व्यक्ति बैठा तो था, किन्तु वह प्रवचन सुनना नहीं चाहता था। इस कारण उसने कानों में अँगुली डाली, तो मैंने कानों की जगह आँखों में कह दिया, तो सभी लोग हँसने लगे, पर मैं समझ नहीं पाया। इस प्रकार की थी भैया हमारी हिन्दी।

    हम लोग - आप दीक्षा के उपरान्त अस्वस्थ हो गए थे ?

    आचार्यश्री - हाँ, बुखार आ गया था। दो महीने तक रहा। कुछ भी नहीं पढ़ पाते थे। दीक्षा के बाद बुखार का पहला अनुभव था कि कैसा होता है बुखार और लगभग १०७ डिग्री बुखार आता था।

    हम लोग - कैसे आया था बुखार आचार्यश्री जी ?

    आचार्यश्री - बाहर स्टेज पर बैठने से, गर्म हवा लगने से पहले प्रवचन की प्रथा नहीं थी। ग्रन्थ से वाचन होता था, बाद में निर्ग्रन्थ प्रवचन प्रारम्भ हुआ।

    हम लोग - पहले आपने उपवास बहुत किए थे क्या ?

    आचार्यश्री - पहले, भाद्रपद में एक आहार एक उपवास करने की भावना थी। परन्तु आई फ्लू हो गया था। उस समय ३३ उपवास हो चुके थे। लोगों ने कहा कि उपवास का प्रभाव आँखों पर पड़ता है तो इस कारण काला चश्मा लगाने की सलाह दी। 

    हम लोग - आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आपको अनुमति दे दी थी क्या ?

    आचार्यश्री - वो कुछ नहीं कहते थे।

    हम लोग - आचार्य श्री जी, जैसे आप बोलते हैं, देखलो, सोचेंगे, देखो, ऐसा ही ज्ञानसागर जी महाराज भी बोलते थे क्या ?

    आचार्यश्री - मैंने कहा ना, उनकी प्रवृत्ति अलग प्रकार की थी।

    हम लोग - फिर आईफ्लू ठीक हो गया ?
    आचार्यश्री - हाँ, आँख तो ठीक हो गई परन्तु डॉ. ने काला चश्मा लगाने की सलाह दी और अनिवार्य बताया। उस समय मेरी उम्र २२ वर्ष की रही होगी, तो मैंने सोचा कैसे क्या होगा ? फिर डॉक्टर से पूछा कि कोई दूसरा उपचार नहीं है क्या ? उन्होंने एक ड्रॉप डालने के लिए बताया, पर मुझे जमा नहीं। पता नहीं इसमें कैसा क्या होगा ? तो मैंने पूछा और कोई प्राकृतिक उपाय हो तो बतायें तो उन्होंने कहा कि त्रिफला के अर्क से आँख धोएँ। यह सलाह मुझे आँच गई क्योंकि यह अपने आश्रित है और दोष भी नहीं। उसी समय अमेरिका के एक डॉक्टर का लेख आया वह मुझे पढ़ाया। उसमें लिखा था नींबू की बूंद से मोतियाबिन्द का इलाज एवं चश्मा उतारने का इलाज। वैद्यों ने बताया कि कपूर सरसों का तेल भी आँखों में डाला जा सकता है तब श्रावकों ने यह बाह्य प्रयोग किए, इसके साथ आँखों की एक्सरसाइज भी किया करता था और कमण्डलु के पानी से अपनी आँखों को धोया करता था। फिर भी चश्मा नहीं उतरा और हम कुण्डलपुर आ गए। वहाँ लोगों ने कहा कि आपका चश्मा उतर ही नहीं सकता क्योंकि आप आहार में कुछ नहीं लेते हैं ।

    हम लोग - कुछ का मतलब ?

    आचार्यश्री - उस समय घी का त्याग था।

    हम लोग - आपने घी का त्याग कब किया था ? क्या आप उस समय मुनि बन गए थे ? और गुरु महाराज ने आपको मना नहीं किया ? आचार्यश्री - हाँ, गुरु महाराज जी के सामने नौ माह का त्याग किया था। उसको आजीवन त्याग करने का भाव था, परन्तु... मैंने दीक्षा के समय कुछ बड़े त्याग करने की भावना बना ली और घी का त्याग कर दिया था। उस समय उन्होंने आचार्य पद दे दिया था, इस कारण वे कुछ भी नहीं कह सकते थे, परन्तु उन्होंने गम्भीरता तो दिखाई थी। चातुर्मास ब्यावर, अजमेर, फिरोजाबाद, कुण्डलपुर, नैनागिरि, थूबौन जी इस प्रकार लगभग सात चातुर्मास तक घी का त्याग रहा और चलता रहा। जिसमें ज्ञानसागर जी गुरु महाराज के साथ नौ माह तक त्याग चला। पर...

    हम लोग - पर क्या आचार्यश्री?

    आचार्यश्री - मैं घी नहीं लेता था, इस कारण से पूरे ही संघ को रूखा-सूखा भोजन मिलता था तब मैंने घी के स्थान पर हरी का त्याग कर दिया और घी लेना प्रारम्भ कर दिया।

    हम लोग - तेल तो ले सकते थे ?

    आचार्यश्री - पहले ही हटा देते थे। पता नहीं तेल है या नहीं।

    हम लोग - आचार्य श्री जी, घी एक रस है, इसके लिए एक-दो हरी का त्याग कर देते, आपने तो पूरीहरी का त्याग कर दिया।

    आचार्यश्री - पहले पूरी हरी का त्याग नहीं किया, गिनती की हरी लेता था, बाद में पूरी हरी का त्याग किया।

    हम लोग - आचार्यश्री जी! जब आप ही का त्याग का नियम हम लोगों को देते हैं तब आप हरी में नींबू एवं मिर्ची की छूट रखने की बात करते हैं, तो आप भी नींबू एवं मिर्च की छूट रखें तो ठीक रहेगा। (सब मुनियों ने इसकी अनुमोदना की और स्वास्थ्य को देखते हुए प्रार्थना भी की परन्तु आचार्यश्री जी नीचे मुँह करते हुए मुस्कुराते रहे एवं हम लोगों की प्रार्थना स्वीकार नहीं की। हम लोगों ने पुन: कहा) आचार्यश्री जी ! आप हमेशा कहा करते हैं कि देखो, सोचते हैं, देखेंगे परन्तु आज आप कुछ भी नहीं कह रहे हैं क्या कारण है? हम लोगों का जीवन धन्य हो जायेगा यदि आप हमारी प्रार्थना स्वीकार कर लेंगे तो ?

    आचार्यश्री - (हँसते हुए) पहले बहुत ही खायी है। स्टॉक में है, वह चल रहा है। चलो-चलो बहुत टाइम हो गया।

    हम लोग - आप को घी का त्याग करते समय महाराज जी ने कुछ नहीं कहा ?

    आचार्यश्री - (सोचकर बोले) समझ लो उस समय मैं आचार्य बन गया था। (नीचे मुख करके बोले) वे क्या कहते ? सभी जोर से हँसने लगे।

    हम लोग - जैसा सामूहिक प्रत्याख्यान अभी होता है, वैसे ही पहले भी होता था क्या?

    आचार्यश्री - हाँ सामूहिक होता था।

    हम लोग - दीक्षा के बाद आपको और कुछ परेशानियाँ हुई होंगी ?

    आचार्यश्री - हाँ, एक बार नाक से खून आया, जिस समय विवेक सागर मुनि महाराज की दीक्षा हुई थी।

    हम लोग - उसका क्या इलाज हुआ था ?

    आचार्यश्री - १00 बरस पुराना घी फेफड़ो में मलने से ठीक हो गया था पर दो दिन तक बोल नहीं पाया था।

    हम लोग - अभी तक आपको कितनी बार बुखार आ चुका है ?

    आचार्यश्री - बीस बार। कटनी कुण्डलपुर, थूबौनजी, छिंदवाड़ा, नैनागिरि आदि। एक बार तो १०७ डिग्री से ऊपर आ गया था।

    हम लोग - जब आपको इतना बुखार आता है तो संघ की चिन्ता तो होती होगी ?

    आचार्यश्री - (गम्भीर हो गए) फिर विषय बदलकर बोले एक बार आहार के पहले बहुत बुखार आया। आहार को गए, पहले ग्रास में ही अन्तराय हो गया। अब तो संभलना ही मुश्किल हो गया। सभी घबरा गए। (फिर मौन हो गए, आशीर्वाद रूप में हाथ उठा दिया) हम सब समझ गए और उठ गए।' इस तरह सरल स्वभावी, भोले-भाले लौकिक व्यवस्थाओं के ज्ञान से परे अलौकिक ब्रह्मचारी विद्याधर ने अलौकिक यात्रा कर अलौकिक गुरु की अलौकिक शरण प्राप्त की। उस अलौकिकता की प्राप्ति हेतु सतत गुरु उपासना करता रहूँ इस भावना के साथ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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